स्वतंत्र समय, इंदौर
ये प्रदेश की गिनी-चुनी सीटों में से एक कही जा सकती है जहां एक ही परिवार पर मतदाताओं को भरोसा है और वे आज तक अपना वोट धर्म निभाते आ रहे हैं। इस सीट पर कांग्रेस के कद्दावर प्रभुदयाल गहलोत के बाद उनके परिवार की तूती बोलती है और इसका लाभ कांग्रेस को मिलता आया है। कांग्रेस का यह अभेद्य गढ़ है जहां भाजपा को केवल दो बार ही जीत नसीब हुई। भाजपा से ज्यादा यहां पर सोशलिस्ट व लोकदल पार्टी को जीत मिली है। प्रभुदयाल गहलोत की विरासत संभाल रहे हर्षविजय गहलोत का मुकाबला इस बार 2013 की भाजपा की विधायक संगीता चारेल से होने जा रहा है। इस बार कांटे की टक्कर की उम्मीद की जा सकती है। 1962 में पहली बार निर्वाचन क्षेत्र के रूप में यहां पर चुनाव हुए थे। इस विधानसभा में पहले चुनाव यानी वर्ष 1962 में सोशलिस्ट पार्टी के लक्ष्मण सिंह ने जीत हासिल की थी। वहीं 1967 में प्रभुदयाल गहलोत ने कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और जीता।
5 दशक से जनता का भरोसा
गहलोत परिवार इस रण में 1967 से है। कुल जमा 55-56 साल की राजनीतिक विरासत सैलाना में अब तक जारी है और भाजपा के लिए यह मशक्कत भरी सीट है। इस परिवार ने आठ बार मैदान फतह किया है। वोटर्स की तीसरी पीढ़ी आ चुकी है लेकिन गहलोत परिवार से लोगों का भरोसा डिगा नहीं है। ऐसे में भाजपा की विधायक रहीं संगीता चारेल के लिए यह मुकाबला सहज नहीं होगा।
गहलोत का राजनीतिक सफर
1972 में कांग्रेस के उम्मीदवार प्रभुदयाल गहलोत जीते और विधायक बने। उन्हें 21604 वोट मिले और उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार लक्ष्मण सिंह को 7179 वोटों से हराया। 1977 में जनता पार्टी ने इस सीट को अपने कब्जे में ले लिया। जनता पार्टी ने पहली बार चुनाव लड़ा और कामजी को मैदान में उतारा। कुल 35392 मतदाताओं ने वोट डाले और इसमें से कामजी को 24775 वोट मिले। उन्होंने प्रभुदयाल गहलोत को बड़ी मात देते हुए 14158 वोटों से हराया। 1980 में गहलोत ने वापसी करते हुए 3685 वोटों से जीत हासिल की। 1985 में गहलोत के निकटतम प्रतिद्वंद्वी जनता पार्टी से चुनाव लड़ चुके कामजी रहे। इस चुनाव में वे लोकदल नामक पार्टी के बैनर तले लड़े व 8065 वोटों से गहलोत के सामने पराजित हुए। 1990 में भारतीय जनता पार्टी ने कामजी को टिकट दिया और भाजपा का दांव काम में आया। उन्होंने प्रभुदयाल गहलोत को 6710 वोटों से हराया।
निर्दलीय बनकर ऐसी वापसी, भाजपा-कांग्रेस तीसरे-चौथे पर खिसके
1993 में कांग्रेस ने प्रभुदयाल गहलोत का टिकट काटकर लालसिंह देवड़ा को मैदान में उतारा। वहीं भाजपा ने बाबूलाल मेड़ा को टिकट दिया। पहली बार सैलाना में गहलोत के अलावा कोई ओर विधायक बना। देवड़ा 1543 वोटों से संघर्षपूर्ण ढंग से जीते। दूसरे स्थान पर जनता दल के प्रत्याशी भेरु सिंह डामोर रहे। भाजपा प्रत्याशी तीसरे क्रम पर रहे तो निर्दलीय चुनाव लडऩे वाले प्रभुदयाल गहलोत चौथे स्थान पर खिसक गए। 1998 में कांग्रेस ने लाल सिंह देवड़ा को ही टिकट दिया। इस बार प्रभुदयाल गहलोत ने दोबारा निर्दलीय लडऩे का फैसला किया और 14679 वोटों से बड़ी जीत हासिल की। यह चुनाव इसलिए भी आज तक यादगार है क्योंकि दूसरे नंबर जनता दल के भेरूसिंह डामर रहे। वहीं भाजपा और कांग्रेस तीसरे व चौथे क्रम पर खिसक गए।
कांग्रेस ने गलती सुधारी, गहलोत पर ही अब तक भरोसा
कांग्रेस ने 2003 में गलती सुधारते हुए प्रभुदयाल गहलोत को टिकट दिया और भाजपा के उम्मीदवार बाबूलाल मेड़ा को 10900 वोट से हराकर विधायक बने। 2008 में गहलोत को फिर टिकट दिया गया। प्रभुदयाल ने भाजपा की उम्मीदवार संगीता चारेल को 6285 वोटों से हराया। 2013 में बढ़ती उम्र व स्वास्थ्य कारणों से प्रभुदयाल गहलोत की बजाय उनके बेटे गुड्?डू हर्ष विजय गहलोत ने पहली बार मैदान संभाला। इस मुकाबले में भाजपा के लिए संगीता भाजपा के लिए जीत का स्वाद लाईं और संघर्षपूर्ण मुकाबले में 2079 वोटों से जीतीं। इस चुनाव में यह जोड़ी वापस आमने-सामने है, ऐसे में मुकाबला कांटे का होने की उम्मीद कही जा सकती है।
पिछली बार संगीता का टिकट कटा तो बवाल मचा
पिछले चुनाव में भाजपा ने अपनी सीटिंग एमएलए का टिकट काटकर नारायण मेड़ा को मैदान में उतारा। इस पर संगीता निर्दलीय उतरने पर आमादा हो गईं। उन्हें कैलाश विजयवर्गीय और मामा शिवराज सिंह चौहान ने समझा बुझाकर नाम वापस कराया। संगीता ने पार्टी फोरम में बताया कि अव्वल तो वे विधायक हैं और 2008 से चुनावी रण संभाल रही हैं। खैर, मामला सुलझ गया लेकिन भाजपा का अंतरविरोध भारी पड़ा। इस चुनाव में मेड़ा बड़े अंतर यानी 28498 वोटों से हर्ष विजय गेहलोत के हाथों पराजित हुए।
आदिवासी बहुल सीट
इस सीट की सबसे बड़ी ताकत आदिवासी वोटर्स हैं जिनके लिए प्रभुदयाल गहलोत आराध्य हैं। हर्ष विजय गहलोत ने सैलाना मेें उनकी प्रतिमा की स्थापना भी करवाई है। इसके बाद किसानी इलाका होने से काश्तकार वर्ग भी बड़ा वोटिंग जमाअत है जिसमें पाटीदार, ठाकुर, ब्राह्मण, मुस्लिम, विश्वकर्मा, माली, मीणा, बनिया आदि समाज शामिल हैं। गहलोत परिवार की आदिवासियों के बीच गहरी पैठ है और चुनाव में यही निर्णायक भूमिका निभाते हैं।