मध्य प्रदेश में 50 सीटों पर बागी बिगाड़ रहे खेल! सरकार बनाने में हो सकती है अहम भूमिका

राजेश राठौर, भोपाल

मप्र में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में पिछले बार हुए 2018 के विधानसभा चुनाव की अपेक्षा इस बार प्रदेश के दोनों प्रमुख दल भाजपा व कांग्रेस में टिकट न मिलने से नाराज होकर चुनाव लड़ने वाले बागियों की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है। नामांकन की समय सीमा निकलने के बाद भी ये बागी चुनाव मैदान में ताल ठोककर डटे हुए हैं। ऐसे में दोनों प्रमुख दलों के लिए यह बागी नेता,जहां प्रदेश की 50 से अधिक सीटों पर गणित बिगाडऩे की स्थिति में हैं, तो वहीं चुनाव के बाद सरकार बनाने के परिदृश्य में भी इन बागियों की बड़ी भूमिका हो सकती है। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा-कांग्रेस से छोटे-बड़े पचास बागी मैदान में हैं। इनमें से कुछ निर्दलीय उतरे हैं, तो कुछ को बसपा, सपा और आप ने टिकट दे दिया है। भाजपा और कांग्रेस के कुछ बड़े बागी खेल बिगाड़ने की स्थिति में हैं।

बुरहानपुर

भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और सांसद नंदकुमार चौहान नंदू भैया के बेटे हर्षवर्धन सिंह निर्दलीय ताल ठोंक रहे हैं। हर्षवर्धन ने 2019 में खंडवा लोकसभा का टिकट मांगा था, लेकिन नहीं मिला। हर्ष की ताकत उनके पिता की विरासत है। इसका असर स्थानीय भाजपा पदाधिकारियों के इस्तीफे से दिख रहा है। उनकी दावेदारी से कांग्रेस उम्मीदवार के राजपूत वोटर का बंटवारा हो सकता है। अल्पसंख्यक और मराठा सबसे बड़े सामाजिक समूह हैं।

बुरहानपुर

अभय मिश्रा अपने साथ कार्यकर्ता भी ले गए भाजपा से विधायक रहे अभय मिश्रा टिकट मिलने से दो दिन पहले कांग्रेस में शामिल हुए। आर्थिक-सामाजिक रूप से मजबूत मिश्रा की वजह से भाजपा के सामने मुश्किल खड़ी हो गई है। 2018 में भाजपा के केपी त्रिपाठी ने कांग्रेस के त्रियुगी नारायण शुक्ला को महज 7 हजार 776 वोटों से हराया था। इस बार भाजपा ने केपी त्रिपाठी को फिर उतारा है। 2013 में यहां से अभय मिश्रा की पत्नी नीलम मिश्रा भी भाजपा से विधायक रह चुकी हैं।

सीधी

सीधी पेशाब कांड की आंच विधायक केदारनाथ शुक्ला पर भी आई थी। मुलजिम उनका समर्थक था। भाजपा ने उनका टिकट काट दिया। नाराज शुक्ला निर्दलीय लड़ रहे हैं। आरोपी के घर बुलडोजर चलाने से ब्राह्मण समाज ने नाराजगी जताई थी। यहां ब्राह्मण वोटर निर्णायक हैं। इसे देखते हुए भाजपा ने सांसद रीति पाठक को उतारा, लेकिन ब्राह्मण और वैश्य समुदाय का बड़ा वर्ग अब भी केदारनाथ शुक्ला के साथ है। इसकी वजह से यहां कांटे का मुकाबला है।

आलोट (रतलाम)

प्रेमचंद गुड्डू की बगावत से बिखरी कांग्रेस इस सीट पर कांग्रेस ने मौजूदा विधायक मनोज चावला को उतारा है। भाजपा ने पूर्व सांसद चिंतामणि मालवीय को मौका दिया है। पूर्व सांसद प्रेमचंद गुड्डू यहां से टिकट के दावेदार थे। टिकट नहीं मिला तो बागी हो गए हैं। उनकी ताकत पुराने संपर्क और खाती समाज के वोटर हैं। उनकी मजबूती कांग्रेस के साथ भाजपा के चिंतामणि मालवीय की मुश्किल भी बढ़ा सकती है, जो खाती समाज से ही आते हैं।

महू

अंतर सिंह दरबार ने मुश्किल में डाला 2018 के चुनाव में कांग्रेस के अंतर सिंह दरबार केवल 7 हजार 157 वोटों के अंतर से हारे थे। यहां से भाजपा ने मंत्री उषा ठाकुर को फिर से मैदान में उतारा है। वहीं, कांग्रेस ने भाजपा से आए रामकिशोर शुक्ला को टिकट दिया है। नाराज दरबार अब निर्दलीय मैदान में हैं। दरबार दो बार विधायक रह चुके हैं और क्षेत्र में अच्छी पकड़ रखते हैं। यहां के ग्रामीण इलाकों में आदिवासी वोटर निर्णायक हैं और दरबार उस समाज में गहरी दखल रखते हैं।

नागोद

यादवेंद्र चुनाव मैदान में सतना जिले की इस सीट पर राजपूत नेता ही प्रभावी रहे हैं। भाजपा के नागेंद्र सिंह पांच बार विधायक रहे हैं। 2013 में यादवेंद्र ने इस सीट पर कांग्रेस को जीत दिलाई थी। 2018 के चुनाव में वे महज 1234 वोटों से नागेंद्र सिंह से हार गए। इस बार कांग्रेस ने यादवेंद्र की जगह रश्मि पटेल को मौका दिया है। यादवेंद्र बसपा के टिकट पर मैदान में हैं। यहां से बसपा को बीस से तेईस हजार वोट मिलते रहे हैं।

सतना

बसपा कैंडिडेट चतुर्वेदी को ब्राह्मण वोटरों पर भरोसा यहां ब्राह्मण वोट सबसे ज्यादा हैं। भाजपा और कांग्रेस ने टिकट देते वक्त ब्राह्मण समाज का ध्यान नहीं रखा। इसकी वजह से समाज में नाराजगी है। शिवा  चतुर्वेदी बसपा के कोर वोटरों के साथ इस नाराज ब्राह्मण वोट को एकजुट कर रहे हैं। यहां बसपा के कोर वोटर बीस से प”ाीस हजार हैं। 2018 में कांग्रेस के सिद्धार्थ कुशवाहा ने भाजपा के तत्कालीन विधायक शंकर लाल तिवारी को 12 हजार 558 वोटों से हराया था।

बड़वारा (कटनी)

पूर्व मंत्री कश्यप के साथ समाज पूर्व मंत्री मोतीलाल कश्यप की बगावत से भाजपा के समीकरण बिगड़ गए हैं। यहां मांझी समाज के तीस-पैंतीस हजार वोटर निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। कश्यप मांझी समाज के बड़े नेताओं में शामिल हैं। 2018 के चुनाव में वे कांग्रेस के विजय राघवेंद्र सिंह से हार गए थे। कांग्रेस ने इस बार भी विजय राघवेंद्र सिंह पर दांव लगाया है। भाजपा ने धीरेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाया है। कश्यप की बगावत का असर आसपास की सीटों पर भी पड़ सकता है।

मुरैना

इस सीट पर गुर्जर उम्मीदवारों की भिड़त है। भाजपा ने रघुराज कंषाना को उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस ने 2013 का चुनाव हार चुके दिनेश गुर्जर को मौका दिया है। भाजपा से दावेदारी कर रहे राकेश सिंह गुर्जर बसपा के टिकट पर मैदान में हैं। राकेश के पिता पूर्व आईपीएस अफसर रुस्तमसिंह भाजपा सरकार में मंत्री रह चुके हैं। गुर्जर समाज में भी उनका खासा दखल है।

भिंड

2018 के चुनाव में बसपा से विधायक बने संजीव सिंह भाजपा में शामिल हो गए थे। पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। वे फिर बसपा के टिकट पर मैदान में हैं। भाजपा ने नरेंद्रसिंह कुशवाहा को टिकट दिया है। 2018 में कुशवाहा सपा से लड़े थे और तीसरे नंबर पर रहे थे। कांग्रेस ने 2018 में भाजपा प्रत्याशी रहे राकेश सिंह चतुर्वेदी को उम्मीदवार बनाया। यहां दलबदल और जाति बड़ा मुद्दा है।

भिंड

सिद्धार्थ को भाजपा में पहुंचते ही टिकट मिला यह विंध्य में कांग्रेस के दिग्गज श्रीनिवास तिवारी की सीट रही है, लेकिन 1990 के बाद से यहां कांग्रेस कभी नहीं जीती। 2018 के चुनाव में भाजपा के श्यामलाल द्विवेदी ने कांग्रेस के रामशंकर पटेल को 5 हजार 343 वोटों से हराया था। यहां ओबीसी वोटर निर्णायक हैं। कांग्रेस ने श्रीनिवास तिवारी के पोते सिद्धार्थ की जगह रमाशंकर सिंह पटेल को फिर मौका दिया है।  भाजपा ने मौजूदा विधायक का टिकट काटकर सिद्धार्थ तिवारी को उतारा है।

जतारा (टीकमगढ़ )

बंसल सपा वोट के सहारे कांग्रेस को पहुंचा सकते हैं। नुकसान आरआर बंसल कांग्रेस के बड़े नेता रहे हैं। 2018 के चुनाव में पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया था, लेकिन वे 36 हजार से अधिक के बड़े अंतर से हार गए थे। सामाजिक समीकरण को देखते हुए कांग्रेस ने किरण अहिरवार को मैदान में उतारा है। भाजपा ने मौजूदा विधायक हरिशंकर खटीक को मौका दिया है। बंसल अब सपा से उम्मीदवार हैं। 2018 के चुनाव में सपा को 15 फीसद वोट हासिल हुए थे। बंसल इससे कुछ अधिक वोट ला पाए तो वे कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

पोहरी (शिवपुरी)

प्रद्युम्न वर्मा लगाएंगे धाकड़ वोटों में सेंध कांग्रेस से बागी प्रद्युम्न वर्मा बसपा से चुनाव लड़ रहे हैं। बसपा के 15 से 20 हजार आधार वोटर हैं। 35 से 40 हजार धाकड़ समाज के वोट हैं। वर्मा इसी बिरादरी से आते हैं। 2018 के चुनाव में समाज के इन्हीं वोटरों की बदौलत कांग्रेस के सुरेश धाकड़ 7 हजार से अधिक वोटों से जीते। बाद में वे ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में चले गए। इस बार कैलाश कुशवाह कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। धाकड़ वोटरों के बंटवारे और बसपा के आधार पर वोटरों की ताकत से मामला त्रिकोणीय है।

राजनगर (छतरपुर)

समाज और बसपा के वोट के बूते पटेल घासीराम पटेल साडा के अध्यक्ष और भाजपा जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। बगावत कर बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। इस सीट पर चालीस हजार से ज्यादा पटेल वोटर हैं। कांग्रेस ने मौजूदा विधायक विक्रम सिंह नातीराजा पर फिर से दांव लगाया है। 2018 में कांग्रेस को 40 हजार वोट मिले थे। दूसरे नंबर पर रही भाजपा को 39 हजार 630 वोट मिले थे। बसपा को 28 हजार 630 वोट मिले थे। घासीराम ने भाजपा में अपने समर्थकों और पटेल वोटरों का ध्रुवीकरण कर लिया तो उलटफेर कर सकते हैं।

गोटेगांव (नरसिंहपुर )

टिकट बदलने के बाद प्रजापति के लिए चौधरी की चुनौती भाजपा से कांग्रेस में आए शेखर चौधरी का क्षेत्र में अपना आधार है। कांग्रेस ने पूर्व विधानसभा अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद प्रजापति का टिकट काटकर चौधरी को दिया था। चार दिन बाद फिर प्रजापति को टिकट दे दिया। अब शेखर निर्दलीय लड़ रहे हैं। प्रजापति से नाराज कांग्रेस नेता भी शेखर से जुड़ गए हैं। वे समाज के वोटों की बदौलत कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हैं। 2018 में कांग्रेस ने यह सीट 12 हजार से अधिक वोटों से जीती थी। भाजपा ने प्रत्याशी बदलकर महेंद्र नागेश को चुनाव लड़ाया है।

सुमावली (मुरैना)

कुलदीप सिकरवार ने बढ़ाई कुशवाह की मुश्किल कांग्रेस ने मौजूदा विधायक अजब सिंह कुशवाह की जगह कुलदीप सिकरवार को टिकट दिया। कुशवाह बसपा में जाने लगे तो कांग्रेस ने फैसला बदला और टिकट दे दिया। अब बसपा के टिकट पर लड़ रहे हैं। भाजपा ने एंदल सिंह कंसाना को उतारा है। इस सीट पर वोट प्रत्याशियों के चेहरे पर पड़ता है। एंदल सिंह और अजब सिंह को बसपा के चिन्ह पर कभी 26 से 47 हजार तक वोट मिले थे। 2018 में बसपा उम्मीदवार को केवल 3 हजार 468 वोट मिले। सिकरवार की दावेदारी से अजब विरोधी कांग्रेसी वोटों के बंट जाने की संभावना है।