‘मुख्यमंत्री’… एक हसीन सपना!

 

राजेश राठौर की कलम से…

अखबारी दुनिया में सालों चप्पलें चटकाने के बाद मुझे भी अब मुख्यमंत्री बनने के सपने आने लगे हैं। चुनाव के पहले और चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर इतने लोगों से बात हो गई कि अब, जब तक मुख्यमंत्री का फैसला नहीं हो जाता, तब तक सपने में भी मुख्यमंत्री का पद दिखाई देता है।
करूं भी क्या, जहां जाता हूं बस एक ही सवाल… मुख्यमंत्री कौन बनेगा? मैं कहता हूं, अरे भैया मुझे मालूम होता तो मैं बता नहीं देता। या यूं कहें कि मेरे हाथ में मुख्यमंत्री का फैसला होता तो मैं नहीं बन जाता। सवाल पूछने वाले भी मानते कहां हैं। पूछते हैं भैया बताओ, फलां नेता बनेगा क्या? मैं मना कर देता हूं तो पूछने वाला दूसरा नाम बोल देता है। फिर दूसरे नाम का मना कर दो तो सामने वाला तीसरा नाम बोल देता है। पत्रकार होने के नाते सवाल करने की आदत है, जवाब देने की नहीं। बस, इसी कारण हैरान-परेशान हूं कि आखिर यह मुख्यमंत्री का फैसला जल्दी हो क्यों नहीं जाता। पांच-छह दिन हो गए, लोगों को तो 4-५ मिनट भी चैन नहीं पड़ती है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा। आदिवासी बनेगा, पिछड़ा बनेगा, सामान्य बनेगा या और कौन बनेगा? जवाब देते-देते आप थक जाओ, लेकिन लोग मानने को तैयार नहीं होते हैं। सोशल मीडिया ने लोगों को इतना जागरूक कर दिया कि अब सामान्य परिवार में भी इस बात की चर्चा होने लगी है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा।
सवाल दागने वाले एक सज्जन को मैंने झल्लाते हुए बोला, अरे भैया मेरी नरेंद्र मोदी और अमित शाह से बात नहीं हुई है। जिनकी बात होती है, उनकी भी उनसे यह पूछने की हिम्मत नहीं है कि मुख्यमंत्री किसको बना रहे हो। जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अलावा किसी को पता नहीं है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा तो फिर माथापच्ची क्यों कर रहे हो। राजनीति की बात करने की खुजाल भी ठीक वैसी है जैसी राजनीति करने की होती है। अब थोड़ी सी दावेदारों की बात कर लेते हैं। नाम की बजाय हम सबके बारे में बात शुरू करते हैं।
भैया और मामा का क्या होगा, पिछड़े का क्या होगा? अगड़े को बनाएंगे क्या, कोई न कोई तो बनेगा? लेकिन, सवाल इस बात का है कि क्या मुख्यमंत्री बनने के लिए सपने देखने का अधिकार भी नेता को नहीं है। करोड़ों रुपए चुनाव में खर्च करके विधायक बन गए। सालों से मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे नेताओं के लिए कल की रात कत्ल की रात थी। क्योंकि अखबार छपने के कुछ घंटे बाद भोपाल के ताल में मुख्यमंत्री का फैसला हो जाएगा। जितने जतन थे आखिरी रात को भी सारे पूरे कर लिए, पूजा-पाठ किसने, कहां की, ये सबको पता है लेकिन, दिल्ली दरबार तक जैसी कोशिश करना थी वो भी कर ली। अब करें तो क्या करें, हाथ पर हाथ धरकर बैठने का समय है। भोपाल से आने वाले दूत, विधायक दल की बैठक की नोटंकी करेंगे। दिल्ली से भेजा हुआ नाम विधायकों के मुंह से निकलवाएंगे। सहमति जैसा परंपरागत शब्द का इस्तेमाल किया जाएगा। आधा दर्जन से ज्यादा दावेदार वहां मौजूद रहेंगे और किसी एक के गले में हार-मालाएं होंगी। बाकी पार्टी के अनुशासित सिपाही होने का स्वांग रचेंगे। मिल जुलकर सरकार चलाने की बात होगी। हाय रे ये कैसी मजबूरी… जवान मौत की तरह खुद की बजाय दूसरे को सबसे बढिय़ा मुख्यमंत्री बताने की मजबूरी होगी। खैर, हमारी तरह अब आप भी इंतजार कीजिए। भोपाल में शाम 4 बजे होने वाली बैठक में ‘खुल जा सिम सिम’ की तरह मुख्यमंत्री का नाम ओपन होगा। तब सबको पता चलेगा कि मध्यप्रदेश का ‘सरदार’ कौन होगा।
-राजेश राठौर