स्वतंत्र समय, भोपाल
चंबल का नाम सुनते ही जहन में बगावत करने वाले डाकुओं की तस्वीर उभर कर सामने आती है। ग्वालियर का नाम आते ही राजा रजवाड़ों और सियासत की एक वो तस्वीर उभरती है, जिसने एमपी से लेकर दिल्ली के सियासी गलियारों में बड़ी पहचान बनाई। लेकिन मध्यप्रदेश की सियासत में ग्वालियर और चंबल दोनों वह क्षेत्र हैं, जो यहां की सियासत को एक नया मोड़ भी देते हैं और एक तासीर भी पैदा करते हैं। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा का इसी ग्वालियर और चंबल संभाग ने सूपड़ा साफ कर दिया था। फिलहाल मध्यप्रदेश की सियासत में मजबूत दावेदारी रखने वाले ग्वालियर चंबल संभाग में इस बार बड़े-बड़े नेताओं की अग्नि परीक्षा भी हो रही है। इसमें केंद्रीय कृषि मंत्री से लेकर मप्र के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी प्रतिष्ठा दांव पर है।
सियासी जानकारों का कहना है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में जिस तरीके से ग्वालियर चंबल संभाग में भाजपा का सूपड़ा साफ किया और फिर यहां पर हुई नेताओं की बगावत ने सियासत को बदल दिया, वह बताने को काफी है कि यहां की सियासत की तासीर क्या है। राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अमित तोमर कहते हैं कि 2018 के चुनाव में भाजपा को सबसे बड़ा झटका इस इलाके से लगा था। यहां के आठ जिलों की 34 सीटों में से भाजपा के हिस्से में सात सीटें ही आई थीं। जबकि 26 सीटें कांग्रेस को मिली थीं। वह कहते हैं कि जिस तरीके से इस इलाके में भाजपा के बढ़ रहे विजय रथ को रोक दिया था। ठीक उसी तरह इस क्षेत्र में हुई सियासी बगावत के बाद भारतीय जनता पार्टी को सत्ता सीन कर दिया।
प्रद्युम्न सिंह ग्वालियर से सभी मोहरे दुरुस्त करने में लगे हैं
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि 2018 के चुनावों के परिणाम के बाद हुई बगावत को भाजपा बहुत गंभीरता से ले रही है। उनका कहना है कि यही वजह है कि इस चुनाव में बड़े-बड़े दिग्गज नेताओं को भजापा ने सियासी मैदान में उतारा है। अगर चंबल और ग्वालियर संभाग को ही देखे तो केंद्रीय कृषि मंत्री और कद्दावर नेता नरेंद्र सिंह तोमर समेत मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा और शिवराज की कैबिनेट में मंत्री प्रद्युम्न सिंह ग्वालियर से सियासी ताल ठोक कर राजनीति के सभी मोहरे दुरुस्त करने में लगे हैं। अवस्थी कहते हैं कि यह चुनाव बीते तीन चुनाव की तुलना में सबसे अलग चुनाव माना जा रहा है। इसके पीछे उनके कई तर्क भी हैं। उसमें सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण तर्क यही है कि तीन बार की सरकार की एंटी इनकंबेंसी भी है और पिछले चुनाव में हुई सियासी उलटफेर की नाराजगी भी। हालांकि उनका कहना है कि भाजपा ने पिछले चुनाव में हुई अपनी हार को देखते हुए इस बार बड़े मजबूत चेहरे इस इलाके में उतारे हैं।
दलितों की ज्यादा आबादी इसलिए सियासी समीकरण भी इसी से तय होते हैं
राजनीतिक जानकार कहते हैं कि चंबल और ग्वालियर का सियासी समीकरण ही ऐसा है कि भोपाल में मुख्यमंत्री की कुर्सी को बनाने और बिगाड़ने का पूरा दमखम रखता है। इन दोनों संभाग के आठ जिलों भिंड, मुरैना, श्योपुर और ग्वालियर, शिवपुरी, गुना अशोकनगर समेत दतिया में 34 विधानसभा की सीटें हैं। वह कहते हैं कि इस इलाके की सियासत में जमीनी मुद्दे और किसानों के मुद्दे हमेशा से हावी रहे हैं। पीछे उनका तर्क है कि यहां की एक बड़ी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। उनका कहना है कि इस इलाके में दलितों की ज्यादा आबादी होने के चलते यहां पर सियासी समीकरण भी इस लिहाज से तय होते हैं। फिलहाल ग्वालियर चंबल संभाग में इस बार बड़े सियासी मुद्दों में 2018 के चुनाव में हुई सियासत की बगावत का बड़ा मुद्दा बना हुआ है। वह कहते हैं यह नाराजगी उन नेताओं के खिलाफ सबसे ज्यादा है जो बगावत में शामिल थे। चुनाव में जितनी प्रतिष्ठा भाजपा की दांव पर लगी है, उतनी ही कांग्रेस की भी लगी है।
केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर हों या नरोत्तम मिश्रा या फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया। उनका कहना है कि यह पहला चुनाव है जब सिंधिया परिवार से सभी लोग भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े हैं। यही वजह है कि इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ सबसे बड़ी प्रतिष्ठा ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी इसमें लग गई है। क्योंकि पिछले चुनाव के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया की ओर से बगावत का बिगुल फूंकने के बाद यहां की राजनीति में न सिर्फ तूफान आया, बल्कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा था।