विभाजित भारत की बुनियाद में बापू कहां है …!

डॉ.ब्रह्मदीप अलूने-

गवर्नर जनरल काउंसिल के सदस्य सर जॉन स्ट्रेची ने भारत में कई वर्ष बिताए थे, इस दौरान उन्होंने एक किताब लिखी थी इण्डिया। स्ट्रेची ने कहा कि अतीत में भारतीय राष्ट्र नाम की कोई चीज नहीं थी, न ही भविष्य में उसके ऐसा होने की संभावना है। स्ट्रेची ने इस संभावना को ही खारिज कर दिया कि पंजाब,बंगाल,उत्तर पश्चिमी प्रान्त और बंगाल के लोग कभी ऐसा महसूस भी करेंगे कि वे एक भारत के निवासी है, असंभव बात होगी।

भारत की विविधता विदेशियों को इसे एक राष्ट्र के रूप में मानने से इंकार कर देती थी। क्योंकि यहां न तो एक सभ्यता थी और न ही कोई एक संस्कृति। मान्यताएं भी बहुत भिन्नता लिए थी,जो इस विशाल भूभाग के प्रत्येक 50 किलोमीटर में बदल जाती थी। लेकिन यदि यह एक राष्ट्र नहीं था तो फिर पानीपत का युद्ध अब्दाली से लडऩे मराठे, हजारों किलोमीटर का सफर तय करते हुए दक्षिण से दिल्ली से पास हरियाणा के पांडूप्रस्थ या पानीपत क्यों पहुंच गए थे। यह युद्ध मराठों और अफगानों के बीच लड़ा गया था, हालांकि कौन किसकी तरफ था यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है। मराठा तोपखाने की कमान इब्राहिम खान गार्दी  के हाथों में थी जो युद्ध में बुरी तरह से मारे गए थे। सदाशिव राव को आधुनिक युद्ध हथियारों की समझ थी, इसलिए उन्होंने इब्राहिम ख़ान गार्दी को अपनी सेना में शामिल  कर उन्हें निर्णायक जिम्मेदारी सौंपी थी।

सदाशिव जानते थे कि इब्राहिम ख़ान तोप चलाने में काफी निपुण हैं। सदाशिव राव हजारों किलोमीटर का सफर तय करके भारत के भविष्य की संभवत: सबसे अंतिम और महत्वपूर्ण जंग जितने का ख्वाब लिए आए थे, लेकिन दिल्ली के आसपास के शुजा,राजपूत या सूरजमल जाट ने उनकी कोई मदद नहीं की। जयपुर और जोधपुर के राजाओं  समेत कई राजाओं ने अब्दाली की मदद अवश्य की। कई राजाओं को लगा कि अगर सदाशिव राव जीत गए तो वो उन पर अपना अधिकार जमा लेंगे, इसलिए ये तमाम राजा भी अब्दाली के साथ चले गए। अजमेर और आगरा के जाटों ने भी मराठाओं की मदद नहीं की। अब्दाली को भारत के कई राजाओं की भारी भरकम मदद मिलने के बाद भी मराठों से जीतने में पसीने छूट गए,कई बार अब्दाली को लगा की वे मराठों से युद्ध को हार जाएंगे। युद्ध जीतने के बाद अब्दाली ने मराठा फ़ौजियों ने जबरदस्त पराक्रम  की दाद देते हुए कहा कि किसी दूसरी नस्ल के फ़ौजी ऐसी हिम्मत नहीं दिखा सकते। अपनी जि़ंदगी की आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ी। वो अपनी मातृभूमि से दूर थे,उनके पास खाने की कमी थी लेकिन फिर भी उनके शौर्य में किसी तरह की कमी नहीं आई।

अब्दाली अफगान था और उसके जाने के कुछ वर्षों बाद दिल्ली में फिर से मुगल सम्राट शाह आलम को गद्दी पर बिठाने वाले मराठे ही थे। पानीपत की लड़ाई का भारत के इतिहास में बहुत महत्व है। यह लडाई यदि मराठे जीत गए होते तो भारत की सीमा में अफगानिस्तान भी होता और इसके शासक मराठे होते जिनका साम्राज्य उत्तर से दक्कन तक होता। लेकिन भारत ने पांच सौ वर्ष पहले से भी कोई सबक नहीं सीखा था जो 1191 में तराइन के युद्द में हुआ था। इस युद्ध के पहले तक चौहान राजा कई आक्रमणकारी तुर्कों को मारकर या हराकर खदेड़ चुके थे। गोरी को सहयोग,राजा जयचंद से मिला और इसके बाद ही दिल्ली सल्तनत की भारत में स्थापना हुई। तराइन की लड़ाई के बाद मोहम्मद गोरी क़ुतबुद्दीन ऐबक के हवाले दिल्ली छोडक़र गजनी लौट गया था। महात्मा गांधी न तो तराइन के युद्ध में शामिल थे और न ही पानीपत के  युद्ध में उनकी कोई भूमिका थी। जबकि इन  युद्धों ने संभावित भारत वर्ष के सपने को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया था। हां, लेकिन बापू का भारत को देखने और समझने का नजरिया इन दोनों  युद्धों ने दिया जरूर था। बापू यह जानते थे कि सत्ता प्रेमी राजा महाराजाओं के लिए धर्म और संस्कृति जैसा विचार बेकार है और इनके बूते भारत न तो बच सकता है और न ही बन सकता है।

आजादी  की लड़ाई में गांधी ने जनता को सबसे पहले यह एहसास कराया था कि वे किसी रियासत के नागरिक नहीं है। गांधी को भारत के राजा महाराजा कभी पसंद नहीं करते थे। 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में हीरे जवाहारात से लदे राजा महाराजाओं की आलोचना करते हुए बापू ने जब यह कहा की एक गऱीब देश में उनका इस तरह अपने धन का दिखावा करना शोभा नहीं देता। यह सुनकर राजा महाराजा सभा से उठाकर चल दिए थे और इससे मदन मोहन मालवीय बेहद नाराज हो गए थे। आज़ादी की ओर बढ़ते भारत में राजाओं का एक संगठन हुआ करता था,नरेंद्र मंडल। इसके अध्यक्ष थे पटियाला के महाराज यादवेन्द्र सिंह,इन्हें चांसलर ऑफ द चैंबर ऑफ इंडियन प्रिसेज कहा जाता था। नरेंद्र मंडल में शामिल थे, 565 महाराजा,नवाब,राजा और कई रजवाड़े। इन राजाओं के पास भारत की एक तिहाई जमीन थी और देश की चौथाई आबादी इन्हीं के क्षेत्रों में रहती थी। यह राजा रजवाड़ों का भारत था। उनके लिए सभ्यता,संस्कृति से बढक़र राजसी ठाट बांट थे। पटियाला के महाराजा के पास असीम रत्न भंडार था। सीने में हीरों जड़ा कवच पहनकर वर्ष में एक बार नग्न अवस्था में जनता के सामने आते थे।  वे विभिन्न भाव भंगिकाएं बनाकर यह बताते थे की वे शिवलिंग की लौकिक अभिव्यक्ति है तथा उनके दर्शन से  भूत प्रेत भाग जाते है। महाराज को देखने के लिए बड़ी भीड़ उमड़ती और तालियां बजाकर लोग उनका अभिवादन करते।

कश्मीर का प्रश्न गांधी और जिन्ना के लिए बेहद खास था। जिन्ना मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर में गये तो लोगों ने उन्हें ज़मींदारों का पि_ू कहकर उन पर टमाटर और अंडे फेंके। इस कारण जिन्ना को वापस भागना पड़ा। आजादी से मात्र 14 दिन पहले, रावलपिंडी के दुर्गम रास्ते से महात्मा गांधी पहली और आखिरी बार कश्मीर पहुंचे। यह अभूतपूर्व था कि घाटी में लोगों का वैसा जमावड़ा देखा नहीं गया था जैसा उस रोज जमा हुआ था। झेलम नदी के पुल पर तिल धरने की जगह नहीं थी। गांधी की गाड़ी पुल से हो कर श्रीनगर में प्रवेश कर ही नहीं सकती थी। उन्हें गाड़ी से निकाल कर नाव में बिठाया गया और नदी के रास्ते शहर में लाया गया। दूर-दूर से आए कश्मीरी लोग यहां-वहां से उनकी झलक देख कर तृप्त हो रहे थे और कहे थे कि बस,पीर के दर्शन हो गए! गांधीजी के इस दौरे ने कश्मीर को विश्वास की ऐसी डोर से बांध दिया कि पाकिस्तान में शामिल न होने की बात वहां के मुसलमान करते हुए,भारत के साथ रहने के अभियान में लग गए जबकि कश्मीर के महाराजा हरिसिंह राजशाही को जिंदा रखकर भारत से अलग होना चाहते थे। वहीं गांधी ने लोकतान्त्रिक शेख अब्दुला का समर्थन करके इतिहास रच दिया। बापू के संघर्षों के इतर राजा महाराजा ब्रिटिश साम्राज्य में अपना भविष्य तय करना चाहते थे, जिनकी संभावनाओं को धार्मिक नेताओं ने बढ़ा दिया। इसमें एक थे बंगाल के सुहरावर्दी। उन्होंने माउंटबेटन के सामने यह विचार रखा की भारत को उसकी इच्छा के अनुसार बंटने दिया जाना चाहिए। भारत के किसी प्रांत में बहुमत से जो चाहे उन्हें दे दिया जाएं। बंगाल के साढ़े छह करोड़ हिंदू और मुसलमान  मिलकर एक अलग देश बन सकता है और कलकत्ता का विशाल बन्दरगाह उसकी राजधानी हो सकता है।

दरअसल, ब्रिटिश भारत से आज़ादी की चाह तो सबको थी लेकिन बंटवारें की इच्छा रखने वालों की कोई कमी नहीं थी। राजा महाराजाओं की नाराजगी मोल लेने वाले बापू की लड़ाई भारत के धर्म आधारित संगठनों से भी थी,जो उन्हें शंका की दृष्टि से देखते थे। बापू की लड़ाई जातीय संगठनों से भी थी, जिन्हें सामाजिक न्याय और समानता जैसे शब्द परेशान करते थे। भारत के साथ जो नाइंसाफियां हुई और भारत में जो नाइंसाफियां हुई उसे बापू समझते थे और उसके प्रभावों को भी भलीभांति जानते थे। वे लोकतंत्र के जरिए धर्म,जाति और रियासतों के अभिशाप को मिटाकर एक संभावित भारत बनते हुए देखते थे और उनका यह विचार सविनय से लेकर असहयोग और भारत छोड़ो आंदोलन में भी देखने को मिला।

चर्चिल को भारत की आजादी का ख्याल ही निरर्थक नजर आता था। वे कहते थे कि अगर ब्रिटिश भारत से चले जाते है तो उनके द्वारा निर्मित न्यायपालिका, स्वास्थ्य सेवाएं, रेलवे और लोक निर्माण की संस्थाओं का पूरा तंत्र खत्म हो जाएगा और हिंदुस्तान बहुत तेजी से शताब्दियों पहले की बर्बरता और मध्य युगीन लूट खसोट के दौर में वापस चला जाएगा।  बापू ने जनांदोलन पर आधारित लोकतंत्र से धर्म,जाति और रियासतों के विद्रोह की व्यापकता को खत्म कर दिया। अंग्रेजों की चालबाजियों को झेलते और उनका बखूबी सामना करते हुए गांधी ने अनपढ़, अंधविश्वासी,जातीय जंजाल में उलझी और सांप्रदायिक विचारों में फंसी हुई भीड़ के बीच भारत का मजबूत विचार बनाया, जो रियासतों की पवित्रता और राजाओं में देव दर्शन के जंजाल में भी बुरी  तरह फंसी हुई थी। जनता की भारत में रहने की इसी इच्छा ने राजा महाराजाओं की अलग पहचान और विद्रोह की उत्कंठा को खत्म कर दिया था।  वृहद भारत की संकल्पना में अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, म्यान्मार, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और तिब्बत  शामिल है और यह कभी भारत के भाग रहे थे। वृहद भारत को समझने वाले बापू संभवत: पहले व्यक्ति थे इसलिए विभाजित भारत की बुनियाद कब रखी गई और इसमें बापू कहां है,यह इतिहास के पन्नों में अवश्य ढूंढा जाना चाहिए।