सवाल मुख्यमंत्री की कुर्सी का…

राजेश राठौर

बम्पर जीत मध्यप्रदेश में मिलने के बाद अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कौन बैठेगा। मोदी का मैजिक बोलो, लाड़ली बहनों का वरदान बोलो, या सनातन धर्म की जय बोलो। कुछ भी कहो, भाजपा को इतनी सीटें मिल गई, जितनी सीटें किसी नेता ने मिलने का सपना भी नहीं देखा होगा। खैर, जीत तो जीत होती है। मुख्यमंत्री का चेहरा चुनाव में नहीं था, लेकिन लाड़ली बहनों के दिमाग में शिवराज का फोटो छप गया था। इमोशनल तरीके से भी शिवराज और बहनों का प्यार चुनाव के दौरान हर अंदाज में देखने को मिला। कहीं भैया की आवाज आती थी, तो कहीं मामा की आवाज आती थी, तो कुछ जगह बहनों की आंखों से भैया कहते-कहते आंसू निकलते हुए भी हमने देखे हैं।

मप्र में सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा वेंटिलेटर पर थी, जिसके कारण दिग्गज नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा। हारी हुई सीटों पर दो महीने पहले टिकट दे दिए। चुनाव शुरू होते ही नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह सहित देश व प्रदेश के तमाम नेताओं की हर रोज 50 सभाएं हुई। सब कुछ कर डाला भाजपा ने सत्ता में आने के लिए। अब भाजपा के साथ दिक्कत यह हो रही है कि 56 पकवान तो बना लिए, लेकिन सब खा नहीं सकते। यह पकवान देखने में ही अच्छे लगते हैं। 56 पकवान का मतलब बम्पर जीत से है। अब इस पकवान का प्रसाद, मुख्यमंत्री की कुर्सी के रूप में किसको मिलेगा? इसका फैसला तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही कर सकते हैं। वह दोनों इतने बड़े रणनीतिकार हैं कि आखिरी मिनट तक अपने फैसले का अंदाज भी किसी को नहीं लगने देते हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले आधा दर्जन से ज्यादा नेता चुनाव जीत चुके हैं। नाम लिखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह खुद इशारों में मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में शामिल हैं। मोदी और शाह के फैसले के बारे में कयास यह लगाया जा सकता है कि किसी नए नेतृत्व को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर गुजरात की स्टाइल में बैठा दें। ताकि मप्र के दिग्गज नेताओं की लड़ाई अपने आप समाप्त हो जाए। ऐसा भी हो सकता है कि लोकसभा चुनाव तक किसी को फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया जाए। खैर, हम मोदी और शाह के दिमाग को पढ़ नहीं सकते, इसलिए अभी इस मुद्दे पर बात खत्म करते हुए कांग्रेस की तरफ चलते हैं, जहां कमलनाथ मतगणना शुरू होने के बाद कहते हैं कि मैं शुरुआती रुझान के बारे में बात नहीं करता, 11 बजे बाद कुछ बोलंूगा। कमलनाथ ने यह बोलने से पहले या बाद में तनिक सोचा भी नहीं होगा कि इस समय के बाद वे बोलने लायक भी नहीं बचेंगे। चुनावी रिजल्ट के हिसाब से बेमौत मारी गई कांग्रेस से गड़बड़ी सबसे बड़ी यह हुई कि छह महीने पहले, पहला सर्वे जब सामने आया तब कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलता हुआ दिख रहा था। बस उसी दिन से कांग्रेस ने चुनाव लडऩा बंद कर दिया और मंत्रिमंडल बनाना शुरू कर दिया। निगम मंडल बना दिए, अफसरों की तैनाती के बारे में पूछ लिया, कुछ अफसरों ने एडवांस में लाभ शुभ भी कर दिया था। अब वह सारे अफसर भी ठगे से रह गए, क्योंकि सरकार ही नहीं बनी तो पद कहां से मिलेंगे और पैसे मिलने सो वापस रहे। अब कांग्रेस को मुगालता पालने का दुख हो या न हो, लेकिन इतना जरूर है कि इस करारी हार के बाद कई नेताओं की राजनैतिक दुकानें बंद हो गई है। कमलनाथ को अब दिल्ली जाना है यह भी तय है, लेकिन एक मुफ्त की सलाह यह भी है कि कुछ महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में प्रदेश के एक मात्र सांसद नकुलनाथ को लेकर विधानसभा चुनाव की तरह मुगालता न पाला जाए, नहीं तो खानदानी राजनीति के दुकान पर ताला लग जाएगा।