स्वास्थ्य के लिए भीषण खतरा है untreated waste


लेखक
ज्ञानेन्द्र रावत

देश में कचरा वह भी अशोधित कचरा ( untreated waste ) एक बहुत बड़ी समस्या बन गया है। यदि देश की राजधानी दिल्ली की बात करें तो मौजूदा हालात में कचरे को लेकर जो स्थिति बन रही है, वह बेहद भयावह है। इसके ही मद्देनजर बीते दिनों देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली में ठोस कचरा प्रबंधन के खराब क्रियान्वयन पर टिप्पणी करते हुए चिंता व्यक्त की और कहा है कि राष्ट्रीय राजधानी में 3000 टन से अधिक अशोधित कचरे से सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति आ सकती है।

untreated waste पर एमसीडी को शीर्ष अदालत ने लगाई थी फटकार

शीर्ष अदालत ने दिल्ली नगर निगम ( एमसीडी ) को अशोधित कचरा ( untreated waste ) को लेकर फटकार लगाते हुए कहा कि राष्ट्रीय राजधानी में रोजाना 11 हजार टन से भी ज्यादा ठोस कचरा उत्पन्न होता है, जबकि निगम द्वारा लगाये गये शोधन संयंत्रों की क्षमता केवल 8,073 टन रोजाना की ही है। शीर्ष अदालत की जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस आगस्टीन जार्ज मसीह की पीठ ने कहा है कि एम सी डी के हलफनामे के मुताबिक दिल्ली में रोजाना पैदा होने वाले 11 हजार टन ठोस कचरे के निपटान के लिए साल 2027 तक अतिरिक्त शोधन संयत्रों की स्थापना की कोई संभावना नहीं है। गौरतलब है कि जब इस मुद्दे पर न्याय मित्र एवं वरिष्ठ अधिवक्ता अपराजिता सिंह ने पीठ से कहा कि इन हालातों से सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति पैदा हो सकती है क्योंकि देश एवं विदेशी जर्नल्स के आंकड़ों की मानें तो देश में प्रदूषण के चलते होने वाली मौतों में दिन-प्रति-दिन इजाफा ही हो रहा है। असलियत में दिल्ली की प्रदूषण की स्थिति भयावहता की सीमा पार कर चुकी है। इस पर पीठ ने कहा कि इस स्थिति से हम चिंतित हैं। राजधानी में 2016 के नियमों की यह स्थिति है जहां हम रोजाना 3000 टन से ज्यादा अशोधित ठोस कचरा पैदा कर रहे हैं और प्रतिदिन इसमें और इजाफा ही होगा। एम सी डी के हलफनामे को देखते हुए आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती। क्योंकि यदि मान भी लिया जाये कि उसमें दी गयी समय सीमा का पालन भी होगा तो भी 2027 तक दिल्ली में रोजाना 11,000 टन ठोस कचरे के शोधन की क्षमता स्थापित होने की कतई कोई उम्मीद नहीं है। हम न्याय मित्र के इस कथन से सहमत हैं कि इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति पैदा हो जायेगी।
पीठ ने केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के सचिव को निर्देश दिया कि वह मसले का तत्काल समाधान निकालने के लिए एमसीडी और दिल्ली सरकार के अधिकारियों की बैठक बुलाएं। पीठ ने पर्यावरण मंत्रालय के सचिव को उन तात्कालिक उपायों के बारे में रिपोर्ट दाखिल करने के निर्देश के साथ आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय की ओर से अलग से दाखिल हलफनामे का भी जिक्र किया। इस बारे में पीठ ने कहा कि एम सी डी ने ठोस कचरा प्रबंधन परियोजनाओं से जुड़ी पांच करोड़ से अधिक की दरों और एजेंसियों से अनुबंधों को मंजूरी देने के लिए निगम को वित्तीय शक्ति सौंपने हेतु दिल्ली सरकार से अनुरोध किया है। पीठ ने दिल्ली सरकार को इस बाबत निर्देश दिया कि वह तत्काल 10 जुलाई के प्रस्ताव पर विचार करे जो ठोस कचरा प्रबंधन से जुड़ी परियोजनाओं से संबंधित है और तीन हफ्तों के अंदर उचित फैसला ले। पीठ ने इसके साथ ही गुरुग्राम, फरीदाबाद और ग्रेटर नोएडा में ठोस कचरा प्रबंधन के मुद्दे पर भी विचार करते हुए कहा कि वहां भी स्थिति इतनी ही खराब है। गुरुग्राम में 1,200 टन रोजाना ठोस कचरा उत्पन्न होता है लेकिन शोधन क्षमता मात्र 254 टन रोजाना की है। फरीदाबाद में रोजाना 1,000 टन ठोस कचरा उत्पन्न होता है जबकि वहां केवल 400 टन की ही शोधन क्षमता है। पीठ ने पर्यावरण मंत्रालय के सचिव को निर्देश दिया कि वह गुरुग्राम, फरीदाबाद के नगरायुक्तोंऔर ग्रेटर नोएडा विकास प्राधिकरण के अधिकारियों की बैठक बुलाएं और इसका शीघ्र समाधान निकालें।
गौरतलब है कि दिल्ली में कचरे का मुद्दा नया नहीं है। यह बरसों पुराना है लेकिन दुखदायी यह है कि आज तक इसका कोई ठोस समाधान नहीं निकल सका है। लोकसभा चुनावों से पहले दिल्ली में गाजीपुर लैंडफिल स्थित कचरे के पहाड़ पर लगी आग का मुद्दा काफी लम्बे समय तक चर्चा का विषय बना था। उसके धुंए ने आसपास के इलाके के लोगों की सांसें अटका दी थीं। वायु प्रदूषण और लैंडफिल साइट की दुर्गंध तो बरसों से उनकी नियति बन चुकी है जिसकी मार के चलते दिल्ली जार-जार रो रही है। कूड़े के पहाड़ का मसला तो दिल्ली वासियों की जिंदगी का अभिशाप बन गया है। फिर कचरे के पहाड़ पर आग तो हर महीने लगती ही रहती है। इसको नियंत्रित करने के आज तक कोई कारगर कदम नहीं उठाये गये हैं। पिछले बीस सालों से कूड़े के पहाड़ को खत्म करने के दावे किये जा रहे हैं लेकिन ठोस कार्यवाही न होने का खामियाजा यहां के लोगों को उठाना पड़ रहा है। इससे वहां रहने वालों का जीना दूभर हो गया है। सबसे ज्यादा परेशानी तो बच्चों और बुजुर्गों को है। वैसे कूड़े-कचरे के पहाड़ के मामले में अभी तक दिल्ली और मुंबई महानगर सबसे ज्यादा चर्चित थे लेकिन अब तो गुरुग्राम ने भी इस सूची में अपना नाम दर्ज करा लिया है। यहां बंधवाडी़ लैंडफिल साइट पर रोजाना फरीदाबाद और गुरुग्राम का 2300 टन कचरा पहुंच रहा है। वहां भी पिछले 30 मार्च से लगातार आग लगने की घटनाएं हो रही हैं। यहां फिलहाल तकरीबन 16 लाख टन कूडा पड़ा है। असलियत यह है कि लैंडफिल साइट के पास लोगों का रहना काफी मुश्किल होता जा रहा है। लोग खून-पसीने की कमाई से बनाये मकान छोड़ नहीं पा रहे हैं। वे लोग बरसों से दिल, सांस, गले में खराश, दिमाग में सूजन आदि रोगों के चंगुल में हैं। खासतौर पर बच्चों, गर्भवती महिलाओं, हृदय और सांस के रोगियों के लिए यह स्थिति जानलेवा है।
देश में प्रति व्यक्ति करीब 205 किलो कचरा निकलता है। इसमें से केवल 70 फीसदी ही इक_ा किया जाता है। देश में जिस तरह कचरे की रिसाईकिलिंग होती है उससे न केवल पर्यावरण को नुकसान होता है बल्कि लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। जहां तक खुले में फेंके गये कचरे का सवाल है, अब छोटे शहर-कस्बों में भी जो 17 फीसदी की दर से विकसित हो रहे हैं, में कचरे के लैंडफिलों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। आने वाले दिनों में विकास की रफ्तार और बढ़ेगी, उस स्थिति में ज्यादा तेज विकास के साथ कई गुणा कचरा बढ़ेगा। क्या हम उस स्थिति के लिए तैयार हैं। यह विचार का विषय है।
यदि हम देश के महानगरों का सिलसिलेवार जायजा लें तो पाते हैं कि कचरे के निष्पादन के मामले में सबसे बुरी स्थिति कोलकाता की है जहां 1400 मीट्रिक टन कचरे में से केवल 400 मीट्रिक टन का ही निपटान होता है। जबकि जयपुर में 1400 में से 600, कानपुर में 1350 में से 1000, लुधियाना में 1100 में से 400, भोपाल में 800 में से 300, आगरा में 800 में से 400, रायपुर में 650 में से 500, रांची में 600 में से 40, अलीगढ़ में 500 में से 325, देहरादून में 450 में से 250, बरेली में 475 में से 350, जम्मू में 400 में से 300, फिरोजाबाद में 350 में से 200, मुरादाबाद में 325 में से 160, जोधपुर और मथुरा में 300 में से 200, अजमेर में 280 में से 200,पानीपत में 240 में से 180, जालंधर में 200 में से 35, तीर्थ नगरी प्रयागराज में 150 में से 120, दुर्ग में 120 में से 90 और धर्मशाला में 18 मीट्रिक टन में से केवल 8 मीट्रिक टन कचरे का निष्पादन होता है। इससे यह साफ हो जाता है कि शहरों में से जितना रोजाना कचरा निकलता है, उतना निस्तारण नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में इन शहरों में कचरे के पहाड़ बढ़ेंगे ही, उन्हें रोक पाना प्रशासन के बूते के बाहर की बात है। यहां हम अमेरिका, आस्ट्रेलिया, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी, सिंगापुर आदि की बात छोड़ दें और यदि अहमदाबाद, सूरत, नवी मुंबई, मैसूर और इंदौर की ही बात करें जिन्होंने कचरा संग्रह और उसके निपटान व स्वच्छता में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनायी है, से क्या कुछ सीख ली है। जबाव है कुछ भी नहीं। ऐसी स्थिति में दिल्ली ही क्या, देश के हर शहर-कस्बे में कचरे के पहाड़ तेजी से बनेंगे और वे सुलगेंगे, धधकेंगे और लोगों की अनचाहे मौत के वायस भी बनेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं। )