independence के 77 साल बाद भी पौष्टिक भोजन जुटाने में नाकाम भारत


लेखक
ज्ञानेन्द्र रावत

आज हम देश की आजादी ( independence ) का जश्न मना रहे हैं और दुनिया में शक्तिशाली देशों की पांत में आ खड़े होने का दावा भी कर रहे हैं। वह बात दीगर है कि 1947 में जब देश आजाद हुआ था, तब से लेकर आज तक बीते इन 77 सालों में विज्ञान, तकनीक, रक्षा, शिक्षा आदि के क्षेत्र में देश ने चहुंमुखी विकास करने में कामयाबी पायी है और अब तक आधारभूत ढांचों के विकास में गर्व करने योग्य प्रगति दर्ज की है।

independence पर 100 फीसदी आबादी को हैल्थ इंश्योरेंस में लाना होगा

यही नहीं रेलवे, एअरपोर्ट, सडक़ मार्ग, दूरसंचार, बंदरगाह जैसे क्षेत्रों के विकास की गाथा खुद-ब-खुद देश की कुशल और कारगर नीतियों को प्रमाणित करती है। लेकिन आज भी हम दावे कुछ भी करें असलियत में आम जन को चिकित्सा, खाद्य और पोषक आहार आदि सुविधा दे पाने में नाकाम रहे हैं। वर्षा जल संचय और सीवेज सुविधाओं की नाकामी जगजाहिर है ही। इन्वेस्ट इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की भंडारण क्षमता का बाजार भले 2022 के बाद से 16 फीसदी की सालाना दर से बढ़ रहा हो, लेकिन हमारा कृषि क्षेत्र आज भी कई संकटों का सामना कर रहा है। वैश्विक अर्थ व्यवस्था में भले भारत की स्थिति पांचवीं हो, दुनिया में भारत बिजली का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया हो, दुनिया का सबसे बड़ा सडक़ नेटवर्क का जाल बिछाने वाला देश बन गया हो, देश के अंतरिक्ष मिशनों ने ब्रह्मांड के बारे में वैज्ञानिक ज्ञान में अभूतपूर्व योगदान दिया है, 2003-4 में जीडीपी का 0.9 फीसदी हिस्सा हैल्थकेयर पर खर्च किया जाता हो जो 2022-23 में 2.3 फीसदी तक पहुंच गया हो, लेकिन इसके बावजूद लोगों की जेब पर दवा के खर्च का भार कम करने में कामयाबी कोसों दूर है। दुख इस बात का है कि इस सबके बावजूद विकास का लाभ बहुतों तक आज भी नहीं पहुंच पाया है। हकीकत यह है कि हम 2047 तक विकसित भारत बनाने का दावा करते नहीं थकते लेकिन अकेले स्वास्थ्य सेवाओं पर ही नजर डालें तो 50 लाख से भी ज्यादा डाक्टर, अस्पतालों में 30 लाख बेड और डेढ़ करोड़ से ज्यादा नर्सों की कमी का सामना करना पड़ेगा । देश के औद्योगिक संगठन फिक्की और रिसर्च एजेंसी ईवाई ने विकसित देश जैसी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भारत में संसाधनों की आवश्यकता पर आधारित ‘डिकार्डिंग इंडियाज हेल्थकेयर लैंडस्केप शीर्षक वाली रिपोर्ट ने इसका खुलासा करते हुए कहा है कि ऐसा करके ही भारत विकसित देशों के औसत के करीब पहुंचने में समर्थ हो सकता है। इसके लिए देश की 100 फीसदी आबादी को हैल्थ इंश्योरेंस के दायरे में लाना होगा।
कैंसर जैसी गंभीर और जानलेवा बीमारियों की बात छोड़ भी दें, अस्थमा जैसी फेफड़ों की आनुवांशिक बीमारी तक के 70 फीसदी मरीज बगैर उपचार के रह जाते हैं। गौरतलब है कि इस बीमारी से देश में हर साल तकरीब दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। यदि शुरूआत में ही इस बीमारी का पता चल जाये तो किसी भी अस्थमा के रोगी को और उससे होने वाली इन दो लाख मौतों को रोका जा सकता है। एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया में अस्थमा से होने वाली मौतों में 44 फीसदी अकेले भारत में होती हैं। दुखदायी बात तो यह है कि हर साल अस्थमा से होने वाली मौतों का आंकड़ा देश में लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इसका खुलासा कनाडा के ओंटारियो स्थित ओटावा के अस्पताल में फेफड़ों के डाक्टर प्रोफेसर शान आरोन ने अध्ययन के उपरांत करते हुए कहा है कि लोग इस बीमारी से पीडि़त हैं क्योंकि उनके मर्ज की पहचान ही नहीं हो पायी है। यही वजह है कि वे इलाज से वंचित रह गये। असलियत यह है कि इस बीमारी में मरीज की सांस की नली में सूजन आने लगती है जिससे फेफड़ों में सिकुडऩ हो जाती है। इससे सांस लेने में परेशानी होने लगती है। उसमें बलगम आ जाता है जिससे सांस लेना मुश्किल होने लगता है। अक्सर डाक्टर नाक से पानी आने, छींक आदि आने को एलर्जी समझ लेते हैं जिससे इसका सही उपचार नहीं हो पाता और यह बीमारी घातक रूप अख्तियार कर लेती है। दुनिया में 70 फीसदी मरीज ऐसे हैं जिनमें अस्थमा की बीमारी की पहचान नहीं हो सकी। इसका अहम कारण वायु प्रदूषण है जिसकी चपेट में इन दिनों पूरी दुनिया है। जबकि वायु प्रदूषण के मामले में हमारा देश शीर्ष पर है। फिर हमारे यहां के आम गांव-देहात और जिलों के डाक्टरों की बात छोड़ दें, देश के शीर्ष अस्पतालों के डाक्टरों के लिखे नुस्खों की बात करें तो उसमें आधे फेल निकले हैं। इसका खुलासा देश के आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के अध्ययन में हुआ है। आम तौर पर डाक्टर के लिखे परचे पर मरीज आंख बंद कर भरोसा करते हैं और उन्हें उम्मीद होती है कि वह उससे ठीक हो जायेंगे । अध्ययन में कहा गया है कि 47 फीसदी डाक्टरों के लिखे नुस्खे ठीक नहीं पाये गये। इस अध्ययन की रिपोर्ट इंडियन जर्नल आफ मैडीकल रिसर्च के ताजाअंक में प्रकाशित हुई है जिसमें कहा गया है कि ये नुस्खे देश के जाने माने अस्पतालों के मैडिसिन, कम्यूनिटी मैडिसिन, शल्य चिकित्सा, प्रसूति, स्त्रीरोग, बाल रोग, त्वचा, नेत्र व दंत चिकित्सा विभाग आदि की ओपीडी में तैनात डाक्टरों द्वारा लिखे गये हैं जिनमें कई खामियाँ पायीं गयीं। उसमें टैबलेट के सस्ते विकल्प की जगह इंजैक्शन का मंहगा विकल्प दिया जाना, गैर जरूरी एंटीबायोटिक्स और एंजाइम लिखना, 1 से 13 जांच लिखा जाना शामिल है। दर असल नुस्खे सही नहीं होने से मरीज पर कई दुष्प्रभाव होते हैं जिनमें दवाओं का रीएक्शन, एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा होने, इलाज का असफल होना, अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत पड़ जाना, इलाज की कीमत बढऩा आदि शामिल है। गौरतलब यह है कि इनमें 9.8 फीसदी पर्चियां ऐसी थीं जिन्हें किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता।
अब बात पौष्टिक भोजन की करें तो पाते हैं कि भारत में पौष्टिक भोजन जुटाने में अधिकांश भारतीय असमर्थ हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट में इसका खुलासा किया गया है। देश की आधी से ज्यादा आबादी अभी भी स्वस्थ आहार नहीं ले पा रही है। चिंता की बात यह है कि भारत की 55.6 फीसदी आबादी यानी तकरीब 79 करोड़ लोग स्वस्थ पोषक आहार का खर्च उठाने में असमर्थ हैं। फल, प्रोटीन और डेयरी उत्पाद मंहगा होने के चलते ले पाना उनके बस के बाहर की बात है। उस स्थिति में जबकि देश में दुनिया का सबसे बड़ा मुफ्त खाद्य कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके तहत हर महीने 81 करोड़ से ज्यादा लोगों को 5 किलो अनाज दिया जाता है। हकीकत में यह योजना केवल भूख मिटाने तक ही सीमित है। सरकार की ओर से घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण एचसीईएस से पता चलता है कि देश में अमीरों और गरीबों की थाली के बीच में बड़ा अंतर है। ग्रामीण इलाकों में खाने-पीने पर औसत मासिक कुल खर्च का 47.5 फीसदी तथा शहरों में 39.7 फीसदी है। रुपयों में देखें तो गांवों में 1,749.91 रुपये और शहरों में 2,529.67 रुपये खाने पर खर्च किये जाते हैं।
शहरों में सबसे अमीर 5 फीसदी लोग औसत मूल्य से 2.5 गुणा अधिक खर्च करते हैं और सबसे गरीब 5 फीसदी लोग भोजन पर किये जाने वाले खर्च का 6.1 गुणा खर्च करते हैं। शहरों में सबसे अमीर 5 फीसदी का कुल खाने का खर्च औसत खर्च का 2.1 गुणा और ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे गरीब 5 फीसदी लोगों द्वारा खाने पर खर्च का 4.9 गुणा है। जबकि गैर खाद्य पदार्थों यथा कपड़े, बिस्तर, उपभोक्ता सेवा, परिवहन, मैडीकल, शिक्षा, मनोरंजन, जूते, ईंधन, प्रकाश आदि पर अमीर-गरीब के बीच असमानता की खाई बहुत चौडी़ है। यह हालत तब है जबकि देश में हर साल 78 मिलियन टन भोजन की बर्बादी हो रही है। संयुक्त राष्ट्र की माने तो एक व्यक्ति 55 किलो खाना एक साल में बर्बाद कर रहा है। यह रिपोर्ट इंटरनेशनल डे आफ जीरो बस्ट यानी अंतरराष्ट्रीय शून्य अपशिष्ट दिवस पर जारी की गयी। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के गांवों में शहरों के मुकाबले भोजन की बर्बादी कम होती है। 19 फीसदी भोजन घरों, खुदरा या फिर खाद्य सेवा क्षेत्र में बर्बाद होता है। हांलाकि कुल बर्बाद भोजन का 60 फीसदी घरों में ही बर्बाद होता है। दुनिया के फलक पर देखें तो साल 2022 में दुनिया भर के लोगों ने एक दिन में एक अरब टन से ज्यादा भोजन बर्बाद किया जबकि 78.3 करोड़ लोग भूखे सोने को विवश थे। असलियत में खाने की बर्बादी से समूची दुनिया में लाखों लोग भूखे रहेंगे। ऐसे अनावश्यक कचरे से जलवायु, प्रकृति और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। लाख प्रयास के बाद भी इस समस्या पर आजतक कोई अंकुश नहीं लग सका है। असलियत यह है कि यह अमीर-गरीब दोनों ही की और सभी देशों की बड़ी समस्या है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)