स्वतंत्र समय, शहडोल
अब से करीब 77 वर्ष पूर्व सन् 1956 में मप्र का गठन हुआ था। तब से यह जिला प्रदेश की लोकतांत्रिक सत्ता के हाथों संचालित हो रहा है। लेकिन इतने लम्बे अंतराल के बावजूद अगर जिले की बुनियादी सुविधाओं का जायजा लें तेा ज्ञात होगा कि मुख्यालय के राजीवगांधी बसस्टैण्ड को छोडक़र किसी भी नगर में आज तक बस स्टैण्ड भी व्यवस्थित रूप से संचालित नहीं किए जा सके। हर जगह बसें सडक़ों पर खड़ी होती हैं अथवा किसी अन्य की भूमि पर खड़ी की जाती हैं। शुरू के दिनों में जब कुछ गिनती की सडक़े और बसें थीं तब जैसी व्यवस्था चल पड़ी थी वही आज भी चल रही है। जबकि अब तक आवागमन के सारे हालात बदल चुके हैं, अब सडक़ों का जाल बिछ चुका है, बसों की भरमार हो गई है, मुसाफिरों का काफिला सा चलने लगा है। लेकिन बुढ़ार, अमलाई, गोहपारू, जयसिंहनगर, ब्यौहारी आदि कहीं भी व्यवस्थित रूप से बस स्टैण्ड नहीं है। रीवा अमरकंटक राजमार्ग पर ही बसें खड़ी होती हैं। यह उस आदिवासी जिले की एक बुनियादी सुविधा का हाल है जिसके लिए केन्द्र सरकार विशेष बजट का प्रावधान करती है। जिसके विकास के लिए सरकारें अरबों रूपए का धन उड़ेलती हैं। यह सुसुप्त राजनीतिक नेतृत्व का ही प्रतीक माना जाएगा।
दान की भूमि पर बस स्टैण्ड
बताते हैं कि करीब 60 साल पहले बुढ़ार नगर के किसी भू स्वामी ने बस स्टैण्ड संचालन के लिए अपनी थोड़ी सी जमीन सडक़ किनारे दे दी थी। उस समय दिनभर में मुश्किल से दो चार बसों का आना जाना होता था। धीरे धीरे बसों की संख्या बढ़ती गई, मुसाफिरों की आवाजाही बढ़ती गई और अब रोजाना करीब 2 सौ बसों की आवाजाही होती है। लेकिन बस स्टैण्ड वहीं छोटे से भूखण्ड पर ही चलता रह गया। जहां न तो बसों की पर्याप्त जगह है और न कोई यात्री सुविधा। बस स्टैण्ड का व्यवस्थापन नगरीय निकाय की जिम्मेदारी है लेकिन यह जिम्मेदारी आज तक नहीं निभाई जा सकी। शहडोल को छोडक़र किसी नगर मेें चूंकि नगरीय निकाय का बस स्टैण्ड नहीं है इसलिए वहां न तेा यात्री प्रतीक्षालय है और न पेयजल की सुविधा। यात्रियों के लिए यूरिनल, शौचालय आदि की निस्तारी सुविधा भी नहीं है। मुसाफिर परिवार के साथ चिलचिलाती धूप में जलने अथवा बरसते पानी में बसों से उतर कर भीगने को विवश रहते हैं। हैरानी की बात यह है कि नगरीय निकाय चुनावों के समय बस स्टैण्ड की स्थापना करना किसी के भी एजेण्डे में शामिल नहीं रहता है।
दूसरे की जमीन पर विकास कैसे?
एक विकसित बस स्टैण्ड का व्यवस्थापन नगरीय निकाय की अपनी भूमि पर ही हो सकता है। चूंकि नगरीय निकायों के पास आज तक ऐसा कोई भूखण्ड नहीं आवंटित नहीं हुआ जिसका उपयोग बस स्टैण्ड के लिए किया जा सके। इसके लिए नगरीय निकाय के पदाधिकारियों ने कभी प्रयास भी नहीं किया। अन्यथा बस स्टैण्ड की व्यवस्था के लिए शासन से कोई न कोई भूखण्ड नगरीय निकायों को आवंटित कर दिया होता और बस स्टैण्डों का संचालन होने लगता। कुछ वर्षों पूर्व एक तत्कालीन कलेक्टर ने बैठक के दौरान नगरपालिका अधिकारियों से कहा था कि वे गजह चयनित करके बताएं और प्रस्ताव दें। लेकिन फिर आज तक हुआ कुछ नहीं।
ग्राम पंचायत की भूमि हस्तांतरित नहीं
जयसिंहनगर के लिए जानकारों का मानना है कि जिस जगह आज तक बस स्टैण्ड चल रहा हैे वह पूर्व में ग्रामपंचायत की थी यह भूमि नियमत: नगरीयनिकाय को हस्तांतरित हो जानी चाहिए थी। लेकिन आज तक ऐसा नहीं किया जा सका और बसें इसी छोटी सी जगह पर तथा राजमार्ग पर रूकतीं हैं और भीड़ बढ़ातीं हैं। बस स्टैण्ड के आसपास संचालित दूकानेां के दूकानदार आज भी नाममात्र का किराया देते हैं।
कॉलेज की भूमि पर कब्जा
ब्योैहारी में भी आज से करीब 60-65 साल पहले सडक़ किनारे स्थित खाली पड़ी कॉलेज की भूमि पर बसें ठहरने लगीं थीं। कालेज ने भी सार्वजनिक हित को देखते हुए विशेष आपत्ति नहीं की। धीरे धीरे कुछ लेागों ने यहीं पर छोटे छोटे चाय नाश्ते के होटल खोल लिए। तब सेे आज तक यहां भी वही स्थिति बनी हुई है। बसों के लिए पर्याप्त जगह नहीं होने के कारण बसें राजमार्ग पर खड़ रहतंीं हैं। कहा जा सकता है कि यहां के नगरीय निकाय को 6 दशक में भी इतनी फुर्सत नहीं मिली कि वह यात्रियों के लिए एक बस स्टैण्ड व्यवस्थित कर सके।