डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
राजनीतिक विश्लेषक
पश्चिम बंगाल ( West Bengal ) की साल्ट लेक सिटी का भारत में बड़ा नाम है। कोलकाता से लगा यह शहर चारों तरफ से झीलों से घिरा हुआ है जहां आप नाव की सवारी कर सकते हैं और हरियाली का आनंद ले सकते हैं। हजारों लोग इसे रोज देखने आते हैं। साल्ट लेक सिटी पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले का एक भाग है, लेकिन इस जिले की पहचान साल्ट लेक सिटी तक ही सीमित नहीं है। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से करीब 80 किलोमीटर दूर स्थित संदेशखाली उत्तर 24 परगना जिले के बशीरहाट उपखंड में आता है। यह बांग्लादेश की सीमा से सटा हुआ इलाका है जहां महिलाओं पर अत्याचार और उनके उत्पीडऩ की दिल दहला देने वाली कई घटनाएं सामने आ रही है। कोलकाता से सटे उत्तर 24 परगना ज़िले को पश्चिम बंगाल की राजनीति का केंद्र माना जाता है। राज्य में विधानसभा की 294 सीटें हैं और 23 ज़िलों में सबसे ज़्यादा सीटें उत्तर 24 परगना ज़िले में है जहाँ से 33 विधायक चुने जाते हैं। कहते है कि साम्यवादी सरकार ने साढ़े तीन दशक का कार्यकाल 24 परगना से ही संचालित किया था। बांग्लादेश से लगने वाला यह जिला अपराधियों की ऐसी शरणस्थली रहा है जहां अपराध को संरक्षण देने के लिए नेता बनना सबसे मुफीद माना जाता है।
आजादी के आंदोलन में पश्चिम बंगाल ( West Bengal ) का गहरा प्रभाव
भारत की आजादी के आंदोलन में बंगाल का गहरा प्रभाव और योगदान था तो देश के विभाजन के रास्ते भी बंगाल से ही खुले थे जब यहां 1946 के प्रांतीय चुनावों में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए आरक्षित 119 सीटों में से 113 सीटें जीत ली थी। यहीं कारण रहा है जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन डे का प्रभाव भी बंगाल में ही सबसे ज्यादा रहा। आजादी से ठीक एक बरस पहले 16 अगस्त 1946 को कलकत्ता में हुए दंगों ने बंगाल की जमीन को लाल कर दिया था। इन दंगों की शुरुआत पूर्वी बंगाल के नोआखाली जिले से हुई थी और 72 घंटों तक चले इन दंगों में छह हजार से अधिक लोग मारे गए थे। 20 हजार से अधिक गंभीर रूप से घायल हुए और एक लाख से ज्यादा लोग बेघर हो गए।
राजनीतिक हिंसा का यह दौर आजादी के बाद भी बदस्तूर जारी है। बंगाल में जिस ही पार्टी को सत्ता मिली उसने राजनीतिक दबाव और हिंसा के जरिए कानून व्यवस्था को गुलाम बना लिया। यहां राजनीतिक हिंसा का लंबा इतिहास है,जो कई दशकों से चला आ रहा है और जिस ने राज्य की राजनीति पर जटिल और गहरा प्रभाव डाला है। भारत की आज़ादी के बाद से इस राज्य में अलग अलग राजनीतिक दलों ने अपनी सरकारें बनाई हैं,जिसमें कांग्रेस दो दशकों से भी ज़्यादा समय तक सत्ता में रही है। इसके बाद सत्तर के दशक में वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और सीपीएम की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा का नया दौर शुरू हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी का लगभग साढ़े तीन दशकों तक शासन रहा और मौजूदा दौर में तृणुमूल कांग्रेस सत्ता पर काबिज़ है। यहां जो भी राजनीतिक दल सत्ता में मजबूत होते है,राजनेता उस और रुख कर लेते है। इसलिए अपराध पर कभी अंकुश हो नहीं पाता तथा राजनीतिक संरक्षण के चलते राजनीतिक हिंसा कभी नहीं थमती है।
अलग अलग दलों के शासन कालों में,राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पों की कई दिल दहला देने वाली घटनाएं पश्चिम बंगाल की हकीकत है। स्वतंत्रता के बाद,1967 में नक्सलबाड़ी विद्रोह हुआ,जो राज्य प्रशासन को उखाड़ फेंकने के लिए कट्टरपंथी कम्युनिस्ट ताकतों द्वारा किया गया एक प्रयास था और जिसमें विद्रोहियों द्वारा की गई हिंसा और पुलिस द्वारा अपनाई गई दमनात्मक कार्रवाईयों के कारण कई लोगों की जानें गईं।
ज्योति बसु ने भी राजनीतिक हिंसा की बात स्वीकारी थी
अगस्त 2009 में माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी ने एक पर्चा जारी कर दावा किया था कि उस साल दो मार्च से 21 जुलाई के बीच तृणमूल कांग्रेस ने उसके 62 काडरों की हत्या कर दी। 1980 और 1990 के दशक में जब बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को कोई वजूद नहीं था, वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच अक्सर हिंसा होती रहती थी। 1989 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु की ओर से विधानसभा में पेश आंकड़ों में राजनीतिक हिंसा की बात स्वीकारी गई थी। उस दौरान सीपीएम के संरक्षण में कांग्रेसियों की कथित हत्याओं के विरोध में कांग्रेस ने राष्ट्रपति को ज्ञापन देकर बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग की गई थी।
1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया। उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाक़ों में भारी हिंसा हुई। 2011 में यहां वाममोर्चा का लाल किला ढह गया तो सत्ता में आने वाली टीएमसी के साथ बाद में वाममोर्चा के कई नेता मिल गए। इनके अपराध को सत्ता का संरक्षण मिला तथा एक बार फिर बंगाल की जमीन बदले कलेवर में हिंसा का रूप देखने को मजबूर हो गई। यहां पर सत्ता में आने वाली पार्टी के कार्यकर्ता ही सरकारी सुविधाओं का लाभ ले पाते है। वाम मोर्चा सरकार के शासनकाल में सार्वजनिक वितरण प्रणाली बड़ी तेजी से दल आधारित सेवा में तब्दील हो गई थी। सरकारी सहायता कार्यक्रमों के दौरान और वित्तीय अनुदान देते समय सीपीआई के जनाधार वाले गांवों को अब प्राथमिकता दी जाती थी। अब यह मुकाम टीएमसी ने हासिल कर लिया है। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के लिए इस समय बड़ी चुनौती भारतीय जनता पार्टी है।
चुनावों में होने वाली हिंसा वाले राज्यों में अव्वल है प. बंगाल
1980 और 1990 के दशक में जब बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को कोई वजूद नहीं था,वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच अक्सर हिंसा होती रहती थी। अब यह हिंसा टीएमसी और भाजपा के बीच होती है। इस समय सत्ता में टीएमसी है,अत: इनके निशाने पर प्रतिद्वंदी पार्टी के नेता होते है।13 जुलाई 2020 को उत्तर दिनाजपुर ज़िले में हेमताबाद क्षेत्र के विधायक देवेंद्र नाथ रॉय की लाश बीच बाज़ार में फंदे से लटकी मिली। 2016 में सीपीएम के टिकट पर चुने गए रॉय बीजेपी में चले गए थे। तृणमूल कांग्रेस इसे आत्महत्या का मामला बताती है जबकि यह साफतौर पर राजनीतिक हिंसा का परिणाम थी।
पश्चिम बंगाल में इकतालीस हजार गांव हैं और राज्य की कुल जनसंख्या की लगभग 68 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के लिए पंचायत चुनाव सबसे अहम रोल अदा करते है। राज्य का यह राजनीतिक इतिहास रहा है की जिस भी पार्टी ने पंचायत चुनाव जीते उसके सत्ता में आने की सबसे ज्यादा संभावना बड़ जाती है। यहीं कारण है कि पश्चिम बंगाल पंचायत चुनावों के समय होने वाली हिंसा वाले राज्यों में अव्वल है। वाममोर्चा ने भूमि सुधारों और पंचायत व्यवस्था की सहायता से सत्ता के विकेंद्रीकरण के जरिए ग्रामीण इलाक़ों में अपनी जो पकड़ बनाई थी उसी ने उसे यहां 34 साल तक सत्ता में बनाए रखा था। अब टीएमसी किसी कीमत पर पंचायत चुनावों को जीतने के लिए प्रतिबद्ध है। पश्चिम बंगाल में तिरसठ हजार ग्राम पंचायत हैं जिसमें से करीब साढ़े अड़तीस हजार पर टीएमसी का कब्जा है। यहां पंचायत चुनावों में बूथ कैप्चरिंग,गोलीबारी,आगजनी जैसी घटनाएं राज्य सरकार के संरक्षण में होने की आशंका बनी रहती है। बहरहाल बालू,पत्थर,कोयले का अवैध खनन,मछली का अवैध व्यापार,मानव तस्करी,नकली नोटों का कारोबार,नक्सलियों की आमद,आतंकियों का संरक्षण और घुसपैठियों के स्वर्ग की तौर पर पश्चिम बंगाल की पहचान को कोई नकार नहीं सकता। राजनीतिक दलों को पश्चिम बंगाल की यह पहचान बदलने के लिए पाला बदलने वाले अपराधिक किस्म के नेताओं से दूरी बनाने की जरूरत है।