प्रकाश पुरोहित
वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार
‘मोहन भिया’ बहुत ही अच्छा ट्रंपेट बजाते थे। पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन इसी खूबी की वजह से उन्हें सिपाही ( orderly ) की तरह भर्ती कर लिया गया था। कोई चालीस साल पहले सिपाही में भर्ती होने के लिए ऐसी ही किसी योग्यता की जरूरत होती थी और पुलिस अधीक्षक यदि अर्जी पर दस्तखत कर दे तो नौकरी मिल जाती थी। मोहन भिया को ट्रंपेट से प्यार था और जब भी मौका मिलता रियाज करने लगते और हम बच्चे उनके आसपास बैठ सुनते रहते। सरकारी क्वार्टर की दहलीज के बीचोंबीच बैठ, दोनों पैर दरवाजे की चौखट से सटा देते और आंखें बंद कर घंटों बजाया करते थे। जब मालूम हुआ कि यही उनकी नौकरी है तो हमारे मन में भी ऐसा ही बनने का सपना उगने लगा था। कितनी बढिय़ा नौकरी है ना, बस बाजा बजाओ!
भर्ती तो पुलिस में हुए कहा उन्हें orderly जा रहा था
वह तो एक दिन जब किसी अधिकारी के बच्चे के साथ उसके बंगले जाने का मौका मिला तो दिल धक से रह गया, देखा मोहन भिया नौकरों की तरह काम कर रहे हैं। उन्हें ‘अर्दली’ कहा जा रहा था और उन जैसे आधा दर्जन अर्दली और भी थे उस बंगले में, जो थे तो सिपाही, अपनी किसी खासियत की वजह से, लेकिन पढ़े-लिखे नहीं थे तो उनसे इस तरह बेगार ली जाती थी। अफसरों के ही नहीं, उनके बच्चों के भी जूते पॉलिश करते थे, खाना पकाते थे, कपड़े धोते और इस्त्री करते, और तो और, साहब की पाली हुई गाय या भैंस का दूध ही नहीं निकालते, चराने जाते… दूध ज्यादा होता तो बेचने भी जाते। हर बात पर झिडक़ी मिलती और कभी-कभी तो पिटाई भी हो जाती। जूता ठीक से नहीं चमका तो उसी जूते से सबक सिखाते थे साहब।
इनकी ड्यूटी का कोई समय नहीं होता था। जब मंगलवार, शुक्रवार को परेड होती तो मोहन भिया कडक़ वर्दी पहनते और पुलिस बैंड का हिस्सा बन जाते। यही नहीं, जब शहर में कोई दंगा या अनहोनी होती और रोलकॉल का सायरन बजता तो दौड़ते हुए वर्दी पहनते और ल_ लेकर पुलिस-वैन में जा बैठते और आंदोलनकारियों के पत्थर खाते, क्योंकि इन्हें ही आगे किया जाता। लौटते में ‘प्रसादी’ का सबूत सिर या हाथ-पैर पर बंधा अस्पताल का बेंडेज होता।
आदिवासी इलाके से आए थे मोहन भिया। उन्हें शहरी समझ नहीं आता था कि कौन-सा काम कैसे करना है। उन्हें तो किसी अफसर ने मुंह से बिगुल बजाते सुन लिया था दौरे में और साथ बैठा लाए थे। मोहन भिया को संगीत की परिभाषा तो नहीं आती थी, मगर कान सुरीले थे, जल्द ही ट्रंपेट बजाने लगे। हर दिन तो बाजा बजाने से रहे और फिर अफसर भी बदलते रहे और उनके मिजाज भी। तो अगले अफसर ने मोहन भिया को घर के काम में जोत दिया, फिर तो यही उनकी नौकरी का पक्का हिस्सा हो गया। यह जरूर था कि उन्हें हर समय खाकी वर्दी ही पहने रहना पड़ती थी, ऐसे ही मैंने उन्हें बर्तन मांजते भी कई बार देखा था। वहां मुझसे बात नहीं करते थे और ना ही इस तरह का कोई संकेत ही देते थे कि हम एक-दूसरे को पहचानते भी हैं।
जब घर से निकलते तो ट्रंपेट हाथ में ले कर निकलते थे। बंगले के पीछे गाय के ओसारे में रख कर पतलून के पायंचे घुटनों तक चढ़ाते और काम में भिड़ जाते। एक रोज उन्होंने कहा था ‘घर पर मत बताना किसी को, यहां क्या-क्या काम करता हूं’, बस इतना ही। मेरे लिए तो उनका ट्रंपेट बजाना आदर्श था, तो इतना वादा तो निभाना ही था। एक बार साहब की बाईसाहब ने मोहन भिया को अपना ब्लाउज ठीक करवाने के लिए दिया। दर्जी भी तो पुलिस का सिपाही ही था, जो पुलिस की वर्दी रफू करता था, अल्टर करता था और साहब के घरवालों के भी कपड़े ठीक करता था। बाईसाब ने बताया था कि बांह एक इंच कम करनी है। मोहन भिया गलत बोल आए और पोलके का सत्यानाश हो गया, ऐसा बाईसाब का आरोप था। उनकी तनख्वाह से पैसे भी कटे और साहब के हाथ का एक झापड़ भी खाया। दर्जी इसलिए पिटा कि मोहन तो अर्दली है, जंगली है, आदिवासी है, तुम्हें तो पता था बाईसाब का नाप। मैंने अपने आदर्श को उस रोज यूं अपमानित होते देखा तो ट्रंपेट का मोह ही खत्म हो गया।
एक बार ऐसे ही किसी बात पर साहब ने जब हाथ उठाया तो छोटे कद के मोहन भिया ने उछल कर उनकी गर्दन पर हाथ डाल दिया, इस झटके को साहब झेल नहीं सके और जमीन पर आ गिरे। मोहन भिया उनके ऊपर थे। उनकी आंखें जैसे जल रही थीं और उस दिन वे कुछ भी कर सकते थे कि बाकी अर्दलियों ने पकड़ा और साहब को बचाया, उठाया। मोहन भिया गिरफ्तार हो गए। जब उन्हें पकडक़र ले जा रहे थे तब भी उनके हाथ में ट्रंपेट था और वे बजा रहे थे। मानो रण जीत कर सिपाही घर लौट रहा हो। फिर कभी नहीं देखा उनको। सुना जरूर कि सस्पेंड हो गए, सजा मिली और बर्खास्त कर दिए गए। लौट गए फिर अपने आदिवासी फालिये में, जहां से आए थे, लेकिन ऐसा हर अर्दली तो नहीं कर सकता है ना, फिर भी कुछ समय तक मोहन भिया की दहशत रही अफसर-बिरादरी में।
मोहन भिया की याद आज इसलिए आई कि अभी दो दिन पहले ही पुलिस अफसरों के बंगलों पर काम करने वाले अर्दलियों ने इकट्ठे होकर गुहार लगाई है कि हमें सिपाही की तरह भर्ती किया है तो हमसे सिपाही का ही काम लिया जाए, बंगलों में बेगार नहीं ली जाए। सरकार की तरफ से बार-बार खानापूर्ति के लिए यह आदेश निकाला जाता है कि बंगलों पर सिपाहियों को अर्दली नहीं रखा जाए, लेकिन आदेश का पालन करवाने वाले सभी अफसर हैं, इसलिए कौन रोक लगा सकता है। बाईसा’ब के बीच होड़ होती रहती कि ‘तेरे बंगले पर, मेरे बंगले से ज्यादा अर्दली कैसे?’ अर्दलियों की तादाद से अफसर बीवियों का अहम तुष्ट होता है, तो कौन इन्हें सिपाही बनने देगा! पौन सदी की आजादी में कुछ बदलाव देख रहे हैं आप! नेताओं को वहम है, सरकार चला रहे हैं, मगर असल में सरकार तो अफसर ही चलाते हैं, जो आमजन को ठेंगे पर रखते हैं!
(लेखक के ये निजी विचार हैं)