‘डरपोक, कायर न बनो Rahul Gandhi-प्रियंका गांधी, भगत सिंह बनो’

बातरस

रायबरेली और अमेठी से चुनाव लड़ने का फैसला राहुल गांधी ( Rahul Gandhi ) और प्रियंका गांधी आज तक नहीं कर पाए। राजनीति में जो रिस्क लेता है वही आगे बढ़ता है, इस बात का इतिहास गवाह है। इंदिरा गांधी हारी, अटल बिहारी हारे, और भी दिग्गज, हर दल के नेता हारे। जो नेता हारे वह हार के डर से कभी पीछे नहीं हटे। जो हार के डर से पीछे हटे, वह हमेशा के लिए हार गए। और, जो हार का सामना करने के लिए लड़े, वह जीत कर भी निकले। कांग्रेस जैसी पार्टी के मुखिया भी यही मूर्खता कर रहे हैं कि वह हार के डर से पलायन कर रहे हैं।

Rahul Gandhi के हार के डर ने ही उनको वायनाड भेजा

राहुल गांधी ( Rahul Gandhi ) और प्रियंका गांधी रायबरेली और अमेठी से चुनाव लडऩे का फैसला आज तक नहीं कर पाए। इससे बड़ी शर्म की बात क्या होगी कि सेनापति ही हार के डर से युद्ध में शामिल न हो तो सैनिकों का क्या खाक मनोबल बढ़ाएंगे। डरपोक नंबर-वन राहुल गांधी पिछले लोकसभा चुनाव में भी अमेठी के साथ-साथ वायनाड से भी चुनाव लड़े। उनके हार के डर ने ही उनको वायनाड भेज दिया। अपनी मां सोनिया से भी राहुल और प्रियंका नहीं सीखे। राजीव गांधी की मौत के बाद सोनिया सदमे में घर बैठी थी। लेकिन, जब लड़खड़ाती कांग्रेस को सोनिया की जरूरत पड़ी तो वो मैदान में कूद पड़ी। रानी लक्ष्मीबाई जैसी राजनीतिक वीरता दिखाई। सोनिया उस समय घर से निकलकर राजनीति में शामिल हुई जब अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता प्रधानमंत्री थे। पूरे देश में इंडिया शाइनिंग की चमक थी। भाजपा इतने ज्यादा मुगालते में थी कि लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के पहले ही चुनाव करा लिए। नेता, अभिनेता से लेकर उद्योगपति और तमाम हस्तियों में भाजपा में जाने के लिए भगदड़ मची हुई थी, तब सोनिया ने अकेले मोर्चा संभाला। अटल बिहारी सरकार के कारनामें जनता तक पहुंचाए। प्रमोद महाजन जैसे धुरंधर राजनीतिक घुड़सवार को फ्लाप कर दिया। न केवल सोनिया चुनाव लड़ी, बल्कि पूरी पार्टी ने ऐसी ताकत झौंकी कि पूरा देश चौकन्ना रह गया।

अटल बिहारी की इंडिया शाइनिंग के वक्त कोई मानने को तैयार नहीं था कि देश में सोनिया का परचम लहराएगा। पति की मौत के दर्द के साथ विदेशी होने का दंश झेल रही सोनिया ने वह कमाल कर दिया जिसकी कोई उम्मीद भी नहीं करता था। अटल बिहारी सरकार हार गई। राम मंदिर जैसे मुद्दे धराशायी हो गए। इंडिया शाइनिंंग जैसे शब्द कूड़े-कचरे में शामिल हो गए। कांग्रेस को बहुमत मिला, सोनिया ने मेंढक की तरह लुढक़ने वाले राजनीतिक दलों के साथ साझा सरकार बना दी। खुद प्रधानमंत्री नहीं बनी, त्यागी कहलाई और देश को मनमोहन सिंह जैसा ईमानदार, अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री दिया।

सोनिया की हिम्मत के कारण ही ऐसा हुआ था कि कांग्रेस की केंद्र में एक बार नहीं, दो बार सरकार बनी। यह बात अलग है कि बाद में तमाम घोटालों के फर्जी आरोप लगाकर अन्ना हजारे ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। अब जब संघर्ष की बात आई तो उसी सोनिया के बेटे राहुल और बेटी प्रियंका चुनाव लडऩे से डर रहे हैं। राहुल सुरक्षित सीट वायनाड से लड़ रहे हंै और प्रियंका अभी हारने के डर से बाहर नहीं निकल पा रही है। डर नहीं तो क्या है? प्रियंका को पहले दिन रायबरेली या अमेठी से चुनाव लडऩे की घोषणा कर देनी थी। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के वंशज कहलाने लायक भी नहीं बचे।

राहुल को भी अमेठी से भागना नहीं चाहिए था। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कठपुतली स्मृति इरानी से डरने वाला राहुल क्या खाक सैनिकों का मनोबल बढ़ाएगा। पहले संगठन को दोनों ने बर्बाद कर दिया, अब चुनाव लडऩे लायक भी नहीं बचेंगे। पार्टटाइम राजनीति करने वाले राहुल और प्रियंका को इतनी शर्म भी नहीं बची कि आज भी वह दोनों, मोदी और अमित शाह की तुलना में आधी जगह भी सभाएं नहीं कर पाते। कायर निकले दोनों, भगतसिंह बनने की कोशिश करते तो पार्टी खड़ी हो जाती और गली-कूचे जैसे सहयोगी राजनीतिक दल भी मैदान पकड़ते। कांग्रेस उम्मीदवारोंं की सूची जारी करने में फिसड्डी साबित हुई।

कांग्रेस, खडग़े (मल्लिकार्जुन) की खड़ाऊ के भरोसे राजनीति कर रही है। इनकी तरह भगत सिंह ने यदि शहीद होने की चिंता पाली होती तो शायद हमारा देश आजाद नहीं होता। अभी भी वक्त है, जनता साथ देने को तैयार है, लेकिन आरामजीवी राहुल और प्रियंका बगीचे में चहल-कदमी की तरह राजनीतिक ‘गुड्डा-गुड्डी का खेल’ खेल रहे हैं। राहुल और प्रियंका के लिए तो अब दया के वास्ते यही कहा जा सकता है कि ‘हे ईश्वर इन्हें माफ करना, इनको राजनीति नहीं आती’।
-बातुना