लम्बी गुलामी और धर्म के नाम पर फैले पाखंडों के कारण भारत के अधिसंख्यक हिन्दू ( Hindu ) अपने धर्म और संस्कृति के प्रति हीनताबोध से ग्रस्त हो गये थे। स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुओं को जाग्रत करने के लिए संदेश दिया था – गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं। उन्होंने श्वेताश्वतर उपनिषद से उद्धरित करके विश्व के सामने घोषणा की थी – श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा – हे अमृत के पुत्रो, सुनो ! हम सब परमात्मा के अंश हैं। हम किसी पाप के परिणाम नहीं हैं। ऐसे ही महापुरुषों के प्रयासों से जाग्रति आई और आधुनिक शिक्षित लोग भी धर्म-संस्कृति को समझने की दिशा में बढ़े।
Hindu धर्म में वेद ज्ञान के स्रोत हैं
हिन्दू ( Hindu ) धर्म में वेद ज्ञान के स्रोत हैं और स्मृतियाँ वह जीवन पद्धति बताती हैं जिससे उस ज्ञान को जीवन में अनुभव किया जा सके। लोगों के ज्ञान और अनुभव की विविधता के अनुसार विभिन्न आचार्यों ने साधना के विभिन्न रास्ते बताए। आदिशंकराचार्य ने अद्वैत मत की स्थापना की तो रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत और मध्वाचार्य ने द्वैत का सिद्धांत दिया। रामानंद, वल्ल्भाचार्य आदि ने भक्ति मत का प्रचार कर समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों को धर्म से जोड़ा। तुलसीदासजी ने वैष्णव संप्रदाय के आराध्य भगवान् राम को घर-घर तक पहुंचा दिया। आम जनता बगैर किसी हिचक के, अपनी रुचि और पात्रता के अनुसार नए सिद्धांत और साधनाएं स्वीकार करती गई। यदि लोग अपने पुराने सिद्धांतों के प्रति कट्टर होते तो नए सिद्धांत स्थान ही न बना पाते। इन सबमें एक बात समान थी। इनमें राज्य और राजनीतिज्ञों का हस्तक्षेप नहीं था। समस्या तब खड़ी हुई जब सत्ता हथियाने के उद्देश्य से धर्म की व्याख्या का अधिकार राजनेताओं ने अपने हाथ में ले लिया। इस कोढ़ में खाज उन गुरुघंटालों ने फैलाई जो धर्म को चमत्कार से जोडक़र अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। इसलिए विवेकानन्द की उक्ति को बदलकर कहा जा रहा है कि – गर्व से कहो कि हम कट्टर हिन्दू हैं।धर्म और संस्कृति से अपरिचित, जीवन के अनुभवों से दूर युवाओं को कट्टर शब्द बड़ा आकर्षक लग सकता है। उन्हें लगता है कि दूसरे धर्मों में यदि कट्टरता है तो हमें भी उसी निम्न स्तर पर जाना चाहिए। कट्टरता का अर्थ है अपने मत, विचार या विश्वास के प्रति दुराग्रही होना, बदलाव को स्वीकार न करना और इसे दूसरों से मनवाने के लिए किसी भी स्तर तक चला जाना। ऐसी जड़ता धर्म को समय के साथ अव्यवहारिक बना देती है और समाज को ज्ञान-विज्ञान से दूर कर देती है।
हिन्दू धर्म तो जिज्ञासा की नींव पर खड़ा है और सत्य का प्रमाण स्वयं की अनुभूति है। गीता में अर्जुन ने भगवान् कृष्ण से भी प्रश्न-प्रतिप्रश्न किये। उपनिषदों का बड़ा भाग तो शिष्य की जिज्ञासा और गुरु के उत्तरों का संकलन ही है।दूसरी ओर अत्यधिक उदारता भी नुकसान करती है। अपनी धर्म संस्कृति को वैचारिक आक्रमणों से बचाने के लिए कुछ बागड़ तो चाहिए। हनुमानप्रसाद पोद्दार जी कहा करते थे कि ‘अपने साधना पथ और परम्परा की रक्षा करना हमारा स्वयं का दायित्व है और इसका तरीका है अपने धर्म और परम्परा के प्रति निष्ठा रखना’। ‘निष्ठा’ संस्कृत का बड़ा ही अर्थपूर्ण शब्द है । यह बुद्धि का गुण है जिसका अर्थ है किसी बात या मत में स्थिरता, आस्था, दृढ़ श्रद्धा, दृढ़ भक्ति, दृढ़ विश्वास, ह्यश्चद्बह्म्द्बह्लह्वड्डद्य ष्शठ्ठ1द्बष्ह्लद्बशठ्ठ आदि। हिन्दू शास्त्रों में निष्ठा का उल्लेख बड़े सम्मान के साथ किया गया है। निष्ठा के बगैर अध्यात्मिक प्रगति नहीं हो सकती। अपने धर्म के प्रति निष्ठा रखने और कट्टरता रखने में वही संबंध है जो दिन और रात में है।हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति, अपनी पात्रता व रुचि के अनुसार, किसी भी देवता के प्रति निष्ठा रख सकता है। विभिन्न देवताओं के स्तोत्रों में देव के गुण, उसकी महिमा, सर्वरूपता, व्यापकता एक सी बताई जाती है। वह असीम है, अनन्त शक्ति का स्रोत है, अनन्त प्रेम का भंडार है आदि। वास्तव में यह सर्वव्यापी पुरुषोत्तम के ही गुण हैं जो उस देव में आरोपित कर दिये गये हैं। भक्त उस देव के माध्यम से पुरुषोत्तम की पूजा करता है। देवता के प्रति निष्ठा रखना आवश्यक है परंतु उसे स्वतंत्र मानते हुए केवल उसे प्रसन्न करने की चाह रखना और दूसरों को ऐसा ही करने के लिए बाध्य करना कट्टरता है जिसका हिन्दू धर्म में कोई स्थान नहीं है। जैसे बहू ससुराल में सास, ससुर, ननद, देवर आदि सभी से प्रेम करती है परन्तु निष्ठा पति के प्रति रखती है वैसे ही धार्मिक जीवन में निष्ठा एक के प्रति हो परंतु प्रेम सबके प्रति हो, यही मूल बात है। श्रद्धा में ज्ञान मिल जाता है तो वह निष्ठा बन जाती है और जब अज्ञान मिल जाता है तो वह कट्टरता बन जाती है। हिन्दू धर्म हमें निष्ठावान बनाता है कट्टर नहीं।
गीता में सभी साधना पद्धतियों का समन्वय किया है तथा सभी निष्ठाओं को ईश्वर प्राप्ति का स्वतंत्र मार्ग बताया (गीता 5.4) परंतु एक समय में एक ही निष्ठा धारण की जा सकती है। एक साथ दो नावों की सवारी नहीं की जा सकती न ही सबको अपनी नाव पर खींचा जा सकता है। वह निष्ठा गुरुवचनों में हो, शास्त्र में हो या देवता में हो। अक्सर यह होता है कि हम जिससे प्रभावित होते जाते हैं वैसा ही बनना चाहते हैं। कभी अच्छा संगीत सुन लिया तो संगीतकार और अच्छी पुस्तक पढ़ ली तो लेखक बनना चाहते हैं आदि। परंतु एकनाथ रानाडे कहा करते थे कि जीवन में अनेक चीजें हैं उनमें से कुछ को रिजेक्ट करना पड़ेगा तभी शेष पर आगे बढ़ पाएँगे। हमें अपने आप को पहचान कर अपनी निष्ठा को दृढ़ करना है और फिर उसी एक विचार के लिए पूरा जीवन समर्पित कर देना है। हमें किसी भी स्थिति में अपनी इष्टनिष्ठा से विचलित नहीं होना है। पार्वती ने शिव की प्राप्ति के लिए कठोर तप किया। जब सप्तऋषियों ने उनकी परीक्षा लेते हुए शिव की तुलना में विष्णु के गुण बताए और कहा कि हम तुम्हें विष्णु से मिला देंगे तो पार्वती कहती हैं -जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी (बा.80.5) ऐसी ही निष्ठा हमें अपने इष्ट और धर्म के प्रति रखनी है।
हमें सबके मतों विचारों का सम्मान करना है परंतु अपनी निष्ठा को बरकरार रखना है। धार्मिक उदारता के नाम पर अपने आदर्श न बदलें। उदारता और एकनिष्ठा दोनों के संगम की जरूरत है। इष्टनिष्ठा के साथ ही व्यवहार में शक्ति का मेल भी आवश्यक है। यह शक्ति धन, बल, एकता आदि रूप में होना चाहिए। भारत की दुर्दशा का बड़ा कारण बर्बरों के सामने अत्यधिक उदारता का प्रदर्शन भी था।कट्टरता बाहर से बड़ी दृढ़ दिखाई देती है परंतु इससे समय के अनुसार परिवर्तित न हो पाने के कारण धर्म का स्वरूप विकृत हो जाता है। वहीं निष्ठा बाह्य रूप से सुरक्षा तो देती ही है आंतरिक रूप से धर्म का समय के साथ परिमार्जन करती रहती है। इतिहास गवाह है कि धर्म के नाम पर खान-पान, जातिवाद, छुआछूत आदि में जितनी कट्टरता आई, उसी अनुपात में समाज के उपेक्षित लोग हिन्दू धर्म से दूर होते गये। परंतु सौभाग्य से समय-समय पर कई महापुरुष आए जिन्होंने हिन्दू धर्म को परिमार्जित किया और निष्ठावान अनुयायियों ने उसे स्वीकार किया जिसके कारण हिन्दू धर्म आज भी फल-फूल रहा है। मध्ययुग में इस्लाम और ईसाई आक्रांताओं के कारण जहाँ कई देशों की सभ्यता संस्कृतियाँ पूर्णत: नष्ट हो गईं वहीं भारत में महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत में रहने वाले 6 करोड़ हिन्दू आज बढक़र 100 करोड़ से भी ज्यादा हो गए हैं। कट्टरता अज्ञान पर आधारित है और निष्ठा ज्ञान पर। निष्ठा रक्षा करती है, धर्म को समय के साथ जीवंत रखती है।
(लेखक के ये स्वतंत्र विचार हैं)