चिंतामणि मेंदोला : मजदूर संघर्ष के युग का अंत

मजदूर संघर्ष के सिपाही चिंतामणि मेंदोला जी का 98 वर्ष की उम्र में गुजर जाना मजदूरों के संघर्ष की गाथा के अंतिम पन्ने का पलट जाना है। उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तरप्रदेश) के पौढ़ी गढ़वाल जिले के रिखणिखाल तहसील के द्वारी ग्राम में सन 1926 में एक किसान परिवार में पिता कलीराम जी और माता अम्बा देवी के घर एक बालक का जन्म हुआ जिसका नामकरण चिंतामणि किया गया। पांच भाइयों और एक बहन के भरे पूरे परिवार में उनका नंबर दूसरा था।

स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद छोटी उम्र में ही उनका विवाह नजदीक के पाणी सेन विकासखंड के ग्राम जुकणिया निवासी श्रीमती रामप्यारी बाई से हो गया, युवा होते कंधों पर गृहस्थी का बोझ पड़ा तो रोजी रोटी की तलाश में चिंतामणि अपनी नव विवाहिता पत्नी को लेकर इंदौर आ बसे और हुकमचंद मिल में मजदूरी करने लगे, तकनीकी कार्य में दक्ष होने के कारण शीघ्र ही उनको साल खाते में जावर बनाम मुकादम बना दिया गया। जहां उनके जिम्मे मशीनों में आई खराबी को दूर कर उत्पादन स्तर को बनाए रखना जैसा अति महत्वपूर्ण कार्य था।

देश आजाद हुआ ही था और चारों ओर अफरा तफरी मची हुई थी ऐसे कठिन हालातों में मेंदोला दंपत्ति ने जन सेवा का कार्य शुरू किया। चिंतामणि ने इंटक की सदस्यता लेकर मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ना शुरू किया और अपने जुझारूपन के चलते जल्द ही मंत्री पद तक जा पहुंचे। उस जमाने में रामसिंह भाई, वी वी द्रविड, गंगाराम तिवारी जैसे धाकड़ नेताओं के साथ चिंतामणि का नाम भी गूंजता था।अपने संघर्ष काल में अपने साथियों के हक की आवाज उठाते हुए कई बार जेल भी जाना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपना संघर्ष जारी रखा।

इधर जनसेवा में समय बीत रहा था तो उधर परिवार में भी वृद्धि हो रही थी, छः पुत्र और उन सबसे छोटी एक पुत्री के पिता के रूप में उनकी भूमिका अद्वितीय रही, अपने सभी बच्चो को उन्होंने अपने सीमित साधनों में उच्च शिक्षा दिलवाई। वो नारी स्वतंत्रता और समानता के बड़े पक्षधर थे।

उन दिनों कपड़ा मिलों के चलते एक औद्योगिक शहर के रूप में इंदौर की पहचान दूर दूर तक थी और देश के कोने कोने से रोजगार और बेहतर जीवन की तलाश में लोग इंदौर आते थे। पहले मल्हार गंज में रूग्गा पहलवान के मकान, फिर सिख मोहल्ला और आखिर में नंदानगर स्थित दो कमरों का मेंदोला परिवार का छोटा सा निवास उत्तराखंड से आनेवाले प्रवासीयों के घर के रूप में जाना जाता था। उस घर का एक ही नियम था जो भी आए खाकर जाए।

अपने प्रवासी भाईयों बहनों को शहर में स्थापित होने में आने वाली कठिनाइयों को देखते हुए चिंतामणि मेंदोला ने इंदौर में उत्तराखंड पर्वतीय संगठन की स्थापना की जिसका कार्यालय स्कीम नंबर 54 में कस्तूरी सभागृह के पीछे निर्मित किया गया। इस जमीन को हासिल करने के लिए भी लंबा संघर्ष किया गया।

परिवारों की आकस्मिक आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए मेंदोला ने अपने मित्रों कर्नल बिष्ट, गोविंद सिंह रावत, बालम सिंह गुसाई आदि के साथ मिलकर गढ़वाल भ्राता मंडल नाम से एक सहकारी संस्था की स्थापना की जो जरूरत मंदों को आसान शर्तों पर आर्थिक मदद उपलब्ध करवाती थी।

अपने शुरुआती दौर में जब नंदानगर में मजदूरों को घर उपलब्ध करवाए जा रहे थे तब पहले पहल आने वालों में मेंदोला परिवार भी शामिल था। उस समय कोई यहां रहने आने को तैयार नहीं होता था ऐसे में दूर दृष्टि मेंदोला जी अपने मजदूर साथियों को आग्रह कर यहां घर लेने के लिए मनाते थे। उनके बसाए कई परिवारों के युवा सदस्य आज उनको धन्यवाद देते हैं।

पारिवारिक दायित्वों और समाजसेवा के मध्य सामंजस्य बैठाने के लिए 1983 में मिल से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेने के बाद उन्होंने राजनीति से भी सन्यास लेकर सिर्फ समाज सेवा को ही अपना लक्ष्य और कर्तव्य बना लिया था जिसे वो मृत्यु पर्यन्त निभाते रहे। उनकी मृत्यु का समाचार पाकर उमड़ा जन सैलाब उनकी और उनके परिवार की लोकप्रियता का जीता जागता प्रमाण है। उनके द्वारा रोशन की गई समाज सेवा की मशाल उनके पुत्र रमेश मेंदोला ने थामी है और वो आज देश के सबसे लोकप्रिय विधायकों में सर्वोच्च स्थान रखते हैं। आम जनता के लिए मेंदोला परिवार के द्वार सदैव खुले रहते हैं। “पिताजी” के उपनाम से जाने जाने वाले चिंतामणि मेंदोला जी को विनम्र श्रद्धांजलि।