दुनिया के forests पर मंडरा रहा खतरा


लेखक
ज्ञानेन्द्र रावत

अब यह जगजाहिर है कि एक दिन जंगल किताबों की वस्तु बनकर रह जाएंगे। असलियत यह है कि जिस रफ्तार से दुनिया में जंगलों ( forests ) का विनाश हो रहा है, उसके देखकर तो यही लगता है। दुख इस बात का है कि इसके बावजूद भी दुनिया की सरकारी इस बाबत मौन हैं। उनका यह मौन समझ से परे है कि आखिर इसका कारण क्या है?

दुनिया में 193 मिलियन एकड़ पहाडी़ forests नष्ट हो गए हैं

सबसे पहले पहाडी़ जंगलों ( forests ) को लें, असल में बीते दो दशकों में समूची दुनिया में 78 मिलियन हैक्टेयर यानी 193 मिलियन एकड़ पहाडी़ जंगल नष्ट हो गये हैं। जबकि पहाड़ दुनिया के 85 फीसदी से ज्यादा पक्षियों, स्तनधारियों और उभयचरों के आश्रय स्थल या यूं कहें कि घर हैं। इस बारे में यदि एशिया,उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप का जायजा लें तो पाते हैं कि पहाडी़ जंगलों के खात्मे की दर में एशिया 39.8 मिलियन हैक्टेयर वन नुकसान के मामले में सर्वोपरि है। उसके बाद उत्तरी अमेरिका, 18.7 मिलियन हैक्टेयर के साथ दूसरे पायदान पर, दक्षिणी अमेरिका 8.3 मिलियन हैक्टेयर के साथ तीसरे, अफ्रीका 6.4 मिलियन हैक्टेयर के साथ चौथे पायदान पर है। दुनिया में आधे से अधिक वन रूस में 81.5 करोड़ हैक्टेयर, भारत में 80.9 करोड़ हैक्टेयर, ब्राजील में 49.7 करोड़ हैक्टेयर, कनाडा 34.7 करोड़ हैक्टेयर और संयुक्त राज्य अमेरिका के 31 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में हैं।
गौरतलब यह है कि हर साल जितना जंगल खत्म हो रहा है, वह एक लाख तीन हजार वर्ग किलोमीटर में फैले देश जर्मनी, नार्डिक देश आइसलैंड, डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों के क्षेत्रफल के बराबर है। लेकिन सबसे बड़े दुख और चिंता की बात यह है कि इसके अनुपात में नये जंगल लगाने की गति बेहद धीमी है। लंदन के थिंक टैंक एनर्जी ट्रांसमिशन कमीशन, ईटीसी की मानें तो समूची दुनिया में हर मिनट औसतन दस फुटबाल मैदान के बराबर यानी 17.60 एकड़ जंगल काटे जा रहे हैं। बीते 30 सालों में 42 करोड़ हैक्टेयर जंगल को मैदान बना दिया गया है। पर्यावरण विज्ञानी बर्नार्डों फ्लोर्स की मानें तो एक बार यदि हम खतरे के दायरे में पहुंच गये तो हमारे पास करने को कुछ नहीं रहेगा।
जहां तक धरती का फेफडा़ कहे जाने वाले दक्षिण अमेरिका के अमेजन बेसिन के बहुत बड़े भूभाग पर फैले अमेजन के वर्षा वनों का सवाल है, वे विनाश के कगार पर हैं। बढ़ते तापमान, भयावह सूखा, वनों की अंधाधुंध कटाई और जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं के चलते अमेजन के जंगल खतरे के दायरे में हैं। मौजूदा अमेजन के जंगलों के 10 से 47 फीसदी हिस्से पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। जबकि अमेजन के जंगलों का 18 फीसदी हिस्सा तो नष्ट हो ही चुका है। यदि यह आंकडा़ 20-25 फीसदी तक पहुंच गया तो यह जंगल पूरी तरह सवाना यानी घास के मैदान में बदल जायेगा। जर्नल नेचर में प्रकाशित ब्राजील में सैंटा कैटारिना यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों के शोध- अध्ययन के मुताबिक अब अमेजन के लिए ‘रेड अलर्ट’ का ऐलान करने का समय आ गया है। इसमें जलवायु परिवर्तन के चलते पडऩे वाले सूखा और गर्मी व आग सहित बहुतेरे कारकों की बडी़ भूमिका है। यहां इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि जंगलों के खात्मे में आग भी एक अहम कारक है जिसके चलते दुनिया में हर साल लाखों हैक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं।
शोधकर्ता वैज्ञानिकों के अनुसार अमेजन वनों का लगभग आधा हिस्सा 2050 तक खत्म हो जायेगा।दरअसल दुनिया में जंगलों का सबसे ज्यादा विनाश ब्राजील में हुआ है और यह सिलसिला आज भी जारी है। उसके बाद डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कांगो और बोलीविया का नम्बर आता है। यदि मैरीलैंड यूनीवर्सिटी और वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के ग्लोबल वाच की हालिया रिपोर्ट की मानें तो दुनिया भर में साल 2023 में 37 लाख हैक्टेयर जंगल नष्ट हो गये। जबकि भारत में 2023 के दौरान 21,672 हैक्टेयर जंगल खत्म हो गये। देश में 2022 में 21,839 हैक्टेयर जंगलों का खात्मा हुआ। 2001 से 2023 के बीच भारत में तकरीब 23.3 लाख हेक्टेयर जंगल खत्म कर दिये गये। 2013 से 2023 के बीच के दस सालों में देश में हुए जंगलों के 95 फीसदी खात्मे में जंगलों की अवैध कटाई और आग की घटनाओं में बेतहाशा बढो़तरी की अहम भूमिका रही है। यदि यू के स्थित साइट यूटिलिटी बिडर की नयी रिपोर्ट की मानें तो भारत ने बीते 30 वर्षों में जंगलों की कटाई में भारी बढो़तरी हुयी है। इसमें 2015 से 2020 के इन पांच वर्षों के दौरान तो जंगल कटाई ने कीर्तिमान बनाया है। इस दौरान देश में 6,68,400 हैक्टेयर वनों का खात्मा हुआ। यह आंकडा़ दुनिया में ब्राजील के बाद दूसरा सबसे अधिक है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक 1990-2020 के बीच के तीस वर्षों में 42 करोड़ हैक्टेयर जंगलों का खात्मा हुआ है। भले इसके वह प्राकृतिक कारण हों या मानवीय। इसमें देश के पांच राज्यों यथा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड,तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश शीर्ष पर हैं जहां देश में आग से सबसे ज्यादा जंगल तबाह हुए हैं और यह सिलसिला आज भी जारी है। यदि ग्लासगो में हुए काप-26 सम्मेलन की बात करें जिसमें दुनिया के 144 देशों ने 2030 तक इन जंगलों को बचाने का संकल्प लिया था, के बारे में गौरतलब है कि यदि दुनिया में वनों की कटाई पर रोक लगायी जाती है तो एक अनुमान के आधार पर उस हालत में 900 अरब डालर की रकम खर्च होगी। जबकि अभी दुनिया में जंगलों को बचाने पर सालाना तीन अरब डालर की राशि खर्च की जा रही है। कैंब्रिज यूनीवर्सिटी की कंजरवेशन रिसर्च इंस्टीट्यूट की वैज्ञानिक रैसल गैरेट के अनुसार जंगलों को बचाने के लिए दुनिया भर की सरकारों को सालाना 130 अरब डालर खर्च करने होंगे। यदि 2030 तक वनों की कटाई पर काबू नहीं पाया गया तो आने वाले समय में यह खर्च कई गुणा बढ़ जायेगा और कार्बन उत्सर्जन में बढो़तरी से पर्यावरणीय समस्याएं और विकराल रूप धारण कर लेंगी।
सबसे बडी़ चिंता की बात यह है कि वैज्ञानिकों की इस बारे में एकमुश्त राय है कि ऊर्जा, उत्पाद और दूसरी सामग्रियों के लिए दुनिया भर की कंपनियों की नजर जैव विविधता पर है। अनुमान है कि जैव विविधता के दोहन के लिए दुनिया भर के देश 2030 तक 400 अरब डालर का निवेश करेंगे जो मौजूदा समय से 20 गुणा ज्यादा होगा। यह बडा़ संकट है।दरअसल जैव विविधता को संरक्षित करने में वन की उपयोगिता जगजाहिर है लेकिन विडम्बना है कि हम उन्हीं के साथ खिलवाड़ कर अपने जीवन के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। बीते तीन दशक इसके सबूत हैं कि उनमें हमने तकरीब एक अरब वन मानवीय स्वार्थ के चलते खत्म कर दिये हैं। दुख इस बात का है कि जंगल बचाने की लाख कोशिशों के बावजूद दुनिया में वनों की कटाई में और तेजी आई है और उसकी दर चार फीसदी से भी ज्यादा हो गयी है। मौजूदा दौर की हकीकत यह है कि दुनिया में हर मिनट 21. 1 हैक्टेयर में फैले जंगलों का खात्मा हो रहा है। फिर भी हम इस सबसे बेखबर मौन हैं।
हम यह क्यों नहीं समझते कि यदि अब भी हम नहीं चेते तो हमारा यह मौन हमें कहां ले जायेगा और क्या मानव सभ्यता बची रह पायेगी ? चिंता की असली वजह तो यही है।इस बारे में 2004 के लिए नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली केन्या की पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधन मंत्री रहीं बंगारी मथाई का उस समय दिया बयान महत्वपूर्ण है कि जल, जंगल और जमीन के मुद्दे आपस में गहरे तक जुड़े हुए हैं। हमने प्राकृतिक संसाधनों और लोकतांत्रिक प्रशासन को बखूबी समझा है। वैश्विक स्तर पर भी यह प्रासंगिक है। प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जबतक यह नहीं होगा, शांति कायम नहीं हो सकती। नोबेल पुरस्कार समिति का भी यही सोच है। समिति का भी मानना है कि पर्यावरण, लोकतंत्र और शांति के अंतरसम्बंधों की पहचान जरूरी है। समिति ऐसे सामुदायिक प्रयासों को प्रोत्साहित करने की पक्षधर है जिससे धरती को बचाया जा सके। खासकर ऐसे समय में जब हम पेड़ों और पानी के साथ साथ जैव विविधता की वजह से पारिस्थितिकी के संकट से जूझ रहे हैं। इस बात में किसी तरह का संदेह नहीं है कि जब तक हम जल, जंगल, जमीन, खनिज और तेल जैसे संसाधनों का उचित प्रबंधन नहीं करेंगे तबतक गरीबी से नहीं लडा़ जा सकता।