Education पर हावी होती जा रही व्यवसायिकता


लेखक
चैतन्य भट्ट

सरकार शिक्षा ( Education ) से पूरी तरह पल्ला झाडऩे पर उतारू दिखती है। इसे विकसित देशों का जीसीअनुकरण माना जा रहा है जहां शिक्षा निजी तौर पर वित्तपोषित संस्थाओं में दी जाती है। यह संस्थाएं सरकारी धन के बजाय ट्यूशन फीस, दान और लाभार्थियों से प्राप्त अनुदान से चलती हैं। स्वतंत्र नियमन व्यवस्था यह जरूर सुनिश्चित करती है कि शिक्षा का मूल उद्देश्य सर्वोपरि रहे और आर्थिक शोषण न हो।

बात अब स्कूली Education तक आई

इसी अंधानुकरण में निजी इंजीनियरिंग कालेज बने। फिर मेडिकल कॉलेज और विश्वविद्यालय। बात अब स्कूली शिक्षा तक आ गई है। शासकीय शालाओं के लिए ये अनिवार्य है कि वे छोटी कक्षाओं में पढऩे वाले पच्चीस प्रतिशत बच्चों को निजी स्कूलों में भेजें जिनकी फीस सरकार चुकाएगी, इस नियम के चलते सरकारी स्कूलों की दर्ज संख्या लगातार कम होती जा रही है इससे ये संदेश भी जा रहा है कि सरकार सरकारी स्कूलों को बंद करना चाहती है वैसे भी सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है।
जर्जर भवन, मूलभूत सुविधाओं और शिक्षकों की कमी जैसी समस्याओं के चलते आदमी पेट काटकर भी बच्चों को सरकारी की बजाय निजी स्कूलों में पढ़ाना चाहता है।संविधान (छियासीवां संशोधन) अधिनियम, 2002 छह से चौदह वर्ष के सभी बच्चों को मुफ्त अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार देता है। नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009 बच्चों को सरकारी मानदण्ड और मानकों को पूरा करने वाले स्कूलों में संतोषजनक और समान गुणवत्ता वाली प्रांरभिक शिक्षा का अधिकार देता है। कानूनों में छात्र-शिक्षक अनुपात, प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति जैसे अनेक प्रावधान हैं। भवन और अवसंरचना, स्कूल के कार्य दिवस, शिक्षक के कार्य के घंटों से संबंधित मानदण्ड और मानक निर्धारित हैं। जनगणना, चुनाव और आपदा राहत को छोडक़र गैर-शैक्षिक कार्य के लिए शिक्षकों की तैनाती निषेध है। मगर इन प्रावधानों का निर्मम उल्लंघन किसी परिचय का मोहताज नहीं है।जानकार कहते हैं, कानून जितना कड़ा होगा, भ्रष्टाचार के जरिए उतने ही सुगम होंगे। प्रावधानों का पालन हो रहा है या नहीं, देखने के लिए व्यवस्था चाहिए। यहां सरकार कोई नई स्वतंत्र व्यवस्था आजमाने के लिए तैयार नहीं बल्कि खुद सारा काम देखना चाहती है। मामला कमाई का जो ठहरा। परमीशन देने से शुरू हुआ भृष्टाचार अनवरत जारी रहता है। गिनी चुनी संस्थाओं के अलावा कोई निजी स्कूल शासन द्वारा निर्धारित नियमों का पालन नहीं करता। इसे अनदेखा करने के लिए घूस का चश्मा लगता है। कितने ही स्कूल 2400 वर्ग फुट पर खड़े किराए के रिहायशी मकानों में चल रहे हैं।12 गुना दस के बेडरूम नुमा कमरों में ठुंसे बच्चों को देखकर करुणा उपजती है। खेल मैदान तो छोडि़ए, प्रार्थना तक जगह की मोहताज है। बच्चे सोचते हैं, बात स्कूल की हुई थी, मां बाप ने घर में भर्ती करा दिया।
वसूली के नायाब तरीके हैं। मासिक फीस इतनी है जितने में मां-बाप स्नातक हो जाते थे। बिल्डिंग डेवलपमेंट फंड जैसे हथकंडे हैं। मैदान का अता-पता नहीं मगर स्पोर्ट्स फंड की वसूली चाहिए। डोनेशन नामी व्यवस्था के चलते विद्या को दान मानने की परंपरा वाले देश का आदमी विद्यार्जन के लिए दान देने पर मजबूर है। खाकी पैंट सफेद कमीज की एक रूपी यूनीफार्म के दिन कमीशन खोरी ने खत्म कर दिए हैं। हर स्कूल की अपनी यूनीफार्म है जो किसी एक दूकान पर ही मिलती है। एक दो चुनिंदा दुकानों पर ही मिलने वाली किताबों की लंबी लिस्ट है। पाठ्यक्रम अनुसार पुस्तकें तय करने और इन्हें उचित कीमत पर उपलब्ध कराने के लिए सरकारी निर्देश हैं मगर निजी स्कूल अन्य महंगी पुस्तकें खरीदने पर मजबूर करते हैं। बस्ते का बोझ ऐसा बढ़ता है कि लगता है बच्चा और कुछ बने या नहीं, अच्छा कुली जरूर बनेगा। पिछले दिनों अचानक हरकत में आई सरकार द्वारा निजी स्कूलों में चल रही लूट पर की गई कमरतोड़ चोट की खुशगवार पहल ने अभिभावकों का दर्द हल्का किया था। यह भी उजागर किया था कि अवैध वसूली का यह दंश कितना गहरा है।इस अंधाधुंध कमाई ने शिक्षा को नेताओं का पसंदीदा व्यवसाय बना दिया है। किसी भी निजी स्कूल की कुंडली खंगालकर देखिए, प्रत्यक्ष या परोक्ष नेता बैठा मिलेगा। सरकारी तिकड़मों से परमीशन निकालना उसी के बस की बात है। सीधे मालिक होने के बजाय दो नंबरी पैसा लगाकर कमान अपने हाथ में रखने का विकल्प भी है। बड़े नेता का स्कूल भी बड़ा। छुटभैय्ये का छोटा। रहा सवाल बहुत बड़ा नेता का तो वह स्कूलों के चक्कर में नहीं पड़ता।
सीधे कालेज और यूनिवर्सिटी खेलता है।ऐसा नहीं कि सरकार स्कूली शिक्षा पर खर्च नहीं कर रही है। वंचित और जरूरतमंद परिवारों के बच्चों की शिक्षा के लिए निजी स्कूलों को फीस की प्रतिपूर्ति होती है। 2022-23 में ही जबलपुर जिले के 613 निजी स्कूलों को 23500 से अधिक बच्चों की फीस के लिए सरकार ने 12 करोड़ 80 लाख भुगतान किया है। नर्सरी से लेकर कक्षा 8 तक तीन चरणों की शिक्षा के लिए दी जाने वाली यह राशि कोविड से पहले के 2600 रुपए प्रति छात्र प्रति वर्ष से 5600 हो गई है। निजी इंजीनियरिंग कालेजों के छात्रवृति घोटाले और आयुष्मान कार्ड से इलाज में होने वाले करोड़ों के भृष्टाचार की तर्ज पर इस फीस प्रतिपूर्ति में कितना भृष्टाचार होता होगा, स्वतंत्र शोध का विषय है।शिक्षा समाज के निर्माण की आधारभूत शिला है। इसे विशुद्ध नफे-नुकसान के आधार पर चलाने का निर्णय ठीक नहीं है। (लेखक के ये निजी विचार हैं)
विकसित देशों में निजीकृत शिक्षा व्यवस्था है। मगर उसके नियमन के लिए स्वतंत्र और सक्षम संस्थाएं हैं। अंधानुकरण उचित नहीं है। बिना किसी स्वतंत्र नियामक व्यवस्था के शिक्षा का निजीकरण दुधारी तलवार है। वास्तविक रूप से शिक्षित समाज का निर्माण भी नहीं होगा और भृष्टाचार होगा सो अलग। जिम्मेदार इस कठोर वास्तविकता से जितनी जल्दी रूबरू हों उतना अच्छा होगा ।