लेखक
चैतन्य भट्ट
तकनीक ( technology ) पर निर्भर व्यवस्थाएं चिंता पैदा करने वाली भी हैं। लेबनान में हजारों पेजरों और उसके बाद वाकी टाकी रेडियो , लैपटॉप और सोलर उपकरणों में एक साथ हुए धमाकों ने दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इन धमाकों में 30 से ज्यादा मौतें हुईं और 3000 से ज्यादा लोग गंभीर रुप से घायल हैं। इसे आतंकी संगठन हिजबुल्ला के खिलाफ इजरायली सुरक्षा एजेंसी मोसाद का आपरेशन माना जा रहा है।
आईओटी technology ने साईबर पहुंच को आसान बनाया
नई तकनीकों ( technology ) के समंदर में गोते लगा रही युवा पीढ़ी तो शायद जानती भी न हो कि पेजर है क्या ? 80 के दशक में आया यह संचार माध्यम मोबाइल के आने से जल्द विदा हो गया। भारत में तो इसके आगमन प्रस्थान की भनक भी नहीं लगी। जीपीएस मोबाइल की तुलना में पेजर की बेहद बेसिक तकनीक इसकी ट्रैकिंग मुश्किल बनाती है। संभवत: इसीलिए इजरायली एजेंसियों द्वारा ट्रेस किए जाने से बचने के हिजबुल्ला ने इस पुरानी तकनीक पर निर्भर होना ठीक समझा। बहरहाल यह आश्वस्ति झूठी ही साबित हुई है।
धमाकों के पीछे पहली थ्योरी यह है कि इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल की फ्रीक्वेंसी हैकिंग से पेजर में लगी लिथियम बैटरी का टैंपरेचर बढ़ाकर ये धमाके किए गए। दूसरी थ्योरी के अनुसार हिजबुल्ला ने यह पेजर ताईवानी कंपनी गोल्ड अपोलो से खरीदे थे जिनकी बैटरी के साथ मोसाद ने विस्फोटक प्लांट कर दिए। एक संदेश ने विस्फोटक एक्टिवेट किया और हजारों पेजर एक साथ फट गए। हिजबुल्ला इस त्रासदी से उबर भी नहीं पाया था कि सैकड़ों वाकी-टाकी उपकरणों, लैपटॉप और यहां तक कि सोलर उपकरणों में भी ऐसे ही धमाके हुए। ताजातरीन खबरें तो यह हैं कि एक बेहद खुफिया और सोचे समझे तरीके से इजराइल ने एक फर्जी कंपनी के माध्यम से यह पेजर खुद बनाकर गोल्ड अपोलो कंपनी को सप्लाई किए जो अंतत: हिजबुल्ला के सदस्यों तक पहुंचे। हमास के सुप्रीम कमांडर इस्माइल हानियां की इजरायल के दुश्मन नंबर एक ईरान की राजधानी तेहरान में हुई हत्या भी तकनीक के दम पर ही संभव हुई थी।
इस घटना से उपजी चिंताएं भयावह हैं। इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आई.ओ.टी. ) तकनीक ने साईबर पहुंच को उपयोग की लगभग हर वस्तु तक पहुंचा दिया है। इस तकनीक से बिजली, मोटर वाहन, सुरक्षा और निगरानी, स्वास्थ्य प्रबंधन, कृषि, स्मार्ट होम और स्मार्ट सिटी जैसे बुनियादी ढाँचे को उन्नत किया जा रहा है। उपभोक्ता भी चाहता है कि दैनिक उपयोग की हर वस्तु हर वक्त उसकी पहुंच हो। कंपनियां इस कमजोरी का फायदा उठाकर हर उपभोक्ता उपकरण में यह तकनीक अपना रही हैं। कंपनियों को छुपा फायदा यह भी है कि उन्हें मार्केटिंग के लिए महत्वपूर्ण डाटा फ्री मिल रहा है जिसका उपयोग वे न सिर्फ खुद करती हैं बल्कि उसे बेचकर पैसा भी कमाती हैं। अनुमान है कि 2025 तक वैश्विक स्तर पर लगभग 11.4 बिलियन उपभोक्ता और 13.3 बिलियन इंटरप्राइजेज़ आई.ओ.टी. डिवाइस से युक्त होंगे और साईबर हमलों की पहुंच में होंगे। इनमें मोबाइल, कार , स्मार्ट वॉच, हैल्थ मानीटर, फ्रिज, टीवी , एयर कंडीशनर समेत पेसमेकर जैसे बैटरी से चलने और शरीर के अंदर लगाए जाने वाले मेडिकल उपकरण भी शामिल हैं। पेजर धमाके बताते हैं कि ऐसे किसी भी उपकरण को बम में तब्दील करना संभव है। अधिसंख्य लोग मोबाईल से निकलने वाले घातक रेडिएशन के खतरे से अपरिचित होंगे। विभिन्न देशों में इस रेडिएशन लिए अलग-अलग सीमाएं तय हैं। क्या तकनीक के बल पर इस रेडिएशन को जानलेवा घातक स्तर तक बढ़ाया जा सकता है ? अगर हां तो यह खतरे की एक और घंटी है।
यूक्रेन युद्ध का प्रारंभिक अनुमान था कि ताकत के दम पर रूस इसे कुछ ही दिनों में खत्म कर देगा। सारे अनुमान गलत साबित हुए और लगभग दो साल का लंबा समय बीतने के बावजूद यह अब भी जारी है। पश्चिमी देशों द्वारा दिए गए उन्नत तकनीकी उपकरणों के दम पर यूक्रेन न सिर्फ युद्ध में बना हुआ है बल्कि उसने रुस जैसे ताकतवर देश को गहरा नुकसान भी पहुंचाया है। इजरायल की हमास तथा हिजबुल्ला जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ चलने वाली लंबी लड़ाई भी तकनीक के प्रयोग से निर्णायक स्थिति में पहुंचती दिख रही है। जाहिर है, भविष्य के युद्ध सेनाओं और हथियारों नहीं बल्कि वातानुकूलित कक्षों में तकनीक के दम पर लड़े जाएंगे। साईबर हमलों की ऐसी श्रंखला युद्धों और आतंकवादी गतिविधियों तक ही सीमित नहीं रहेगी। ऐसे एक हमले से किसी भी देश की पूरी आर्थिक और जनोपयोगी व्यवस्था छिन्न-भिन्न कर उसे पंगु बनाया जा सकता है।
सूचना और संचार प्रौद्योगिकी न सिर्फ व्यक्तिगत बल्कि वैश्विक सुरक्षा की भी सबसे महत्वपूर्ण आधुनिक चुनौतियों में से एक है। राज्य विशेष या आतंकवादी समूह के हाथ में पहुंचकर ऐसी तकनीक कितनी विध्वंसक हो सकती है, सोच कर ही सिहरन होती है। बुनियादी ढांचे या सैन्य रसद नेटवर्क को नष्ट करने के लिए किया गया साईबर हमला कभी भी अंतरराष्ट्रीय संकट साबित हो सकता है। परमाणु अप्रसार संधि की तर्ज पर ऐसी अंतरराष्ट्रीय सहमति जरूरी है जो इसका नियमन करे। प्रयास हो तो रहे हैं मगर प्रगति धीमी है। अगर लेबनान में हुए धमाकों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस विषय पर और शीघ्रता से सोचने पर मजबूर किया तो यह त्रासदी से सबक सीखने की अच्छी बानगी होगी।