सर्वकालिक महानायिका उर्मिला
– राजकुमार जैन, स्वतंत्र विचारक
वर्तमान समय में टूटते बिखरते समाज को पुनः संगठित करने के लिये जरूरत है उर्मिला जैसी आत्मबल और चारित्रिक गुणों से भरपूर महिलाओं की जो समाज को एकजुट रख राष्ट्र को मजबूती प्रदान कर सकें। आज जरूरत है अपने बेटों को राम लक्ष्मण जैसे सशक्त बनाने की और बेटियों को उर्मिला जैसी परिवार को जोड़े रखने वाली सोच रखने की शिक्षा प्रदान करने की।
मानस-मन्दिर में सती, पति की प्रतिमा थाप, जलती-सी उस विरह में, बनी आरती आप
1931 में प्रकाशित हुए महाकाव्य साकेत में महाकवि मैथिलीशरण गुप्त ने माता उर्मिला के जीवन चरित्र का विस्तृत वर्णन किया है। वो जनकपुर के राजा जनक की दूसरी बेटी थी, उनकी माता रानी सुनयना थी और माता सीता उनकी बड़ी बहन थी। उर्मिला का परिचय पवित्र धर्म ग्रंथ रामायण/रामचरितमानस में भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण की पत्नी के रूप में मिलता है।
बचपन से श्रीराम की सेवा करने वाले लक्ष्मण ने बड़े भाई राम की सेवा के लिए उनके साथ वनवास जाने का निश्चय किया, और अपनी माता से इस बात की अनुमति ली। तत्पश्चात वह संकोच से यह सोचते हुए अपनी धर्मपत्नी उर्मिला के कक्ष की और बढ़ रहे थे कि माता से तो मैने आशीर्वाद ले लिया, लेकिन अब उर्मिला से कैसे आज्ञा लूंगा, मैं कैसे उसे समझाऊंगा, उससे क्या कहूंगा।
लेकिन जब वो उर्मिला के कक्ष में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उर्मिला आरती की थाल लिए खड़ी है। आरती उतारते हुए उर्मिला लक्ष्मण से कहती है कि आप मेरी चिंता मत कीजिए। आप अपने भ्राता की सेवा करिए। क्योंकि एक छोटे भाई के रूप में यही आपका सबसे बड़ा धर्म है और इस सेवाकार्य में कोई बाधा ना आए इसलिए मैं आपके साथ जाने की जिद नहीं करूंगी। यह सुनकर लक्ष्मण जी प्रसन्न हुए और कहा कि हे उर्मिला तुमने तो मेरा सारा असमंजस और संकोच दूर कर दिया है।
जब राम, लक्ष्मण तथा जानकी 14 वर्ष के वनवास को जाने के लिए महल से निकलने लगे, तब माता सीता और प्रभु श्रीराम ने भी उर्मिला से अपने साथ में वन गमन के लिए आग्रह किया। परन्तु उर्मिला ने उन्हें परिवार के सदस्यों की देखभाल करने की प्राथमिक आवश्यकता से अवगत करवाया। और यह भी बताया की स्वयं लक्ष्मण आपके साथ दास के रूप में जा रहे हैं और आपकी सेवा में व्यस्त रहेंगे। ऐसे समय में मेरी (उर्मिला की) उपस्थिति कहीं मोहवश उनको (लक्षमण को) कर्तव्य -पथ से विरक्त न कर दे इसीलिए मैने लक्ष्मण के साथ वन न जाने का निश्चिय किया है।
परिवार की देखभाल को ही सर्वोपरि मान उर्मिला ने स्वयं इस विरह-व्यथा को चुना। इससे उद्दात नारी चरित्र हमारे किसी और ग्रन्थ में दिखाई नहीं पड़ता है। माता उर्मिला पारिवारिक गृहस्थ धर्म की पावन परम्परा की अमिट प्रतीक हैं । एक पत्नी को पति का धर्मसंकट कैसे दूर करना चाहिए। एक बहु को संकट समय में परिवार का साथ कैसे निभाना चाहिए। एक कर्त्तव्यपरायण, जिम्मेदार और समझदार गृहलक्ष्मी का क्या धर्म होता है, उर्मिला इसका साक्षात प्रमाण है ।
जिस पति से नवब्याहता पत्नी क्षण भर भी दूर नहीं रहना चाहती उससे चौदह वर्षों तक पृथक रहना उर्मिला के विशाल आत्मबल का परिचायक है। जिस समय कोई भी नववधू अपने पति से विलग रहने का सोच भी नहीं सकती, ऐसे समय ससुराल परिवार की देखभाल का विशाल दायित्व अपने नवयुवा कंधों पर लेना उर्मिला के स्वभाव और चरित्र की दृढ़ता को दर्शाता है। माता उर्मिला को त्याग की देवी कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। क्योंकि उर्मिला के इस स्वैच्छिक त्याग के बिना लक्ष्मण कभी अपने कर्तव्य-पथ की यात्रा को पूर्ण नहीं कर सकते थे।
उर्मिला का त्याग मानस के पात्रों मे सर्वोच्च है। उर्मिला समान और कोई नारी पात्र अन्य किसी ग्रंथ या साहित्य में आज तक पढ़ने में नही आया। लेकिन रामायण में अगर कोई सबसे अधिक उपेक्षित और अनदेखा पात्र है तो वह है देवी उर्मिला। रामायण और रामचरितमानस दोनों में ही उर्मिला के इस महान जीवनवृत का अपेक्षाकृत बहुत कम चित्रण है। जबकि वह एक अत्यन्त उत्कृष्ट एवं सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ नारी पात्र हैं। वस्तुत: एक नारी ही परिवार को जोड़े रखने में सक्षम है इस बात को पुरुष प्रधान समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया।
अपने जीवन के सबसे विकट क्षणों में उर्मिला आंसू भी न बहा सकी क्योंकि वो जानती थीं कि अगर वह अपने दुःख में डूबी रहेंगी तो परिजनों का ख्याल नहीं रख पाएंगी। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि अपने पति को चौदह वर्षों के लिए अपने से दूर जाने देना और उसकी विदाई पर आंसू भी न बहाना किसी नवविवाहिता के लिए कितना कष्टकारी हो सकता है।
उनके माता पिता से अपनी बेटी का यह हृदय विदारक दुख देखा नहीं जाता था। महाराज जनक उर्मिला को मायके यानि मिथिला ले जाना चाहते थे, ताकि मां और सखियों के सान्निध्य में उर्मिला का पति वियोग का दुःख कुछ कम हो सके परन्तु उर्मिला ने मिथिला जाने से सादर इंकार कर दिया, यह कहते हुए कि अब पति के परिजनों के साथ रहना और दुख में उनका साथ न छोड़ना ही अब उसका धर्म है।
माता उर्मिला के चरित्र में संस्कृति बोध व्यापक रूप दृष्टिगोचर होता है। उनके आचरण में वियोग जनित , उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जडता, अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुण कथन मरण के साथ ही सत्यनिष्ठा, वचन बध्दता, आतिथ्य, धर्म, पतिव्रत, परदुखकातरता इत्यादि जीवन आदर्श भी स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। यह उर्मिला की अवर्णित, अचर्चित, अघोषित महानता थी।
उर्मिला के महान चरित्र, परिवार के प्रति समर्पण, स्नेह और त्याग की चर्चा ग्रंथों में अपेक्षित थी पर वह हो न सका। पति से प्रेम रखने वाले महिलाओं के महिमामंडन से साहित्य जगत भरा पड़ा है लेकिन संपूर्ण भारतीय साहित्य में एक भी रचना नारी के अपने परिवार के प्रति प्रेम के इस मूल भाव को केंद्र में रखकर नहीं लिखी गई है।
वर्तमान समय में टूटते बिखरते समाज को पुनः संगठित करने के लिये जरूरत है उर्मिला जैसी आत्मबल और चारित्रिक गुणों से भरपूर महिलाओं की जो समाज को एकजुट रख राष्ट्र को मजबूती प्रदान कर सकें। आज जरूरत है अपने बेटों को राम लक्ष्मण जैसे सशक्त बनाने की और बेटियों को उर्मिला जैसी परिवार को जोड़े रखने वाली सोच रखने की शिक्षा प्रदान करने की।