तुमने विक्षिप्त महिला तक को नहीं छोड़ा, तुम्हारे वहशी चेहरे पर हो जाये फोड़ा…

प्रखर वाणी

वाह रे हवस के पुजारियों…हुस्न की लिप्सा में रत भिखारियों…तुमने विक्षिप्त महिला को भी नहीं छोड़ा…तुम्हारे वहशी चेहरे पर भगवान कर दे फोड़ा…वो कुछ बोल नहीं पा रही है…अपनी मानसिक दुर्दशा के बाद मुख खोल नहीं पा रही है…फिर अपना काम करके तुम उसको नग्न छोड़ गए…उसके अनभिज्ञ ख्वाबों को पल भर में तोड़ गए…तुमको क्या मिला बस क्षण भर का सुख…मगर तुमने दिया समूची सभ्यता को दुख ही दुख…वो तो मानसिक रोगी थी…जिसने तुम्हारे द्वारा प्रदत्त वेदना भोगी थी…मगर तुम उससे भी बड़े मानसिक रोगी हो…सिर्फ कानून के ही नहीं सम्पूर्ण मानव समाज के भी अभियोगी हो…तुमने तो मानवता को भी तार तार कर दिया…

इंसानियत की तमाम दलीलों को जार जार कर दिया…अपने अन्तरवेग की आग को ऐसे खोटा काम कर बुझाया…कभी सद्चरित्र का पथ तुमको किसी ने नही सुझाया…ये क्या हो गया संस्कृति गुरु राष्ट्र के नौजवानों को…बन्द करवा दीजिए जनाब इन बढ़ते मयखानों को…जो मस्तिष्क की ऊर्जाओं को नकारात्मक बनाते हैं…जिनकी आत्मा में गौण रिश्ते – नाते हैं…वो क्या अपने व्यवहार में उद्धार को समझेंगे…उनके विचार कब और कैसे सुलझेंगे…रोगी तो वो महिला नहीं ये हैं जो बलात्कार करते हैं…अपने होने और ना होने , याने अस्तित्व तक को बेकार करते हैं…इन निकम्मों की कुंठा हो या हवस…

मानवता हो रही है इनसे ही तहस नहस…शैतानियत की हदें पार करता ये दानवी आचरण हैं…चप्पे चप्पे पर ऐसे दुष्टों का आज हो रहा विचरण है…ऐसे जालिमों को फांसी नहीं सजा में नपुंसक बना देना चाहिए…मार मार कोड़े इनकी जुबान से उपजे हर शब्द को सिसक बना देना चाहिए…ये हो क्या रहा है

आजकल…सुनकर आत्मा जाती है दहल…चार वर्ष की अबोध मासूम से घिनौना काम…कोई नहीं कस पा रहा है इन जालिमों पर लगाम…कच्ची उम्र की बालाओं को बरगलाकर ले जाते हैं…उनको सुनहरे सपनों का उजला महल दिखलाते हैं…फिर उनके हुस्न को अपने आनन्द का दंश देते हैं…लगातार उनके शरीर का कर संहार उनको मनोभ्रंश देते हैं…कोई स्कूल की अबोध को लॉलीपॉप थमाता है…फिर उसको दर्द का दावानल दे जाता है…ये सारी घटनाएं आम हो गई है…लगता है कलियुग में इंसानियत जाम हो गई है…बदनीयत से लज्जित करने वाली इन घटनाओं को रोकना होगा…दिखाई देती दुर्भावनाओं से मुख मोड़ने वालों को भी टोकना होगा…

कानून की बेड़ियां और सख्ती का अंजाम बने…पुलिस की बंदूकें भी ऐसे दुष्टों के सीने पर तने…तब जाकर कुछ तो बात बने…ऐसे निकृष्ट जनों की होली – दिवाली सलाखों में मने…जीवन का सुख छिनने वाला जीवन जीने लायक न रहे…यही पीड़ितों की दबी छुपी भावना होगी जिन्होंने इनके दिए कष्ट सहे।