भाजपा झारखंड में नहीं कर पाई कमाल,संवाद के अभाव में डूबी नैया

झारखंड़ चुनाव में बीजेपी की हार का बड़ा कारण बुथ स्तर तक ना पहुंच पाना है। बीजेपी स्थानिय कार्यकर्ताओं से संवाद के दांवे तो बहुत करती है लेकिन झारखंड में स्थानिय नेतृत्व अपनी समस्या को किसे सुनाए ऐसा प्रदेश स्तरीय नेतृत्व उन्हें नहीं मिला यहां पर प्रचार प्रसार के लिए केन्द्रिय नेतृत्व को भेजा गया जो यहां के स्थानिय संगठन और कार्यकर्ताओं को साधने में समर्थ नहीं रहा क्योकि स्थानिय कार्यकर्ताओं ने केन्द्रिय नेतृत्व से छोटे-छोटे स्तर पर चर्चा करना उचित नहीं समझा। इसके साध ही बागी उम्मीदवारों ने भी झारखंड़ में कोई काम नहीं किया वहीं अपनों का साथ ना मिलने से बीजेपी की झारखंड में नैया डूब गई।

चार मुख्यमंत्री का नहीं मिला अनुभव

झारखंड़ में भाजपा के चार पूर्व मुख्यमंत्री थे। जिनमें बाबूलाल मरांडी के सहित चंपई सोरेन, अर्जुन मुंडा और मधु कोडा शामिल थे। लेकिन बाबूलाल मरांडी और चंपई सोरेन स्वयं चुनाव लड़ने में व्यस्त हो गए। वहीं अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा और मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा भी चुनाव लड़ रही थी। वहीं रघुवर दास की बहू पूर्णिमा दास भी जमशेदपुर पूर्वी से चुनाव लड़ने पहुंच गई।इस तरह स्थानिय प्रदेश नेतृत्व झारखंड चुनाव से दूर ही रहा। स्वयं के हित साधने वह पार्टी हित भूल गए जिसके चलते कार्यकर्ताओं का उत्साह खत्म हो गया।

केन्द्रिय नेतृत्व से कार्यकर्ताओं ने बनाई दूरी

झारखंड में चुनाव की बागडौर संभालने के लिए असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा और केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को उतारा तो गया। यहा दोनो नेतृत्व सामने रह कर रहकर चुनाव का नेतृत्व तो कर रहे थे लेकिन इस दौरान उनका कार्यकर्ताओं से संवाद नहीं हुआ। ना ही दोनो केन्द्रिय नेतृत्व ने बुथ स्तर तक पहुंचते हुए कार्यकर्ताओं की समस्याओं नहीं जाना। स्थानीय और प्रदेश नेतृत्व के पीछे रहने से कार्यकर्ताओं में संवाद का अभाव रहा। वहीं केंद्र से आए नेताओं का बड़े कद ने कार्यकर्ताओं को उनसे मिलने से रोक दिया।

बागी ने बिगाड़ा गणित

झारखंड में विधानसभी सीट से टिकट नहीं मिलने पर कई लोगों ने बागी तेवर कर लिए जिससे यहां पर कार्यकर्ताओं में असंतोष रहा। कार्यकर्ताओं का उत्साह कम करने में सभी ने अहम भूमिका निभाई जिसके चलते झारखंड़ में हार का सामना करना पड़ा। वहीं इसकों लेकर चुनाव प्रभारी हिमंत बिस्व सरमा ने समझाइश दी लेकिन ऐसे कार्यकर्ता पूरी तरह से चुनाव में नहीं लगे। इस वजह से स्थानीय कार्यकर्ताओं में आपसी सामंजस्य नहीं हो पाया जिसके चलते भाजपा को इतनी बड़ी हार का सामना करना पड़ा।