महाराष्ट्र की राजनीति में एक सूर्योदय 1960 में हुआ। राजनीति में एक नई पार्टी के उदय ने पूरे महाराष्ट्र में अपना डंका बजा दिया. यह वहीं पार्टी थी जिसने सबसे पहले हिंदूत्व के मुद्दे को राजनीति में उठाया और इसका नतीजा यह निकला की देशभर में हिंदूत्व की लहर चल पड़ी। राजनीति के उस सूर्य का नाम था बाला साहब ठाकरें, जिन्होने मराठा समाज के लिए दहाड़ मारी और मराठा समाज का महाराष्ट्र में डंका बजा दिया। बाला साहब ठाकरे के नाम से आज भी शायद कोई ऐसा महाराष्ट्रवासी होगा जो अवगत ना हो। बाला साहब ठाकरे की वर्षो की मेहनत के बाद वर्चस्व में आई शिवसेना वर्तमान में अपना अस्तित्व बचाने का प्रयास कर रही है। महाराष्ट्र में जिस तरह से मराठा वोट ने शिवसेना को छोड़ बीजेपी का दामन थामा है उससे जाहिर है कि अब महाराष्ट्र में मोदी का जादू चल रहा है। महाराष्ट्र चुनाव में एक है तो सेफ है का नारा काम कर गया और बीजेपी को रिकॉड तोड़ सफलता मिली है। जिसका नतीजा यह भी रहा कि यहां पर महायूति गठबंधन में अब शिवसेना अपना अस्तित्व बचा कर महाराष्ट्र में अपना रूतबा कायम रखने का प्रयास कर रही है। यही कारण है कि महाराष्ट्र चुनाव के बाद अब मुख्यमंत्री पद के लिए घमासान चल रहा है।
जिसकी होगी सीट ज्यादा वह बनेगा मुख्यमंत्री
वर्तमान में जहां शिवसेना का अस्तित्व बचानें में जुटे एकनाथ शिंदे यह बयान दे रहे है कि गठबंधन में एक पार्टी की सीट ज्यादा आने का मतलब यह नहीं होता कि वहीं पार्टी का चेहरा मुख्यमंत्री बनेगा। लेकिन शायद एकनाथ शिंदे यह भूल गए कि बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन ही इस शर्त पर हुआ था कि बीजेपी- शिवसेना में जिसकी सीटें अधिक होगी वह मुख्यमंत्री बनेगा। यह बात सन 1995 के विधानसभा चुनाव के पहले ही बाला साहब ठाकरें ने कही थी। 1995 के विधानसभा चुनावों में महाराष्ट्र की सत्ता का परिवर्तन हुआ था । यहां पर पहली बार सन 1995 में कांग्रेस के हाथ से महाराष्ट्र की सत्ता निकल गई थी। पहली बार महाराष्ट्र में गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में शिवसेना बीजेपी गठबंधन वाली शिवशाही सरकार अस्तित्व में आई थी। शिवसेना ने 73 सीटों पर जीत दर्ज की थी। बीजेपी के खाते में 65 सीटें आईं। वहीं चुनाव से पहले ही बालासाहेब ठाकरे ने तय कर दिया था कि जिस पार्टी की सीट अधिक होंगी, मुख्यमंत्री उसी का होगा।
कार्टुनिस्ट से शिवसेना की दहाड़ तक
शिवसेना के स्थापक बाला साहब ठाकरे शिवसेना के गठन से पहले एक अंग्रेजी अखबार में कार्टूनिस्ट थे। तब साल 1960 में उन्होंने अखबार छोड़ दिया था। उसके बाद सन 1966 में उन्होने शिवसेना का गठन किया। पार्टी को शिवसेना का नाम बाला साहेब ठाकरे के पिता केशव सीताराम ठाकरे ने दिया था। शिवसेना का अर्थ शिवाजी महाराज की सेना से है। बाल ठाकरे की विचारधारा कट्टर हिंदुत्व की थी। बीजेपी से गठबंधन की भी यही एकमात्र वजह भी थी। अपनी विचारधारा की वजह से शिवसेना न केवल महाराष्ट्र बल्कि भारतीय राजनीति का अहम दल बन गया। मुंबई में महाराष्ट्र के लोगों को नौकरी में अधिक अवसर देने की मांग से उपजा यह सियासी दल बाद में उग्र हिंदुत्ववादी राजनीति का सिरमौर बना।
लोकल ताकत बन गई थी शिवसेना
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में मराठी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए बालासाहेब ने 1966 में शिवसेना का गठन किया था । 1967 में शिवसेना ने पहला चुनाव ठाणे नगरपालिका का लड़ा और वहां 17 सीटें जीती थी। 1968 में मुंबई नगर पालिक का चुनाव लड़ा और वहां 42 सीटें जीतीं। इसके बाद लगातार शिवसेना मुंबई और ठाणे की लोकल राजनीति में एक ताकत बनी गई।
शिवसेना की ताकत से बीजेपी हुई प्रभावित
शिवसेना की स्थापना के 14 साल बाद 1980 में बीजेपी का उदय हुआ था। 1984 में बीजेपी ने मुंबई में शिवसेना की ताकत का प्रयोग अपनी पार्टी को स्थायित्व देने के लिए किया था। तब बीजेपी ने शिवसेना से गठबंधन किया। इस गठबंधन को वैचारिक मजबूती देने का काम हिंदुत्ववादी सोच ने दिया था । हिंदुत्ववादी सोच फायदा दोनों पार्टी को हुआ। जिसका नतीजा यह रहा कि 1985 में शिवसेना ने पहली बार मुंबई महानगरपालिका पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए कब्जा कर लिया।
1990 की रथयात्रा ने किया राजनीतिक ध्रुवीकरण
1990 में बीजेपी के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली। इस रथयात्रा ने पूरे देश में एक नया राजनीतिक ध्रुवीकरण किया। हिंदुत्व के मुद्दे पर राजनीतिक ध्रुवीकरण के बीच 1990 का महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव शिवसेना- बीजेपी ने मिलकर लड़ा और जीत हासिल की। शिवसेना के मनोहर जोशी महाराष्ट्र विधानसभा में नेता विपक्ष बनाए गए। इस बीच मंडल आयोग की रिपोर्ट आई। बालासाहेब ठाकरे ने इसका विरोध किया। मगर उनके करीबी छगन भुजबल को यह पसंद नहीं आया, उन्होंने बगावत कर दी। भुजबल के साथ शिवसेना के 18 विधायक टूटे। भुजबल की बगावत से शिवसेना विधायकों की संख्या घटी तो विधानसभा का नेता प्रतिपक्ष का पद बीजेपी के खाते में चला गया।
1995 में हिदूत्व के दम पर छा गई शिवसेना
मुंबई में 1992 के दंगे और 1993 के बम ब्लास्ट के बाद 1995 के विधानसभा चुनाव ने महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन करा दिया। उस समय पूरे देश में हिदुत्व का मुद्दा छा गया था और देश का हिंदू अब कांग्रेस की बजाय बीजेपी और शिवसेना को सत्ता में देखन का सपना देखते हुए वोट कर रही थी जिसका परिणाम यह रहा कि 1995 के चुनाव में बीजेपी- शिवसेना गठबंधन ने चुनाव लड़ा और शिवसेना के मनोहर जोशी और नारायणे राणे इस दौरान मुख्यमंत्री बने। यह सरकार 1999 तक चली।
1999 में हुई एनसीपी की इंट्री
1990 के दशक में कांग्रेस राजनीति में अपना आधिपत्य खोने लगी। उस दौरान ही 1998 में सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा गरमा गया और इसी मुद्दे पर शरद पंवार ने कांग्रेस छोड़ दी। अजीत पंवार ने भी 1999 में अपनी नई पार्टी एनसीपी का बना ली। तब शरद पवार ने कांग्रेस के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ा और शिवसेना बीजेपी की सत्ता को उखाड़ कर महाराष्ट्र में एक बार फिर कांग्रेस की सत्ता स्थापित करवा दिया।
15 साल सत्ता से दूर रही शिवसेना
एनसीपी की इंट्री ने महाराष्ट्र की सत्ता से शिवसेना बीजेपी को 15 साल तक दूर रखा। वहीं राज्य की सत्ता पर कांग्रेस और एनसीपी काबिज रही। शरद पवार केंद्र में कांग्रेस की यूपीए सरकार में मंत्री बने रहे। महाराष्ट्र पर भी उनकी पकड़ मजबूत बनी रही।
2012 में बाला साहब ठाकरे ने दुनिया से ली विदाई
2012 में शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे का निधन हो गया। इसके बाद उद्धव के साथ शिवसेना के बीजेपी के रिश्तों में दरार आ गई। तभी बीजेपी में भी मुंडे-महाजन और अटल-आडवाणी वाला समय लगभग बीत चुका था। बीजेपी का नया नेतृत्व हुंकार भर रहा था। बीजेपी का नया नेतृत्व हर बात के लिए मातोश्री जाना अपनी तौहीन समझ रहा था। वह शिवसेना को बड़ा भाई मानने के बजाए अपनी दम पर कुलांचे भरना चाहता था।
खत्म हो गए रिश्ते
शिवसेना और बीजेपी के बीच रिश्तों में तनाव आने लगा। जिससे दोनों पार्टियों के बीच सीटों का बंटवारां करने की बात चल पड़ी। वहीं सीटों की लड़ाई में उद्धव ठाकरे को बीजेपी ने अपनी ताकत दिखाने का ठान लिया और शिवसेना से अपना गठबंधन तोड़ लिया।
2014 से हुई दो फाड़ में बीजेपी- शिवसेना
2014 में शिवसेना और बीजेपी ने अपने-अपने दम खम पर चुनाव लड़ा। जहां महाराष्ट्र में शिवसेना के ढलने के दिन आ गए थे वहीं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार केंद्र में बन चुकी थी। मोदी लहर का बोलबाला था। इसका फायदा महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़ने पर बीजेपी को हुआ। बीजेपी के 122 विधायक चुनकर आए, लेकिन बहुमत नहीं मिला। शिवसेना के 63 विधायक जीते थे इसलिए बहुमत बनाने और सरकार में आने के लिए बीजेपी को वापस शिवसेना के पास जाना पड़ा। जो अब हिदुत्व के मुद्दे से दूर सत्ता का जोड़ बन कर खड़ी थी।
ढ़ाई साल के मुख्यमंत्री पर उलझ गई शिवसेना
2019 के चुनाव के बाद बीजेपी ने केंद्र में शिवसेना को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नही दिया। अपनी अनदेखी करने पर शिवसेना के उद्धव ठाकरे ने ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद बांटने का मुद्दा उठाया। उनका दावा था कि चुनाव से पहले बीजेपी नेता अमित शाह ने सत्ता के समान बंटवारे के तहत ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद शिवसेना को देने का वादा किया था। लेकिन बीजेपी ने कहा कि ऐसा कोई वादा नहीं किया। 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के 105 और शिवसेना ने 56 विधायक जीते थे, लेकिन मुख्यमंत्री पद के मुद्दे पर शिवसेना बीजेपी ऐसे उलझे की पर्याप्त बहुमत होने के बाद भी सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया।
शिवसेना छोड़ एससीपी से जूड़ी बीजेपी
2019 में बीजेपी द्वारा जब ढाई ढाई साल मुख्यमंत्री पद बांटने से इनकार कर दिया तब उद्धव ने बीजेपी का साथ छोड़, नया साथ खोजने की कोशीश की। इसी बीच महाराष्ट्र में सत्ता न बनते देख राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। फिर एक दिन अचानक महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हट जाता है और 23 नवंबर 2019 को अजित पवार ने देवेंद्र फडणवीस के साथ शपथ ली वहीं बीजेपी ने उद्धव को छोड़ एनसीपी के साथ सरकार बना ली। अगर फडणवीस और अजित पवार की सरकार पांच साल चल गई होती, तो महाराष्ट्र की राजनीति में इतनी महाभारत नहीं होती जितनी पिछले पांच साल में हुई। लेकिन शरद पवार के विरोध के कारण तीन दिन में ही अजित पवार को वापस आना पड़ा।
सत्ता की चाहत ने बना दिया महा विकास आघाड़ी
तीन दिन में सरकार गिरा देने वाले शरद पवार पर महाराष्ट्र को वैकल्पिक सरकार देने का नैतिक और राजनीतिक दबाव था, वरना फिर से महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ता। लेकिन अब तीसरा विकल्प था शिवसेना के 56, शरद पवार के 54 और कांग्रेस के 44 विधायक साथ आकर बहुमत की सरकार बनाएं। लेकिन कांग्रेस को शिवसेना के साथ और शिवसेना को कांग्रेस के साथ सत्ता में लाना बहुत मुश्किल काम था। यह काम सिर्फ शरद पवार कर सकते थे। कांग्रेस और उद्धव को भी हर हाल में सत्ता की चाहत थी। जिसके चलते महा विकास आघाड़ी अस्तित्व में आई।
2019 की महा विकास अघाड़ी में भी घमासान
महा विकास आघाड़ी बन तो गई थी। लेकिन इस सरकार का मुखिया कौन होगा, इसको लेकर बात बिगड़ सकती थी। ऐसे में शरद पवार ने सबसे ज्यादा विधाय 56 विधायकों वाली शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने का दांव खेला। शिवसेना से सिर्फ 2 कम यानी 54 विधायकों वाली एनसीपी को उपमुख्यमंत्री और 44 विधायकों वाली कांग्रेस को कई महत्वपूर्ण मंत्रालय दिए गए।
शिवसेना को तोड़ सीए बने एकनाथ
2022 में फिर शुरू हुआ उद्धव ठाकरे सरकार को गिराने का खेल। इस खेल के नायक शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे बने। शिंदे न सिर्फ 40 विधायकों के साथ पहले सूरत फिर गुवाहाटी चले गए। शिंदे ने बीजेपी के सहयोग से बगावत कर उद्धव ठाकरे की न सिर्फ सरकार गिराई बल्कि उद्धव से शिवसेना पार्टी का नाम, चुनाव चिह्न भी छीन लिया। इसी तरह शरद पवार की एनसीपी भी टूट गई। शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने बगावत की और पार्टी के 38 विधायकों के साथ बीजेपी सरकार में शामिल हो गए। अपने साथ शरद पवार की पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न भी ले गए।
2024 के नतीजों ने फिर चौंकाया
2024 के चुनाव में बीजेपी ने भी महायुति गठबंधन बन कर चुनाव लड़ा जिसमें महायुति गठबंधन में शामिल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 132 , एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने 57 और अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 41 सीटें जीती हैं. यानी महायुति ने कुल 230 सीटें हासिल कर सत्ता में धमाकेदार वापसी की है।
अब क्या फिर टुटेगी शिवसेना-बीजेपी!
2024 के चुनाव में महाराष्ट्र की जनता ने भी शिवसेना का दाम छोड़ने की शुरूआत कर दी है। इसके साथ ही एकनाथ शिंदे की शिवसेना का सिर्फ 57 सीटें ही मिली जबकि अजित पवार के पास 41 सीटें है वहीं सबसे अधिक सीटें बीजेपी के पास132 सीटें है ऐसे में यदि महाराष्ट्र का हमेशा का सिंद्धात चलता है तो बीजेपी का मुख्यमंत्री बनना चाहिए। लेकिन एकनाथ शिंदे और अजीत पवार भी सीएम बनने की चाह रख रहे है। वहीं शिवसेना सिर्फ अपनी 57 सीटों के दम पर फिलहाल बीजेपी को आंख दिखाने की स्थिति में नहीं यदि बीजेपी ने शिवसेना से गठबंधन तोड कर सिर्फ एनसीपी के साथ गठबंधन पर ही सरकार बनाई तो वह बना सकते है। अब देखना है कि शिवसेना स्वयं को सत्ता से जोड़े रखने के लिए सीएम पद से समझौता करती है या फिर सशक्त बन चुकी बीजेपी से अलग हो कर अपना अस्तित्व खो देगी। यह तो आगामी समय में ही तय होगा लेकिन यदि अब एकनाथ शिंदें को सीएम पद का समझौता ही करना पड़ेगा या बीजेपी दरियादिली दिखा कर एक बार फिर एकनाथ शिंदे को सीएम बनाएंगी