economic recession की आहट महसूस कीजिए…

सुबीर रॉय

economic recession : लगता है भारतीय अर्थव्यवस्था धीमी गति से नीचे की ओर जा रही है- 2024-25 में आर्थिक वृद्धि दर 7 प्रतिशत रहने के पिछले अनुमान की बनिस्बत अब इसे 6.4 प्रतिशत बताया जा रहा है। बहुत से वैश्विक विश्लेषकों का कहना है कि अगले वित्तीय वर्ष में भी रफ्तार यही बनी रहने की उम्मीद है। स्पष्ट है हमारी अर्थव्यवस्था स्पष्ट रूप से शिथिलता की ओर जा रही है।

economic recession अभी स्थायित्व वाले स्तर पर

यद्यपि धीमी चाल पर भी, भारतीय अर्थव्यवस्था की गति अधिकांश अन्य बड़े देशों की तुलना में अधिक रहेगी। तभी तो, इस आर्थिक मंदी ( economic recession ) से नेतृत्व को इतनी चिंता नहीं हो रही है क्योंकि यह अभी भी स्थायित्व वाले स्तर पर बनी रहेगी। लेकिन मंदी का कारण और उसका उपाय खोजना महत्वपूर्ण है क्योंकि लोगों का एक बड़ा वर्ग अभी भी बहुत गरीब है। इससे भी खराब यह कि अमीर-गरीब की आय में बहुत अंतर है, केवल एक छोटा वर्ग ही देश की उच्च अर्थव्यवस्था के फल का लाभ उठा रहा है। वर्ष 2022-23 में, भारत की सकल राष्ट्रीय आय का 22.6 प्रतिशत अंश आबादी के शीर्ष एक फीसदी अमीरों के हाथ गया। इसके अलावा, ग्रामीण-शहरी अंतर भी है। ग्रामीण भारत में जरूरत की चीज़ों पर खर्च प्रति व्यक्ति 3,773 रुपये था, जबकि शहरी भारत में यह 6,459 रुपये रहा। इस प्रकार, अर्थव्यवस्था में शहरी उपभोग का ही अधिक महत्व है। मंदी का मुख्य कारण अपर्याप्त क्रय-शक्ति है। शहरी मध्यम वर्ग पर यह कारक विशेष रूप से लागू है, जो कि समग्र मांग का मुख्य प्रेरक है। इसके परिणामस्वरूप उपभोग आधारित उत्पादक कारोबार में सुस्ती आएगी। ये पूरे वेग से आगे नहीं बढ़ पाएंगे। लिहाजा, कंपनियां कम कर्मचारियों को काम पर रखेंगी। इससे मांग में आगे कमी बनेगी और सकल उपभोग में मंदी बढ़ेगी। ग्रामीण भारत में, स्थिति और भी बदतर है। आजीविका चलाने के लिए, पुरुषों की कमाई अपर्याप्त होने के चलते गांवों के परिवारों की महिलाओं को काम करना पड़ता है। लेकिन, वास्तव में, यह महिलाएं किसी कंपनी या कारखाने में नहीं, बल्कि खेतों में काम कर रही हैं। इसलिए, एक फैक्टरी मजदूर जितनी आय भी उनकी नहीं है।
उच्च विकास दर दो ताकतों- विनिर्माण और सेवाओं के बढऩे से बनती है। लेकिन जैसा कि पहले बताया गया है, अब तक मजबूत रहे विनिर्माण क्षेत्र में भी मंदी जारी है। अगर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं खेतों में काम की बजाय कारखानों में जातीं, तो व्यापक आधार पर विकास होता। उद्योगों एवं सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में बहुत अधिक पूंजी निवेश होने से ही उच्च विकास दर संभव हुई थी, इसमें भी, आधारभूत ढांचे में यह वृद्धि अधिक सार्वजनिक निवेश के माध्यम से संभव हुई थी।
बेहतर सडक़ें, बिजली और रेलवे तंत्र ने उद्योग जगत को आशावादी महसूस करवाया और अधिक विकास हुआ। इससे कार, ट्रक और दोपहिया वाहनों के बाजार में काफी उछाल आया। इसके परिणाम में मध्यम वर्ग के उपभोग व्यय में इजाफा हुआ, खासकर शहरी क्षेत्रों में। किंतु आज यह कारखाने, जो कि ज्यादातर तेजी से बिकने वाले उपभोग के सामान का उत्पादन करते हैं, सुस्त हो रहे हैं। इसलिए, जिस सपने का हम इंतजार कर रहे थे- ग्रामीण क्षेत्रों की अधिक महिलाओं का शहरी क्षेत्रों में कंपनी-कारखानों में अधिक नौकरियां करना- वह फीका पड़ चल रहा है। अब, सेवा क्षेत्र पर नज़र डालते हैं, जो उच्च विकास की अवधि के दौरान अत्यधिक मजबूत बनती चली गयी थी। मजबूत खपत ने कारों, दोपहिया वाहनों, टीवी सेट आदि को ठीक करने वालों के लिए अधिक रोजगार का सृजन किया। जैसे-जैसे विनिर्माण में कमी आएगी, सेवा क्षेत्र की उच्च विकास दर में भी मंदी आने की संभावना है।
अब बात करने को बचा हमारा निर्यात सेवा क्षेत्र, जो सॉफ्टवेयर इंजीनियरों के कौशल का पर्याय है, और अब यह कृत्रिम बुद्धिमत्ता विकसित करते हुए और ऊपरी स्तर छू रहा है। लेकिन यहां भी, एक नकारात्मक प्रभाव आड़े आ रहा है- विदेशी ग्राहक कंपनियां अब आसपास के लोगों से काम लेने को तरजीह देने लगी हैं। विकसित अर्थव्यवस्थाएं आव्रजन के मामले में सख्त होती जा रही हैं, अग्रणी भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए निकटवर्ती क्षेत्र में काम तलाशे जाने की ज़रूरत बढ़ेगी। विकसित देशों की कंपनियां स्थानीय प्रतिभा को काम देकर अपना खुद का मानव विकास केंद्र बनाना चाहती हैं।उज्ज्वल संकेत यह है कि विकसित देशों की बड़ी कंपनियां भारत में अधिक से अधिक उच्च परिष्कृत वैश्विक विकास केंद्र स्थापित कर रही हैं, जिससे उच्च-स्तरीय इंजीनियरिंग नौकरियों का सृजन हो रहा है। यह कुशल भारतीयों के लिए बहुत अच्छी खबर है, लेकिन इनकी कुल संख्या कम है। इन कंपनियों और राष्ट्र द्वारा सेवाओं का निर्यात एक हकीकत है, लेकिन राष्ट्रीय विकास पर इनका कुल प्रभाव न्यूनतम है। धीमी पड़ती आर्थिक वृद्धि और चुनावों की अनिवार्यताओं के मद्देनजर, सरकार ने महिलाओं को नकद अनुदान देने का फैसला किया है। भले ही यह महिला आधारित अर्थव्यवस्था और उपभोग के लिए मांग को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक हो, लेकिन यह एक स्थायी आर्थिक समाधान नहीं है।
शुरुआत करने का सही तरीका कृषि में सुधार करना है। इससे कृषि उत्पादकता बढ़ेगी और कृषि से आय में इजाफा होगा। इससे ग्रामीण क्षेत्र में खपत बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था को लाभ होगा। लेकिन अधिक मशीनीकरण, बेहतर बीज और कृषि पद्धतियों की वजह से कम खेतिहर मजदूरों की आवश्यकता होगी। खेत मजदूरों को कारखानों, निर्माण और शहरी सेवा के माध्यम से शहरी इलाके में रोजगार मिले, ताकि नगरपालिकाएं इन्हें शहरी सूखे कचरे के निपटान जैसी सेवाओं में करने को तैनात कर सकें। लेकिन मुख्य मुद्दा यह है कि कारखाना मालिक को अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने और नई फैक्टरियां लगाने की आवश्यकता कैसे महसूस हो।
इसलिए, काफी जरूरत इस बात की है कि भारतीय रिजर्व बैंक ब्याज दरें कम करने और मुद्रा आपूर्ति बढ़ाने के लिए तैयार हो। जाहिर है इसमें मुद्रास्फीति में उछाल का जोखिम रहेगा। अभी के लिए, उम्मीद है कि खरीफ की फसल के विपरीत, जो कि आंशिक रूप से निराश करने वाली रही, रबी की फसल बढिय़ा होगी। मुद्रा का अधिक प्रवाह आपूर्ति कारखानों के माल की मांग बढ़ाएगी, जिससे आस बनेगी कि वे अपनी मशीनरी का विस्तार करेंगे और नए संयंत्र स्थापित करेंगे। इससे पूंजीगत वस्तुओं की मांग बढ़ेगी। सरकार द्वारा किए वित्तीय उपायों से, अधिक कीमत वाली वस्तुओं की मांग बढ़ेगी, अधिक रोजगार सृजन होगा, अधिक सडक़ें, पुल और बेहतर कार्यशील रेलवे बन पाएंगे।
अंत में जो भी हो, आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की आवश्यकता है ताकि उच्च मांग से गरीबी में कमी और मध्यम वर्ग की संख्या में वृद्धि हो पाए। लेकिन इस पूरे परिदृश्य में एक पेंच है। अगर जलवायु परिस्थितियां हमें निराश करती हैं, जिससे सूखा, बाढ़ और बेमौसम बारिश बढ़ती फसलों को नुकसान पहुंचे, तो यह सब बेकार चला जाएगा। अगर ऐसा होता है, तो उम्मीद है कि सरकार को अहसास होगा कि कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों को स्थापित करना लंबे समय में विनाशकारी है और इसलिए वह सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं पर अधिक ध्यान देगी। यही मुक्ति का मार्ग है।
( लेखक आर्थिक मामलों के वरिष्ठ विश्लेषक हैं )