डोनाल्ड ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी के साथ ही अमेरिका की विदेश नीति में बदलाव के संकेत स्पष्ट हो गए हैं। यूरोप के बड़े नेताओं को ट्रंप के शपथ समारोह में आमंत्रित नहीं किया गया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर, जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज़, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और NATO प्रमुख मार्क रूटे समेत कई प्रमुख नेता कार्यक्रम से नदारद रहे। यह ट्रंप की प्राथमिकताओं में बदलाव और यूरोप से उनकी दूरी को स्पष्ट करता है।
NATO के भविष्य पर सवाल
डोनाल्ड ट्रंप लंबे समय से NATO की भूमिका और उसकी फंडिंग पर सवाल उठाते रहे हैं। उन्होंने शर्त रखी थी कि हर सदस्य देश को अपनी GDP का कम से कम 2% रक्षा बजट पर खर्च करना होगा। फिलहाल केवल ग्रीस, एस्टोनिया, यूनाइटेड किंगडम, और पोलैंड ही इस शर्त को पूरा करते हैं। यूरोप के बाकी देश इस मानक से काफी पीछे हैं, जिससे NATO की मजबूती पर सवाल खड़े हो गए हैं।
रूस से बढ़ता तनाव और यूरोप की तैयारी
यूरोप को अब अमेरिका की मदद के बिना रूस का सामना करना पड़ सकता है। कई यूरोपीय देश यूक्रेन को हथियार आपूर्ति जारी रखते हुए रूस को उलझाए रखने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। वहीं, रूस ने भी दबाव बनाने के लिए अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं। पुर्तगाल के पास एक रूसी जहाज को ट्रेस किया गया, जिसे समुद्र में इंटरनेट केबल काटने के लिए भेजा गया था।
यूरोप की आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम
बदलते हालात ने यूरोप को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया है। यूरोपीय देशों ने अपनी सुरक्षा और रक्षा नीति को मजबूत करने का संकल्प लिया है। ट्रंप की “अमेरिका फर्स्ट” नीति ने यूरोप को यह एहसास दिलाया है कि उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए स्वयं कदम उठाने होंगे।
क्या NATO का अस्तित्व खतरे में है?
डोनाल्ड ट्रंप की वापसी और रूस के आक्रामक रुख ने NATO के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। यूरोपीय देशों को अब एक नई रणनीति बनानी होगी। सवाल यह है कि क्या NATO अपनी एकता को बनाए रख पाएगा, या यह संगठन भी सोवियत संघ की तरह खंड-खंड हो जाएगा?