पिछले 75 साल के अक्षरज्ञान ने इतना ज़ाहिल बना दिया है कि हमें ख़ुद को मूरख बना दिये जाने का अहसास होना ही बन्द गया है बल्कि हम उस मूरख बनाये जाने को सेलिब्रेट कर रहे हैं। हमने धरम के बारे में एक लाईन रट्ट ली है पहले हमारे यहाँ वेदिक धरम था अब उसको पोल्लुटेड कर दिया है और नया धरम बना दिया पाखण्ड वाला।
जबकि आज तक भी किसी ने ये नहीं लिखा कि ये वेदिक में इंग्रेडींएनट्स क्या थे?
आज भी कोई वेद का जनता की समझ आने वाली बोली में सही अनुवाद आ नहीं पाया पर वेद ज्ञान का ख़ज़ाना थे ये लाईन हमने रट्ट रखी है परंतु वेद हमारे ऐसे धरम ग्रन्थ हैं जिन्हें हम ख़ुद ही समझ पढ़ नहीं सकते। दूसरी कहानी आयी शिलालेख़ो की ,अब शिलालेख में क्या लिखा था हमें पढ़ना नहीं आया ,थाईलेंड जापान से लोग आये उन्होंने पढ़ा। परन्तु उन शिलालेखों को आधार मान कर इतिहास लिख दिया जो हम खुद समझ नहीं पाते।
मतलब ये कि दुनिया की हम लोग एकमात्र इनसानी प्रजाति हैं जिनसे खुद के तथाकथित धरम ग्रन्थ पढ़े नहीं जा सकते बस गर्व किया जा सकता है, और हम ही एकमात्र प्रजाति हैं जिनको शिलालेख पढ़ने नहीं आते पर वो हमें हमारे पूराने अतीत की याद दिलाते हैं।
हमारे यहाँ ज़मीन से ऐसी मूर्तियाँ निकलती हैं जिनकी कोई प्रासंगिकता हमारे दैनिक सामाजिक जीवन में नहीं है परंतु उन मूर्तियों के निकलते ही उन्हें हमारे तथाकथित पूराने धरम की घोषित कर दी जाती हैं जैसे पहले तो हमारे बुज़ुर्ग धरती में ड्रिल करके उन्हें पूजते थे फ़िर ड्रिल technologies अंगरेज़ चोर ले गये।
इससे भी आगे है कि हमारे तथाकथित वेदिक धरम के ख़िलाफ़ किसी बुद्ध या महावीर ने किरांति भी कर दी ,फ़िर उस किरांति के बारे में और आगे पढ़ो तो लिख दिया कि उनसे पहले भी 23 किरांतिकारी हुए थे, अब ये पता नहीं चलता कि पहले 23 की किरांति असली किरांति की तरह कुआलिफ़ाई क्यूँ नहीं कर पायी और 24 वे ने ऐसा क्या थरेसहोल्ड पार कर दिया था कि किरांति हो गयी।और चारों तरफ़ बुद्ध की मूर्तियाँ ही मूर्तियाँ हो गयी।
फ़िर दुबारा से ईस महावीर बुद्ध वाली किरांति के ख़िलाफ़ प्रतिकिरांति हुई तो सभी लोग वेदों को छोड़ कर बुद्ध की मूर्ती जैसी थाईलेंड के रज़ाओं लोव मूर्तियाँ पूजने लगे। भाई जब बुद्ध की मूर्तियों जैसी मूर्तियाँ ही पूजनी थी तो नयी किरांति क्यूँ लिखा बेहतर रहता कि फेशन अपग्रेडेशन लिख देते कि पहले नंगी मूर्तियाँ से फ़िर साधारण कपड़ों वाली मूर्तियों से हमने हीरे जवाहरात पहनी हुई मूर्तियों को पूजने की और बढ़े हैं। थोड़ी कोंटिनुएटी भी रहती।
सबसे बड़ा मज़ाक़ तो यह हुआ कि बिना मूर्ती वाले बेद से मूर्ती वाले जेनिस्म या बुद्धिसम की किरांति के ख़िलाफ़ किरांति में हमने मूर्तियाँ तोड़ी नहीं बल्कि उन्हें और फेशनेबल बना दिया और मन्दिर में वेदपाठ को हमेशा के लिये बन्द करवा दिया।
ईस सारी बात क़ा जिस्ट यह है कि हमें ना अपने धरम क़ा कुछ पता है ना उसके इतिहास क़ा हमें अंगरेजो ने बोल दिया कि ऐसी किरांति हुई हम मान करछाती पीटने लगे और चूँकि कुछ लोगों ने छोटी सलवार पहन ली इसलिये इस छाती पीटने को हमने अपनी पहचान मान लिया।