भारत में कुल 3745 MLA, 426 MLC, 545+245 MP और 7256 प्रखंड प्रमुख एवं 2.5 लाख मुखिया/सरपंच हैं। इन जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते और पेंशन पर प्रत्येक 5 साल में 4500 करोड़ रुपये से ऊपर खर्च होते हैं। इस खर्च का मुख्य कारण संसाधनों का लूटतंत्र है, जिसमें विदेश से आयी मुद्रा का उपयोग जनप्रतिनिधियों की मौज-मस्ती में किया जाता है। यह एक प्रणाली नहीं, बल्कि एक सुनियोजित लूटतंत्र बन चुका है। इसी लूटतंत्र को बचाने के लिए किसानों और मध्यमवर्गीय लोगों की मांगों को मीडिया मैनेजमेंट के जरिए दबाया जाता है।
संविधान अधिवक्ताओं को राज्य के विरुद्ध जनहित की आवाज उठाने का कानूनी अधिकार प्रदान करता है। इसी कारण से, अधिवक्ताओं की आवाज को दबाने के लिए ‘अधिवक्ता संशोधन विधेयक 2025’ लाया गया है, जो अधिवक्ताओं की परिभाषा में बदलाव करते हुए प्राइवेट संगठनों में कार्यरत लीगल प्रैक्टिशनर्स को भी ‘अधिवक्ता’ मानने का प्रावधान करता है।
विधेयक के सेक्शन 35 में अधिवक्ताओं पर 3 लाख तक के जुर्माने का प्रावधान रखा गया है और सेक्शन 35A में अधिवक्ताओं से कोर्ट के बहिष्कार का अधिकार छीनने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा, पूरे विधेयक में शब्दों की बाजीगरी की गई है ताकि अधिवक्ता न तो बेंच की मनमानी के खिलाफ आवाज उठा सकें और न ही जनहित के मुद्दों पर ज्यादा मुखर हो सकें। जबकि सांसद-विधायक खुद ही सदन का बहिष्कार करते हैं और अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से सरकार को जनहित के प्रति जिम्मेदार बनाए रखने का अधिकार रखते हैं।
‘बार’ ही एकमात्र संस्था है जो ‘We the People of India’ के प्रति नैतिक रूप से जिम्मेदार होती है। जनप्रतिनिधि, बार को नियंत्रित करके अधिनायकवादी तरीके से शासन करना चाहते हैं। इस तरह के विधेयक को किसी भी हाल में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही जनप्रतिनिधि अधिनियम 1950 में संशोधन करके अधिवक्ताओं को ‘जनप्रतिनिधि’ की परिभाषा में शामिल करने की मांग की जानी चाहिए। तभी शासन के तीनों अंगों के बीच शक्ति-संतुलन कायम हो सकता है।
डेमोक्रेसी में शासन के अंगों के मध्य शक्ति-संतुलन ही लोक अधिकारों को सुनिश्चित करता है। आज के दौर में यह आवश्यक है कि पुनः एक ‘संविधान सभा’ का गठन किया जाए और पूरे देश में 5000 इलेक्टोरल डिस्ट्रिक्ट का गठन करके सीधे तौर पर विकेंद्रित शासन एवं प्रेसिडेंशियल सिस्टम लाया जाए।
विभाष चंद्रा
आदि किसान रिसर्चर