संविधान के अनुच्छेद 142 पर टकराव! सरकार-विपक्ष में छिड़ी तीखी बहस

भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के हालिया बयान ने देश में एक नई संवैधानिक बहस को जन्म दे दिया है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 को लेकर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह प्रावधान लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ “न्यूक्लियर मिसाइल” बन गया है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। उनके इस बयान के बाद राजनीतिक हलकों में बहस छिड़ गई है और विपक्ष से तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं।

अनुच्छेद 142: सुप्रीम कोर्ट की ‘पूर्ण न्याय’ की शक्ति

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय (complete justice) सुनिश्चित करने के लिए किसी भी प्रकार का आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है, चाहे वह मौजूदा कानूनों से इतर ही क्यों न हो। यह शक्ति तब प्रयोग में लाई जाती है जब मौजूदा कानून किसी केस में न्याय देने के लिए पर्याप्त नहीं होते।

हालांकि, इस अनुच्छेद के तहत लिया गया कोई भी फैसला संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं होना चाहिए। कोर्ट ने अतीत में कई बार इसका उपयोग किया है. जैसे राम मंदिर विवाद, चंडीगढ़ मेयर चुनाव, आदि।

8 अप्रैल का फैसला: विवाद की शुरुआत

8 अप्रैल 2024 को सुप्रीम कोर्ट की एक दो सदस्यीय बेंच ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि राष्ट्रपति या राज्यपाल को किसी विधेयक पर तीन महीने में निर्णय लेना होगा। यह पहली बार था जब राष्ट्रपति के निर्णय की समयसीमा तय की गई। उपराष्ट्रपति धनखड़ ने इसी को लेकर आपत्ति जताई कि क्या कोर्ट को ऐसी समयसीमा तय करने का अधिकार है।

पॉकेट वीटो: राष्ट्रपति की विशेष शक्ति

अब तक, राष्ट्रपति को किसी विधेयक पर निर्णय लेने के लिए कोई समयसीमा नहीं थी। इस शक्ति को पॉकेट वीटो कहा जाता है, जो उन्हें अनिश्चितकाल तक निर्णय टालने की छूट देती है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद विशेषज्ञों का मानना है कि यह पॉकेट वीटो की शक्ति अब सीमित हो सकती है।

कुछ संविधान विशेषज्ञों का तर्क है कि राष्ट्रपति संविधान के संरक्षक होते हैं और उनकी शपथ भी संविधान की रक्षा करने की होती है, न कि केवल श्रद्धा रखने की। इसलिए उन्हें पॉकेट वीटो जैसी शक्ति देना संविधान का एक अभिन्न हिस्सा है।

क्या सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सीमा पार की?

कई विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान में संशोधन जैसा है, जबकि कोर्ट को केवल व्याख्या करने का अधिकार है, संशोधन करने का नहीं। सुप्रीम कोर्ट की ही 13 सदस्यीय पीठ ने केशवानंद भारती केस में साफ कहा था कि अदालत को संविधान में बदलाव का अधिकार नहीं है।