ब्राह्मणों की नाराजगी से सपा सरकार की मुश्किलें बढ़ीं

सपा सरकार : उत्तर प्रदेश की राजनीति में इन दिनों जातीय तनाव बढ़ गया है। इटावा के दांदरपुर गांव में यादव कथावाचकों के साथ मारपीट, सिर मुंडवाने और जाति पूछकर अपमान करने का आरोप ब्राह्मणों पर लगा है। समाजवादी पार्टी ने खुलकर पीड़ित यादवों का समर्थन किया है। अखिलेश यादव ने इसे धार्मिक अपमान बताया और तीखा बयान दिया। इसके बाद यादव संगठनों ने ब्राह्मणों के खिलाफ विरोध शुरू कर दिया है। अब सवाल उठ रहा है कि यह जातीय विवाद सपा के लिए नुकसानदायक हो सकता है।

यूपी की सियासत में 10% ब्राह्मण वोट बन सकते हैं किंगमेकर

उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों का हमेशा खास रोल रहा है। राज्य में कुल वोटरों में इनकी हिस्सेदारी करीब 10% मानी जाती है। लगभग हर विधानसभा सीट पर 5,000 से ज्यादा ब्राह्मण वोटर हैं। करीब 30 जिलों की 100 सीटों पर ब्राह्मण वोटर चुनाव परिणाम तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। ये सीटें विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी 202 सीटों का लगभग आधा हैं। वाराणसी, प्रयागराज, अमेठी, गोरखपुर जैसे जिले ब्राह्मण वोटरों के गढ़ माने जाते हैं।

जिसे मिला ब्राह्मण समर्थन, सत्ता उसी के हाथ

यूपी में ब्राह्मण मतदाता संख्या में भले ही ज्यादा न हों, लेकिन सत्ता में इनकी भूमिका अहम रही है। पहले ये कांग्रेस के साथ थे, जिससे पार्टी ने लंबे समय तक राज्य में राज किया। 1989 के बाद बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन के दौर में ब्राह्मणों का समर्थन पाया। 2007 में मायावती ने ब्राह्मणों को साधा और बहुमत से सरकार बनाई। 2012 में सपा की जीत में भी इनका योगदान था। 2017 से ब्राह्मण फिर बीजेपी के साथ हैं।

ब्राह्मण वोट बैंक पर सपा सरकार की भी रही पकड़

ब्राह्मण वोटरों के बीच सपा की पकड़ भी मजबूत रही है। सपा में जनेश्वर मिश्र को छोटे लोहिया कहा जाता था और वे मुलायम सिंह के बाद नंबर दो माने जाते थे। अखिलेश यादव के इस्तीफे के बाद माता प्रसाद पांडे को विपक्ष के नेता बनाना भी ब्राह्मणों को साधने की कोशिश माना गया। 2022 में सपा के 5 ब्राह्मण विधायक चुने गए। पिछले लोकसभा चुनाव में सपा ने 4 ब्राह्मणों को टिकट दिया, जिनमें से सनातन पांडे जीते।