हिंदू धर्म में जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में अत्यंत धूमधाम से मनाई जाती है। इस वर्ष यह शुभ पर्व 16 अगस्त को भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के संयोग में मनाया जाएगा। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, श्रीकृष्ण का जन्म इसी तिथि को मध्य रात्रि में हुआ था।
इस अवसर पर घरों और मंदिरों में विशेष सजावट की जाती है, भजन-कीर्तन गाए जाते हैं और रात 12 बजे श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चना कर उन्हें 56 भोग अर्पित किए जाते हैं। इन भोगों में खीरा विशेष महत्व रखता है और इसे मध्य रात्रि में काटने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।
खीरा क्यों है खास?
धार्मिक मान्यता के अनुसार, खीरे का संबंध गर्भाशय से जोड़ा गया है। जन्माष्टमी पर खीरे को माता यशोदा के गर्भ का प्रतीक माना जाता है। जब मध्य रात्रि में श्रीकृष्ण के जन्म का समय आता है, तो खीरे को काटकर उसके बीज निकालने की रस्म निभाई जाती है। यह क्रिया नाल काटने की प्रतीकात्मक प्रक्रिया मानी जाती है, जैसे नवजात शिशु को जन्म के बाद गर्भनाल से अलग किया जाता है।
डंठल और गर्भनाल का प्रतीक
खीरे का डंठल गर्भनाल का प्रतीक माना जाता है। इसे काटकर, भगवान श्रीकृष्ण को माता देवकी के गर्भ से अलग करने की रस्म पूरी की जाती है। यह परंपरा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जन्म की प्रक्रिया का प्रतीकात्मक उत्सव है, जो भक्तों को इस दिव्य घटना का अनुभव कराता है।
संतान सुख का आशीर्वाद
खीरा न केवल श्रीकृष्ण को अर्पित करने वाला पवित्र फल माना जाता है, बल्कि इसे गर्भवती महिलाओं के लिए भी शुभ समझा जाता है। मान्यता है कि जन्माष्टमी पर खीरा प्रसाद के रूप में ग्रहण करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है। इसीलिए कई भक्त इस दिन खीरे को प्रसाद के रूप में ग्रहण करना अनिवार्य मानते हैं।
आस्था और परंपरा का संगम
जन्माष्टमी पर खीरा काटने की यह परंपरा केवल एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भगवान कृष्ण के जन्म की दिव्य कथा को जीवंत करने का माध्यम है। यह हमें याद दिलाती है कि कैसे भक्ति, प्रतीकात्मकता और संस्कृति एक साथ मिलकर किसी पर्व को केवल त्योहार नहीं, बल्कि आस्था का उत्सव बना देते हैं।