कीर्ति राणा । जो लोग न्यायालय में अपनी लड़ाई लड़ने में असहाय रहते हैं उन्हें सरकार जो विधिक सहायता उपलब्ध कराती है इसकी शुरुआत अभिभाषक गोवर्धन लाल ओझा ने एक समिति बना कर की थी। बाद में यही ओझा मप्र हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के जज बने। ओझा की इस विधिक सहायता समिति का आयडिया इतना पसंद आया कि इसे मप्र सरकार ने गरीबों को विधिक सहायता के रूप में अपना लिया। (स्व) ओझा का यह जन्म शताब्दी वर्ष है, वे सुप्रीम कोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस भी रहे हैं।
समाजवादी विचारधारा के अगुआ माने जाने वाले जीएल ओझा ने छात्र राजनीति और महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में सक्रिय भाग तो लिया ही छात्र जीवन में ही उन्होंने होलकर राज्य के शासकों के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व किया। होल्कर, भारतीय संघ में विलय नहीं चाहते थे और अंततः होलकर राज्य ने भारतीय संघ में विलय को स्वीकार कर लिया।
उज्जैन में जन्मे न्यायमूर्ति गोवर्धन लाल ओझा (12 दिसंबर, 1924) के पिता जमनालाल ओझा उज्जैन के एक प्रसिद्ध समाजसेवी थे।उनकी प्रारंभिक शिक्षा माधव महाविद्यालय, उज्जैन में हुई। 1948 में वे इंदौर की वकालत में शामिल हुए। वकालत के शुरुआती दिनों में ही वे देश की राजनीति से सक्रिय रूप से जुड़े रहे और दिसंबर 1952 में रंगून (बर्मा) में आयोजित एशियाई समाजवादी सम्मेलन में भारत के एक प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। वे एक उत्कृष्ट योग्यता वाले वकील रहे हैं। उन्होंने संवैधानिक, सिविल, आपराधिक, श्रम और अन्य मामलों में काम किया है। न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत होने से पहले लगभग एक दशक तक वे इंदौर के लगभग सभी महत्वपूर्ण और सनसनीखेज मुकदमों से जुड़े रहे। 29 जुलाई, 1968 को उन्होंने मप्र उच्च न्यायालय जबलपुर मुख्य पीठ के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में शपथ ली। वे उच्च न्यायालय की इंदौर पीठ में शामिल हुए। एक न्यायाधीश के रूप में, वे विधिक सहायता का कार्य शुरू करने वाले अग्रणी व्यक्ति थे और उन्होंने एक स्वैच्छिक विधिक सहायता एवं शिक्षा संस्था की स्थापना की। यह संस्था तब तक कार्यरत रही जब तक राज्य सरकार ने विधिक सहायता कार्यक्रम को अपने हाथ में नहीं ले लिया। 3 जनवरी, 1984 को उन्होंने राज्य के मुख्य न्यायाधीश का पदभार ग्रहण किया और 1 दिसंबर, 1984 तक कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश रहे, उसके बाद उन्हें मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का स्थायी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। 29 अक्टूबर, 1985 को उन्होंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद की शपथ ली।
🔹इंदिरा गांधी हत्याकांड की सुनवाई की थी
इंदिरागांधी हत्याकांड की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों के पैनल में जीएल ओझा भी एक जज थे। हत्या के दोषी पुलिस कांस्टेबल सतवंत सिंह और षड्यंत्र के दोषी सरकारी अधिकारी केहर सिंह की अपील को खारिज कर दिया। बलबीर सिंह को अंततः सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। पैनल के वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति जीएल ओझा ने अपने 75 पृष्ठों के फैसले में कहा, “जहाँ तक इस अभियुक्त का प्रश्न है, ऐसा कोई सबूत नहीं है जिसके आधार पर उसकी दोषसिद्धि को उचित ठहराया जा सके। इसलिए वह बरी किए जाने का हकदार है।”
🔹द्रविड़ से चुनाव हारे लेकिन उनकी बात मानी
इंटक के प्रदेश अध्यक्ष श्याम सुंदर यादव बताते हैं ओझाजी ने द्रविड़ साहब के खिलाफ विधानसभा चुनाव भी लड़ा, हार गए लेकिन उस वक्त के नेताओं में आपसी समझ-सदभाव ऐसा कि द्रविड़ साब जब भी मजदूरों के मामले में अदालती मदद के लिए ओझा जी के पास जाते वो पूरा सहयोग करते थे, कई बार तो बिना फीस लिए उन्होंने केस भी लड़े।
यादव के मुताबिक आज जिस जगह मां आनंदमयी आश्रम है पहले यहां जजों के बंगले हुआ करते थे।ओझा जी से द्रविड़ साब और इस आश्रम के स्वामी केदारनाथ ओझा जी से मिलने गए और मंशा बताई कि आप के बंगले वाली यह जमीन आश्रम को देने के लिए मुख्यमंत्री (स्व) अर्जुन सिंह से मिलने जा रहे हैं आप को कोई आपत्ति तो नहीं। ओझा जी ने अपना सारा सामान समेटा और वहीं बने दो कमरों में शिफ्ट हो गए। ओझा जी की इस विनम्रता के चलते आश्रम को जमीन देने में सरकार भी तनावमुक्त हो गई, मात्र एक रु की लीज पर यह जमीन अलॉट कर दी थी सरकार ने।
मालवामिल चौराहे पर हुए मजदूरों के जंगी आंदोलन में भड़की हिंसा के दौरान हुई तत्कालीन पुलिस अधीक्षक की हत्या मामले में जब इंदौर के सारे वकीलों ने तत्कालीन पुलिस अधीक्षक जोशी की हत्यारोपी मालवा मिल के मजदूरों का केस लड़ने से इंकार कर दिया तब गोवर्धलाल ओझा ने उनके पक्ष में केस लड़ा।न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाई थी लेकिन राष्ट्रपति से की गई मर्सी अपील के बाद इन मजदूरों की सजा आजीवन कारावास में तब्दील हो गई थी।गीता भवन ट्रस्ट के अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहे जीएल ओझा मूल रूप से समाजवादी थे।
🔹तीन साल तक कोर्ट में नियमित रहना
गांधीवादी विचारक-अभिभाषक अनिल त्रिवेदी ने बताया आंदोलन-जेल आदि के बाद जब मैंने सनद लेने का मन बनाया तो ओझा जी ने एक गुरु मंत्र दिया था चाहे जो हो जाए कम से कम तीन साल तक सुबह साढे नौ से शाम साढे पांच तक कोर्ट में रहना ही है, तुम्हें वकील बनने से कोई रोक नहीं सकता। इस सलाह के पीछे उनका कहना यह था कि पक्षकारों को यह पता चलना चाहिए कि तुम पूरे समय कोर्ट में रहते हो। जस्टिस ओझा की यही सीख मैंने भी पचास से अधिक जूनियर को समझाई। डूंगरवाल जी के खास मित्र थे ओझाजी । ऑटो रिक्शा के मीटर रेट में एक रु की वृद्धि से आम उपभोक्ता को होने वाले नुकसान पर उपभोक्ता हितचिंतक समिति के पुरोहितजी ने याचिका लगाई थी। ओझा जी हाईकोर्ट जज थे, उनके सामने मेरा यह पहला केस था।हमें सफलता मिली, उनके फैसले के बाद एक रुपया कम हुआ।
🔹वर्ल्ड सोशलिस्ट फोरम में भारत से सेक्रेटरी रहे
स्व ओझा के बड़े पुत्र अनिल ओझा (जो स्टूडेंट पोलिटिक्स में ‘डेडी’ के नाम से विख्यात रहे) कहने लगे पप्पा बाद में जावरा कंपाउंड वाले मकान में शिफ्ट हो गए थे।आरिफ बेग भी यहीं बैठते थे। सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ाव और सक्रियता के चलते राम मनोहर लोहिया, जार्ज फर्नांडिस, मघु लिमये, डूंगरवालजी, लाड़ली मोहन निगम, राजनारायण आदि वरिष्ठ नेताओं का आना-जाना-रुकना बना रहता था। उनके अति निकटतम मामा बालेश्वर थे। रंगून में हुए वर्ल्ड सोशलिस्ट फोरम के चुनाव में पप्पा भारत से सेक्रेटरी भी निर्वाचित हुए थे।उनका हमेशा कहना रहता था अमीरों से थोड़ी दूरी रखो लेकिन गरीब यदि मुसीबत में हो तो उसके घर जाओ। समाजवादी पार्टी के बाद प्रसोपा, संसोपा के बाद जब नागरिक मोर्चा का गठन हुआ तो आरिफ बेग ने कांग्रेस प्रत्याशी बाबूलाल पाटोदी को हराया था।
इंदिरा गांधी ने जब आपात्तकाल घोषित किया तो हमारे घर पर भी पुलिस की निगरानी रहती थी कि जार्ज, मधु लिमये फरारी काटने यहां आ सकते हैं। पप्पा ने वकालात की शुरुआत-प्रेक्टिस सरदार बलवंत सिंह जौहर के यहां की । जबकि आनंद मोहन माथुर पप्पा के जूनियर थे। 50 के दशक में मालवा मिल चौराहे पर संयुक्त पार्टियों के आंदोलन में हिंसा भड़क गई, तत्कालीन एसपी थे जोशी, उत्तेजित मजदूरों ने उनकी हत्या कर दी। जांच के लिए सरकार ने वांचू कमीशन गठित किया। मजदूरों की तरफ से जब कोई वकील लड़ने को तैयार नहीं हुआ तो पप्पा ने उनकी लड़ाई लड़ी। लेब असिस्टेंट की हड़ताल में भी उन्होंने इन कर्मचारियों का पक्ष रखा।
पप्पा ने सिविल, आपराधिक और संवैधानिक मामलों पर वकालत की। वो सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थे और बेंच में पदोन्नति से पहले इंदौर में विभिन्न महत्वपूर्ण और राजनीतिक मामलों में काम किया। पप्पा 1968 में इंदौर हाईकोर्ट के जज बने, 1974 में कुछ समय ग्वालियर रहे। 1979-80 में जबलपुर में एडमिनिस्ट्रेटिव जज बने।
मैं इंदौर (देवी अहिल्या) विवि का प्रेसीडेंट रहा। 1982 में मैंने भी वकालत शुरु की। मैं वीडी ज्ञानी का जूनियर था। ज्ञानीजी के पास 28 हजार केस थे। पप्पा सुप्रीम कोर्ट में जज और मैं वकील ! एक दिन उन्होंने समझाया तेरी प्रेक्टिस चाहे जितनी अच्छी हो लेकिन ठप्पा तो यही लगेगा कि है तो तू सीजे का लड़का। लाड़ली जी, जगदीश प्रसाद वैदिक आदि ने समझाया भी लेकिन मैंने प्रैक्टिस छोड़ दी।
ये (शोभा) उस वक्त एनएसयूआई में सक्रिय थी। पप्पा ने शोभा (थामस) से मेरी इंटरकास्ट मैरिज को तो स्वीकार कर लिया, शोभा के पोलिटिक्स में एक्टिव रहने पर सहमत थे लेकिन वो मेरे डिस्टलरी शुरु करने के निर्णय से सहमत नहीं थे। एक जज का लड़का दारू का धंधा करे यह उनके इथिक्स के खिलाफ था, अतंत: मैंने उस बिजनेस से खुद को अलग कर लिया।
पहले इलाज मिले, पुलिस प्रक्रिया बाद में
वाहन दुर्घटना में घायलों से प्रारंभिक पूछताछ की जटिल प्रक्रिया के चलते कई घायल तुरंत इलाज नहीं मिलने के कारण दम तोड़ देते थे। पप्पा की कोर्ट से ही पहला आदेश पारित हुआ था कि वाहन दुर्घटनाओं के घायलों को पहले उपचार सुविधा दी जाए, बाकी पुलिस प्रक्रिया बाद में पूरी की जाए।यह आदेश देश में नजीर बना था।
कोंकण रेलवे के निर्माण की जब प्रक्रिया शुरु हुई तब पप्पा इस कमीशन के चेयरमेन बनाए गए। कोंकण रेलवे आज जिस रूट पर चल रही है यह रूट पप्पा ने ही तय किया था।जज बनने से पहले पप्पा मभा हिंदी साहित्य समिति की पत्रिका ‘वीणा’ के संपादक रहे। रिटायरमेंट के गीताभवन के मैनेजिंग ट्रस्टी हो गए। कैंसर हो गया लेकिन कीमो थैरेपी के बाद सीधे गीताभवन जाते थे। जूनी इंदौर शनि मंदिर की पूजा शनि जयंती में पूजन पर बैठते थे। ओम तिवारी जी ने जो महोत्सव शुरु किया उसमें कलाकारों का सम्मान, नकद राशि भी वही देते थे। ज्योतिष के जानकार थे, हर दिन उसी हिसाब से अंगूठी पहन लेते थे। सुबह और रात सोने से पहले ध्यान करते थे। 68 तक खादी, अचकन बिरजिस पहनते रहे, कोर्ट जाने के कारण कोट-पेंट पहनना शुरु की।
नागदा को बसाने का श्रेय परदादाजी को
अनिल बताते हैं हमारे दादा जमनालाल ओझा चार सिंहस्थ के इंजार्च रहे। परदादा नंदकिशोर ओझा नागदा रेलवे स्टेशन इंचार्ज थे। एक बार उन्होंने ट्रेन रुकवा कर गांधी जी का स्वागत किया, वो ट्रेन से उतरे उन्होंने समस्या पूछी तो बता दिया नागदा में पानी की समस्या है। परदादाजी को पता नहीं था गांधी जी के साथ चल रहे घनश्याम दास बिड़ला हैं, गांधीजी ने बिड़ला जी से बात की। उन्होंने कहा जमीन मिल जाए तो समस्या हल हो सकती है। उसी वक्त 8 रु के स्टांप पर बिड़ला जी को बीस हजार वर्गफुट जमीन लिख दी।नागदा के पुराने लोग आज भी कहते हैं नागदा को बसाने का श्रेय नंद किशोर ओझा को है।