प्रकाश पुरोहित
वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार
उन दिनों यानी 1986 में प्रभातकिरण साप्ताहिक हुआ करता था, जिसमें एक पन्ना फिल्मी होता था। आज की तरह तब ना तो इंटरनेट था और ना ही मोबाइल फोन! टेलिफोन ही मुश्किल से मिलते थे। अपना फोन सुनने के भी तब पैसे देने पड़ते थे। तब मुंबई में किसी युवा फिल्मी पत्रकार की तलाश थी, जो कम से कम पारिश्रमिक में प्रभातकिरण के लिए हर हफ्ते लिफाफा भर के खबर और ब्लैक-व्हाइट चित्र भेज सके। तब भी ज्यादातर युवा इसी उम्मीद में मुंबई आते थे कि फिल्म लिखने को मिल जाएगी। इसको जिलाये रखने के लिए पत्रकार हो जाते थे कि बंबई में हिंदी वाले कम ही मिलते थे।
इसी खोज में किसी ने एक नाम सुझाया Sanjay Nirupam
इसी खोज के तहत किसी ने एक नाम सुझाया-संजय निरुपम! बिहार से आया, खामोश-सा युवा, जिसकी इंग्लिश का कमजोर होना, उसे अति-विनम्र बनाता था। दस बात कहें तो एक जवाब मिलता था, और वह भी सिर्फ मुस्कुराते हुए। तय हुआ दो सौ रुपए महीना देंगे, और माह में चार लिफाफे हमें मिलेंगे। संजय भी फिल्मी लेखक होने के इरादे से आया था, लेकिन मुखर नहीं था, तो बात करने में भी हिचकता था। पत्रकारिता तो बंबई में टिके रहने के लिए करनी ही थी। इस बीच, एक-दो बार संजय का इंदौर आना-जाना भी हुआ और रिश्ते भी बनते गए।
इसी बीच, संजय ने गीता से भी मिलवाया, जो इंदौर की ही थी और बंबई में फिल्मी पत्रकार थी। दोनों ही मिल-जुल कर साप्ताहिक के लिए खबर और चित्र भेजने लगे। तभी एक बार संजय और गीता इंदौर आये और बताया कि दोनों शादी करना चाहते हैं। दिक्कत यह थी कि दोनों की जाति अलग-अलग थी और उन दिनों संजय का परिवार इस रिश्ते से खुश नहीं था, जबकि गीता का परिवार तैयार था। गीता के परिवार में संजय को खूब इज्जत मिलती थी और प्यार भी।
ऐसे ही शादी की तारीख तय हो गई। गीता का तो परिवार था, लेकिन संजय का परिवार तो बिहार में था। संजय का इंदौर में कोई परिचित भी नहीं था। इसलिए यह तय पाया गया कि मेरे घर से ही इनकी शादी हो जाए। कह सकते हैं जनवासा हमारा घर था और यहीं से बरात निकली थी। जिससे जो मदद हो सकी, उसने किया और संजय को घर की कमी नहीं खलने दी। तब दादा (ओमप्रकाशजी सोजतिया) ने भी हर संभव इंतजाम किये थे, कि उनके ही समाचार पत्र का संवाददाता है, इसलिए नहीं, बल्कि मदद करने की उनकी आदत थी और संजय को तो देख कर ही प्यार आने लगता था।
शादी अच्छे से हो गई और वर-वधू बंबई चले गए, प्रभारतकिरण के लिए उनका लिखना जारी रहा। जब भी इंदौर आते तो मेरे यहां जरूर आते, तब लगता था कि मुंह में दही जमाए बैठा यह शख्स बंबई गलत आ गया…! फिर 1991 में प्रभातकिरण शाम का समाचार-पत्र बन गया, तब भी संजय ही खबर भेजता था। फिर धीरे-धीरे उसका फिल्मवालों से रिश्ता बनने लगा। वह तेज-तर्रार तो नहीं था, लेकिन उसकी मासूमियत पर फिदा हुआ जा सकता था। बाद में पता चला देव आनंद के लिए कोई फिल्म (ज्वेल-थीफ रिटर्न जैसी) लिख रहा है और उसे छुटपुट काम फिल्मों में लिखने के मिलने लगे थे।
तभी ‘जनसत्ता’ लगभग बंद होने के कगार पर था और पता चला संजय राऊत के कहने पर संजय को बाल ठाकरे ने हिंदी ‘सामना’ का संपादक बना दिया। फिर तो संजय, संजय ही नहीं रहा, संजय निरुपम हो गया। राज्यसभा सांसद और फिर ना जाने क्या-क्या। मुंबई के बिहारियों का नेता, जिसने लोकसभा चुनाव भी जीत लिया। आखिरी बार मेरी मुलाकात संजय से ‘सामना’ के दफ्तर में ही हुई थी, तब देखा… यह तो एकदम नेता हो गया। लोग आ रहे हैं और पैर छू रहे हैं, उसके चेहरे के अंदाज बदल गए और रहन-सहन भी। बिलकुल नेतागीरी के लिए एकदम माफिक इंसान। तब मैंने इतना ही कहा था कि ‘जाना था तो कांग्रेस में ही चले जाते’, तब भी उसने हंस कर कहा था कि जिसने बुला लिया प्यार से, आ गया।
बाल ठाकरे नहीं रहे और उद्धव ने काम सम्हाला। जो संजय राऊत कभी संजय निरुपम को लेकर ‘सामना’ में आए थे, उन्होंने ही जड़ें खोदनी शुरू कर दीं और अंतत: संजय निरुपम को कांग्रेस ने हरी झंडी दिखा दी। मुंबई का कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया। जयपुर अधिवेशन में संजय के जलवे देखे थे मैंने। उसके बाद अभी जब रायपुर में उसे देखा तो लगा था, जैसे पानी उतर रहा है, उसके आसपास वैसी भीड़ नहीं थी। तब भी यह यकीन नहीं हो रहा था कि फिर शिवसेना में जाने की नौबत आ जायेगी और वह भी शिंदे के साथ।
कांग्रेस ने संजय को खूब दिया और अब बदले में कोस रहा है और खामियां बता रहा है। वजह यही है कि राजनीति में संजय किसी विचारधारा की वजह से नहीं गया था, मगर उसे वहां अवसर नजर आ रहे थे। कल को कांग्रेस के दिन फिर गए तो संजय को वहां भी दुबारा जाने में हिचक नहीं होगी, क्योंकि अब उसे इसकी आदत हो गई है और बाकी दलों को भी।
आज ये बातें याद करने का मकसद यही है कि क्या राजनीति ही ऐसी होती है कि व्यक्ति का चाल-चलन-चरित्र बदल देती है… या फिर उसमें ये (अव)गुण पहले से विद्यमान रहते हैं कि मौके की तलाश में रहते हैं और खाद-पानी मिलते ही वैसे उग आते हैं, जैसे छोटे-से बीज से वट-वृक्ष बन जाता है। निदा फाजली ने ऐसे ही मौके पर लिखा होगा… हर आदमी में होते हैं कई आदमी/जिसको भी देखना हो, कई बार देखना!
(ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं।)