काले हिरण के शिकार के बाद वो सलमान से खफा, विश्नोई के अनुसार माफी नहीं मांगी तो ज़िंदगी हो जाएगी बेवफा…

प्रखर वाणी

वाह रे लॉरेंस विश्नोई…तूने भी क्या खूब धाक बोई…मुम्बई में कइयों की आत्मा रोई…फिल्म इंडस्ट्री आजकल रहती है खोई खोई…एक युग था जब दाऊद का खौफ सर चढ़कर बोला था…उसने मुम्बई को बमों की तराजू पर तोला था…बाला साहेब ने जब अपना मुख खोला था…तब लग गया उसके पीछे शिवसेना का टोला था…दाऊद की हरकतों को उसके सामने शेरदिल ठाकरे का ही जवाब मिला…अब लगता है वर्षों बाद उसके कारनामों को कुचलने मुम्बई को लारेंस नवाब मिला…अक्खी मुम्बई में बचे खुचे दाऊद के गुर्गे…बने फिर रहे हैं यत्र तत्र कान पकड़कर मुर्गे…बाबा सिद्दीकी की हत्या का विश्नोई गैंग ने दावा किया…चुनौती पर काम करते गैंगस्टर पर पुलिस ने पछतावा किया…काले हिरण के शिकार के बाद वो सलमान से खफा है…

विश्नोई के अनुसार माफी नहीं मांगी तो ज़िंदगी हो जाएगी बेवफा है…जेल में रहकर भी अपनी गैंग के आतंक से डरवा देता है…ज्यादा कट्टर लोगों को वो चाहकर मरवा देता है…वो दाऊद जो टीवी पर दिख जाता है मगर पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ता…यदि विश्नोई जेल से बाहर होता तो दाऊद भी उसके पांव पढ़ता…एक कम उम्र का नौजवान कैसे अपना हौसला जगाता है…मायानगरी में धाक जमाने वाले अनेक गुंडों को दूर भगाता है…ये सच है कि विश्नोई के हिंसक पैगाम नीति संगत नहीं है…फिर भी सोशल मीडिया पर उसके चहेते कहते हैं जो उसने किया वो सही है…अब तो मुम्बई की फ़िल्म का हीरो विश्नोई और दाऊद विलेन है…ऐसा पहली बार देखा जा रहा है कि क्रूर चेहरे के भी लोग फेन हैं…लोहे को लोहा काटता है…कुत्ता खुद अपने जख्म चाटता है…आतंक को आतंक से ही मिटाया जाता है…बब्बर शेर द्वारा ही गीदड़ों को राह से हटाया जाता है…ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली कहावत पुरानी है…भले ही लगती ये कुश्ती नूरानी है…मुम्बई में रंगदारी के किस्से अनेक हैं…

स्वाभिमान की रक्षा हेतु खुद्दारी लगती सदा नेक है…लारेंस की गलतियां जरूर अक्षम्य है जिस पर कानून काम कर रहा है…लेकिन एक पीढ़ी को हटाकर उसने जो दबदबा कायम किया वो ही उसका नाम कर रहा है…जुर्म की दुनिया भी अजीब और निराली होती है…जिसमें सबकुछ हासिल तो होता है मगर ज़िंदगी खाली रहती है…अपराधों का अंत बुरा और दर्दनाक होता है…उनके द्वारा किया गया हर काम बड़ा ही शर्मनाक होता है…मगर डॉन फ़िल्म बनाकर जग को दिखाने वाला महानगर जब डॉन से रूबरू होता है…तो असल डॉन की कारगुजारी का अनुभव मिलते ही वो खून के आंसू रोता है…इसीलिए फ़िल्म के पर्दे हकीकत नहीं होते वो वास्तविकता से परे होते हैं…खोटे सिक्के धोखा देकर एक बार चलाये जा सकते हैं मगर खरे तो खरे होते हैं…सिक्कों के दो पहलू उसकी असीमित संभावनाओं के परिचायक हैं…मुद्दों को लेकर यदि कोई अपराध भी करता है तो वो जनता के दरबार में नायक है ।