Hathras stampede : बाबाओं का मायाजाल…


लेखक
चैतन्य भट्ट

उत्तर प्रदेश के हाथरस में नारायण साकार हरि नाम के बाबा के सत्संग में हुई भगदड़  ( Hathras stampede ) में 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई औ एफसीर दर्जनों घायल हैं। हादसा गीली मिट्टी में बाबा जी के पांव छूने के लिए दौड़े लोगों को हटाकर बाबा के लिए रास्ता बना रहे सेवादारों के कारण हुआ। सत्संग जहां 80 हजार की अनुमति के बावजूद ढाई लाख से ज्यादा लोग पहुंचे थे , का अनुभव पलक झपकते त्रासदी में बदल गया । संवेदना जताना और पीडि़तों की मदद तो दूर बाबा फरार हो गया। किसी जमाने में सरकारी नौकरी के दौरा छेडख़ानी जैसे मामले में निलंबन झेल चुका बाबा खुद को सुदर्शन चक्र धारी भगवान कृष्ण बताकर अधर्म के विनाश का दावा करता था।

Hathras stampede जैसी घटनाओं का अपना इतिहास है

धार्मिक आयोजनों में भगदड़ ( Hathras stampede ) की ऐसी घटनाओं का अपना इतिहास है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2000 से 2013 तक की अवधि में ही इनमें लगभग 2,000 लोग मारे गए। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन द्वारा प्रकाशित अध्ययन बताता है कि भारत में 79 फीसदी भगदड़ धार्मिक सभाओं और आयोजनों के कारण होती हैं जिनके प्रमुख कारण हैं निकलने का संकरा रास्ता होना, क्षमता से अधिक लोगों की भीड़ पर नियंत्रण के उपायों का अभाव और खराब तरीके से चुना गया कार्यक्रम स्थल। आयोजनों में भीड़ की सुरक्षा की जिम्मेदारी आयोजकों और प्रशासन की मानी जाती है। ऐसे आय़ोजनों की अनुमति के प्रमुख आधार हैं: निकास की समुचित व्यवस्था, भीड़ प्रबंधन के उपाय और आग जैसी संभावित आपदाओं से निपटने की व्यवस्था । मगर सब जानते हैं कि सारी कार्यवाही महज औपचारिकता है। सामान्यत: आयोजन छोटे मैदानों और यहां तक कि सडक़ों तक को घेरकर आयोजित किए जाते हैं। अग्नि प्रबंधन तो छोडि़ए, प्राथमिक चिकित्सा जैसी सुविधाएं तक नहीं रहतीं। भीड़ प्रबंधन गैर अनुभवी अप्रशिक्षित कार्यकर्ता संभालते हैं।
हादसों के शुरुआती ट्रिगर अफ़वाह फैलना, फिसल जाना. संकरी जगह में घबराए हुए लोगों का एक-दूसरे को धक्का देना जैसे कारण होते हैं। बुनियादी ढांचे की कमी से भीड़ का व्यवहार और भी खराब हो जाता है। घबराहट में हर दिमाग में यह अलार्म बजता है कि कोई खतरा है। लोग यह भी नहीं सोचते कि खतरा वास्तविक है या नहीं और क्या यह उन्हें प्रभावित करेगा ? अपने और अपने परिवार के बारे में चिंतित हर व्यक्ति स्वार्थी हो जाता है और बाकी सभी को सिफऱ् वस्तु और बाधा के रूप में देखता है। हादसों का शिकार ज्यादातर पारिवारिक धुरी का आधार महिलाएं बनती हैं। भागदौड़ में वह शारीरिक तौर पर उतनी मजबूत नहीं होतीं। साड़ी का सामान्य पहनावा भागने में रुकावट बनता है। घबराहट भी तुरंत बढ़ती है जो हृदयाघात और दम घुटने का कारण बनता है।
गहरी आस्थाओं वाले भारतीय हिन्दू समाज की धार्मिक गतिविधियां पहले धर्मस्थलों और तीर्थ यात्राओं तक सीमित थी। सत्संग और भजन कीर्तन जैसे समारोह मुख्यत: मंदिरों और प्रमुख धार्मिक त्यौहारों तक सीमित रहते थे। सहजता ऐसी थी कि रामलीला जैसी धार्मिक गतिविधियां भी मनोरंजन के दायरे में आती थीं। मगर पिछले बीस पच्चीस सालों में सहज धार्मिक गतिविधियों ने संगठित व्यावसायिक स्वरूप धारण कर लिया है। संत महात्माओं के रूप में खड़े हुए बाबा चमत्कार के नाम पर आवश्यक व्यवस्थाओं को ताक पर रखकर लाखों की भीड़ जुटाने लगते हैं जो ऐसे आयोजनों की टीआरपी है। हर बात को विशुद्ध वोट बैंक के आधार पर आंकने वाली राजनीति इसका फायदा उठाना चाहती है सो ज्यादा भीड़ जुटाने वाले बाबा महत्वपूर्ण हो जाते हैं और उनके आयोजनों को अनुमति देने के मामले में प्रक्रिया ताक पर रख दी जाती है। कुछ मामलों में तो ऐसे बाबा राजनीतिक दलों द्वारा समाज के वर्ग विशेष का वोट साधने के लिए बाकायदा प्रायोजित नजर आते हैं। टैक्स फ्री सुविधा वाले इस विशुद्ध व्यावसायिक कर्मकांड से अचानक करोड़ पति बने लोकप्रियता के रथ पर सवार भगवान का गुण गाने वाले महात्मा खुद को भगवान मानने लगते हैं। स्वयं को सर्वज्ञ समझकर धार्मिक मान्यताओं के मनचाही व्याख्या की पृवृति इस हद तक पहुंच जाती हैं कि उनके और पारंपरिक संत समाज में टकराव की स्थितियां बनती हैं। राधारानी विवाद के बाद सीहोर के पं. प्रदीप मिश्रा द्वारा संत संगठनों के दबाव में बरसाना जाकर नाक रगड़ कर माफी मांगने की घटना ताजा प्रमाण है।
हाथरस हादसे की जांच के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, जो खुद भी एक निर्विवाद पारंपरिक संत हैं, द्वारा सर्वकालीन तात्कालिक उपाय की तजऱ् पर एस आई टी गठित हो गई है । बुल्डोजर बाहर निकलने की खबरें आ रही हैं । मगर स्व. दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो : तफ़सील में जाने से ऐसा तो नहीं लगता, हालात के नक्शे में कुछ रद्दो बदल होगी। दीर्धकालीन उपायों की गंभीरता कहीं नहीं दिखती। अनुमति से अधिक भीड़ न जुटे और लोगों के निकास के समुचित रास्ते मौजूद हों, यह सुनिश्चित करना प्रशासन की जिम्मेदारी थी। क्या इस चूक के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान स्थापित कर उनके खिलाफ भी कार्यवाही होगी ? पुलिस बल की कमी किसी से छिपी नहीं है, ऐसे में अनुमति और व्यवस्थाओं पर तो नजर रखी जा सकती थी। लोगों की असावधानी पर ही सारा ठीकरा फोडऩा ठीक नहीं है। जरूरत है कि ऐसे आयोजनों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत कानून के माध्यम से लागू किए जाएं जिसमें आयोजकों समेत प्रशासकीय जिम्मेदारी भी निर्धारित हो। मगर जिस व्यवस्था में बाबाओं को उनकी भीड़ जुटाने की क्षमता देखकर राजनैतिक प्रश्रय और प्रशासकीय महत्व मिलता हो वहां ऐसी अपेक्षा ज्यादा सार्थक नहीं है। इसलिए उचित होगा कि सहज सीधा आम आदमी अपनी जान की जिम्मेदारी खुद ही संभाले।
(लेखक के ये स्वतंत्र विचार हैं)