लेखक
राकेश अचल
देश में आजकल लेटरल एन्ट्री ( lateral entry ) विवाद का मुद्दा है। ये मुद्दा बंगाल के बलात्कार काण्ड पर भी भारी पड़ गया है। लेटरल एन्ट्री यानी किसी भी सिस्टम में पिछवाड़े से प्रवेश करना कहा जाता है । ये सिस्टम उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता। आप यदि थोड़ा सा अन्वेषण करेंगे तो आपको इस पिछवाड़ा प्रवेश के तमाम उदाहरण मिल जाएंगे। लेटरल एन्ट्री एक सुरक्षित उपक्रम है । हमारे यहां घरों से लेकर क़ानून और सियासत में एक न एक लेटरल एन्ट्री गेट होता ही है। और होना भी चाहिए।घरों में लेटरल एन्ट्री आपातकाल के लिए बनाई जाती है।
lateral entry की व्यवस्था बचाव के लिए
क़ानून में लेटरल एन्ट्री की व्यवस्था बचाव के लिए की गयी है और राजनीति में लेटरल ऐंट्री उन लोगों के लिए की गयी है जो या तो चुनाव नहीं लड़ सकते या फिर हार जाते है । हमारी संसद का उच्च सदन जिसे आप राज्य सभा के रूप में जानते हैं लेटरल एन्ट्री के जरिये ही सजाया जाता है। लेटरल एन्ट्री आखिर लेटरल ऐंन्ट्री है। उस पर सियासत होना भी चाहिए या नहीं ,ये विवाद का एक नया विषय हो सकता है ? ताजा विवाद केंद्र सरकार द्वारा लेटरल एंट्री के जरिये 45 विशेषज्ञों की विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, निदेशक और उपसचिव जैसे प्रमुख पदों पर नियुक्ति करने की घोषणा के बाद शुरू हुआ है। संघ लोक सेवा आयोग की सेवाओं में लेटरल एंट्री को लेकर सियासी सरगर्मी शुरू हो गई है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने लेटरल एंट्री के माध्यम से भर्ती को लेकर केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा है। खडग़े ने दावा किया कि यह आरक्षण छीनकर संविधान को बदलने का ‘भाजपाई चक्रव्यूह’ है। इससे पहले भी कांग्रेस ने इस मुद्दे पर सरकार पर निशाना साधा था। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि इससे आरक्षण खत्म हो जाएगा ।राज्य सभा में लेटरल एन्ट्री का विरोध इसलिए नहीं होता क्योंकि सभी राजनीतिक दल इसका लाभ उठाते हैं लेकिन नौकरशाही में लेटरल एन्ट्री पर हंगामा स्वाभाविक है । इसके जरिये सरकार अपनी पसंद के लोगों को महत्पूर्ण पदों पर विशेषज्ञ बनाकर बैठाती है । ये एक तरह का उपकार भी है और औजार भी । ब्यूरोक्रेसी में लेटरल एंट्री एक ऐसी प्रथा है जिसमें मध्य और वरिष्ठ स्तर के पदों को भरने के लिए पारंपरिक सरकारी सेवा संवर्गों के बाहर से व्यक्तियों की भर्ती की जाती है। नौकरशाही में लेटरल एंट्री औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान शुरू किया गया था, जिसमें 2018 में रिक्तियों के पहले सेट की घोषणा की गई थी। उम्मीदवारों को आमतौर पर प्रदर्शन के आधार पर संभावित विस्तार के साथ तीन से पांच साल तक के अनुबंध पर नियुक्त किया जाता है। इसका उद्देश्य बाहरी विशेषज्ञता का उपयोग करके जटिल शासन और नीति कार्यान्वयन चुनौतियों का समाधान करना है।लेटरल एन्ट्री के दुष्परिणाम हाल हमें हम बांग्लादेश में देख चुके है। बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने सरकार में इसी तरह से सभी महत्वपूर्ण पदों पर अपनी पार्टी के लोगों को न सिर्फ बैठा दिया था बल्कि उनके लिए बाकायदा आरक्षण की व्यवस्था कर दी थी । इसी व्यवस्था के फलस्वरूप बांग्लादेश में तख्ता पलट हो गया। हमारे यहां ऐसा असम्भव है क्योंकि हम सहनशील लोग है। हम अभी तक नीट पेपर लीक काण्ड पर शिक्षा मंत्री नहीं हटा पाए,सरकार तो क्या ख़ाक हटाएंगे ? आई वाश के रूप में परीक्षाएं करने वाली संस्था के एक पदाधिकारी की बलि जरूर ले ली गयी। सत्ता पक्ष अपने फैसले के समर्थन में कांग्रेस की सरकार के समय पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह आहलूवालिया की वित्त सचिव और योजना आयोग में की गयी नियुक्तियों का हवाला देती है ।
दरअसल मै तो इस मुद्दे पर केंद्र की मोदी सरकार का अहसानमंद हूँ कि सरकार लेटरल एन्ट्री के जरिये केवल पांच साल के लिए नियुक्तियां कर रही है ,अन्यथा सरकार चाहती तो उन्हें अगले 35 साल तक के लिए नियुक्त कर सकती थी ,क्योंकि बकौल अमित शाह भाजपा अभी 35 साल और सत्ता में रहने वाली है। मुझे इस बात पर भी आपत्ति है कि कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष लेटरल एन्ट्री के मुद्दे पर सारी लड़ाई एक्स
एक्स पर लड़ रही है जबकि ये लड़ाई सोशल मीडिया पर नहीं, सडक़ और अदालतों में लड़ी जाना चाहिए। जनता को यदि ये फैसला गलत लगता है तो जनता को अर्थात नौजवानों को ये लड़ाई अपने हाथ में लेना चाहिए ,क्योंकि राजनीतिक दल इस लड़ाई के पात्र नहीं है। वे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। अगर लेटरल एन्ट्री खराब व्यवस्था है तो इसे अदालत में भी चुनौती दी जाना चाहिए ,अन्यथा तिल का ताड़ बनाने का कोई लाभ नहीं है।मुझे क्या देश के अधिकांश लोगों को पता है कि भाजपा सरकार ने पिछले दस साल में तमाम विश्व विद्यालयों और नेशनल बुक ट्रस्ट जैसे तमाम संगठनों में संघ दक्ष लोग बैठा दिए हैं जो लगातार शिक्षा,समाज अर्थव्यवस्था और इतिहास के साथ ही विभिन्न कलाओं का संघीकरण करने में जुटे हैं। कांग्रेस और विपक्ष इन्हें रोकने में पूरी तरह नाकाम रही है ,पिछली सरकार तो भाजपा की ताकतवर सरकार थी ,ये सरकार तो बैशाखियों पर टिकीं सरकार है ,कमजोर सरकार है ,लेकिन पूरे जोर-शोर से अपने हिडन एजेंडे पर काम कर रही है। मुझे नहीं लगता कि देश का कथित रूप से ताकतवर विपक्ष बैशाखा सरकार को सिस्टम में संघियों की लेटरल एन्ट्री को रोक पायेगा । इस बार केंद्र सरकार द्वारा 45 पदों के लिए विज्ञापन प्रकाशित कराया गया। पिछले 6 वर्षों में लगभग 200 पदों पर नियुक्तियां हो चुकी हैं। उसके बाद से आरक्षण मुद्दे पर पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। मोदी सरकार द्वारा 2018 के बाद से लैटरल नियुक्तियां समूह में की जा रही हैं। अभी तक यूपीएससी परीक्षा के माध्यम से इनका चयन होता था। 15-20 वर्ष की सेवा के पश्चात, चयनित अधिकारी उप सचिव, संयुक्त सचिव और सचिव पद पर पहुंचते थे।
अब सीधे ही भर्ती विभिन्न मंत्रालयों में उपसचिव, संचालक और संयुक्त सचिव के रूप में की जा रही है। एक तरह से यह नियमों का दुरुपयोग है। संवैधानिक प्रावधानों का पालन भी सरकार नहीं कर रही है। जिसके कारण यह मामला अब तूल पकड़ रहा है। एनडीए के सहयोगी दलों ने भी इस तरह से की जा रही नियुक्तियों का विरोध शुरू कर दिया है। जनता दल यू ने इस तरह की भर्ती पर गंभीर चिंता जताई है। वहीं केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने भी स्पष्ट रूप से चेतावनी देते हुए कहा है कि इस तरह की नियुक्तियों में आरक्षण का पालन किया जाना चाहिए। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने भी इसे संविधान विरोधी बताते हुए आरक्षण खत्म करने की मांग की है। कांग्रेस ने आरोप लगाया है, सरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से जुड़े हुए लोगों को प्रमुख पदों पर सीधे नियुक्त कर रही है। इस तरह की नियुक्तियों से दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के हितों का नुकसान हो रहा है। संविधान में जिस तरह से कार्यपालिका में अधिकारियों का चयन किया जाना है, उसका पालन भी सरकार नहीं कर रही है। सरकार में पूंजीपतियों का सीधा हस्तक्षेप बढ़ रहा है।
(ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)