लेखक
ज्ञानेन्द्र रावत
वर्तमान में देश हीटवेव ( heatwave ) की भीषण चपेट में है। असलियत यह है कि देश में हीटवेव कहें, उष्ण लहर कहें या फिर लू कहें की तीव्रता और घातकता में दिनोंदिन तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। ताजा अध्ययन इसका प्रमाण है कि मौजूदा हीटवेव पहले की तुलना में चार डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म हो चुकी है। क्लाईमामीटर की नयी रिपोर्ट में 1950 के बाद से अबतक हीटवेव की भयावहता और उसके कारणों का विश्लेषण करने के बाद खुलासा किया गया है कि जो हीटवेव साल 1950 और साल 2000 के बीच चलती थी, उसमें और मौजूदा हीटवेव में काफी अंतर आ चुका है। इस निष्कर्ष तक पहुंचने में यूरोपीय मौसम विज्ञान एजेंसी कापरनिक्स के ईआरए आंकड़ों के इस्तेमाल किये जाने के बाद कहा गया है कि मौजूदा हीटवेव उसकी तुलना में चार डिग्री और ज्यादा गर्म हो चुकी है। इसके चलते मानव स्वास्थ्य के लिए भीषण खतरा पैदा हो गया है। इसके लिए मानव जनित जलवायु परिवर्तन पूरी तरह जिम्मेदार है।
heatwave के साथ मौसम में भी बदलाव
गौरतलब यह है कि इसमें प्राकृतिक कारणों से उपजे जलवायु परिवर्तन की भूमिका लगभग नगण्य ही है। बहरहाल रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में हीटवेव ( heatwave ) के साथ-साथ मौसम में भी कई बदलाव देखे जाने का उल्लेख किया गया है। इनमें सतह के वायु दबाव में बढ़ोतरी, हवाओं की गति और तापमान के पैटर्न मैं हुए काफी बदलावों का उल्लेख है। रिपोर्ट की मानें तो इन बदलावों में नमी का बढऩा, हवाओं की गति में यकायक कमी और सर्दी प्रमुख है। इसके अलावा पिछले 80 बर्षों में दुनिया के महानगरों में अत्याधिक गर्मी का अनुभव करने वाले दिनों की तादाद भी तीन गुणा हो गयी है। दरअसल 1940 के दशक में औसतन वैश्विक समुद्री सतह पर सालाना लगभग 15 दिन अत्याधिक गर्मी देखी जाती थी लेकिन वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण आज यह आंकड़ा बढक़र 50 दिन प्रति वर्ष हो गया है।
प्रोसीडिंग्स आफ द नेशनल एकेडेमी आफ साइंसेज नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक अब समुद्री हीटवेव लम्बे समय तक सामान्य से काफी ऊपर रहती है। यह भी कि वैश्विक तापमान बढ़ोतरी के चलते अत्याधिक समुद्री गर्मी की घटनाएं लम्बे समय तक बनी रहती हैं। इसमें दो राय नहीं है कि तापमान में बढ़ोतरी से घातक लू चलने की घटनाओं में बीते दशकों में तेजी से वृद्धि हुई है। बीते दो दशक तो लू से मरने वालों की तादाद में हुई बढ़ोतरी के जीते-जागते सबूत हैं। हर साल दुनिया में 1.53 लाख से ज्यादा लोगों की मौत लू के कारण होती है। इसमें पांचवें हिस्से से अधिक मौतें भारत में होती हैं। भारत के बाद चीन और रूस में लू से जुड़ी मौतें सर्वाधिक हैं। यहां करीब 14 फीसदी मौतें हुयी हैं। वैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार पिछले तीन दशक में हर साल कुल 1,53,078 लोगों की मौत लू से हुई है। यह भी कि हर साल गर्मियों में होने वाली कुल मौतों में से लगभग आधी एशिया से और 30 फीसदी से अधिक यूरोप में हुई हैं। ताजा अध्ययन में पता चला है कि जलवायु परिवर्तन ने अप्रैल में पूरे एशिया में हीटवेव की तीव्रता को काफी बढा़ दिया है। इस अवधि में अरबों लोगों को प्रभावित किया है।
स्विट्जऱलैंड स्थित ईटीएच ज्यूरिख यूनिवर्सिटी के एक नये अध्ययन के आंकड़ों के आधार पर यह खुलासा हुआ है कि दुनिया में यदि भविष्य में इसी प्रकार प्रतिकूल मौसमी परिस्थितियों की घटनाओं में और बढ़ोतरी हुयी तो उससे लू सम्बन्धी मामलों में मृत्यु दर बढऩे की और आशंका है। गौरतलब है कि 2003 में यूरोप में 47.5 डिग्री सेल्सियस तापमान पहुंच गया था जिससे लू लगने के दौरान 45 हजार लोगों की मौत हो गयी थी। वहीं बीते 20 सालों में यह आंकड़ा करीब एक लाख तक पहुंच गया है। इसके अलावा शोधकर्ताओं द्वारा 2013 से यूरोप, दक्षिण एशिया, लैटिन अमेरिका, अमेरिका, कनाडा सहित दुनिया के 47 देशों के 748 शहरों में रोजाना गर्मी से सम्बन्धित मृत्यु दर सम्बन्धी एकत्रित आंकड़े के अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है कि लू की घटनाओं में कहीं भी कमी नहीं मिली है और वहां लू से मरने वालों की तादाद में बढ़ोतरी हुई है। हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने कार्बन डाई आक्साइड में हुई रिकार्ड बढ़त और तापमान में लगातार होती बढ़ोतरी के चलते हीटवेव की भयावहता की आशंका व्यक्त की है।
दरअसल हीटवेव की तीव्रता और घातकता की जद में देश की 80 फीसदी आबादी और 90 फीसदी क्षेत्रफल आने की आशंका व्यक्त की गयी है। सबसे बडा़ खतरा यह है कि यदि हीटवेव से निपटने की दिशा में त्वरित कार्रवाही नहीं की गयी तो भारत को सतत विकास लक्ष्य यानी एसडीजी को हासिल करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो हीटवेव की स्थिति मानव शरीर के लिए अत्याधिक खतरनाक होती है। इससे डिहाईड्रेशन, हीटस्ट्रोक और मौत भी हो सकती है। पिछली 2023 की गर्मियों में योरोप में इससे 61,672 से अधिक लोगों की मौत इसका प्रमाण है। इसकी चपेट में बच्चे, 80 से ज्यादा उम्र वाले बुजुर्ग, विशेष रूप से महिलाएं, फेफडो़ं की पुरानी बीमारी वाले, निर्माण और श्रम से जुड़े लोग ज्यादा आते हैं। इन लोगों पर हीटवेव का जोखिम ज्यादा रहता है। फिर वह जो पहले से ही स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनको ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है।सच यह है कि बीते बरसों में हर महाद्वीप को हीटवेव ने प्रभावित किया है। इससे जंगलों में आग की घटनाओं में बेतहाशा बढो़तरी हुई। 2022 का अप्रैल का महीना बीते 122 सालों में सबसे ज्यादा गरम रहा है। यही नहीं साल 1992 से लेकर अभी तक लू के चलते तकरीब 24 हजार लोगों की मौतें हुयी हैं। आने वाले 26 सालों में 60 करोड़ लोग इससे सर्वाधिक प्रमावित होंगे। इससे 31 से 48 करोड़ लोगों के जीवन की गुणवत्ता में कमी दर्ज की जायेगी। विश्व मौसम विज्ञान संगठन डब्ल्यूएमओ की रिपोर्ट की मानें तो बीता दशक धरती पर अभी तक का सबसे गरम दशक रहा है। यह वर्ष भी गर्मी का रिकार्ड तोड़ देगा। साल के शुरूआती संकेत इसके सबूत हैं। 2027 तक पूरी दुनिया में रिकार्ड तोड़ गर्मी की आशंका है। चिंता की बात यह है कि यदि तापमान वृद्धि की दर पर अंकुश नहीं लगा तो सदी के अंत तक गर्मी से 1.5 करोड़ लोग मौत के मुहाने तक पहुंच जायेंगे।
कोलंबिया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने कहा है कि दुनिया की प्रमुख जीवाश्म ईंधन कंपनियों द्वारा तेल और गैस का अत्याधिक मात्रा में उत्सर्जन वह अहम कारण है जिसके चलते उत्सर्जन स्तर यदि 2050 तक यही रहा तो 2100 तक गर्मी अपने घातक स्तर तक पहुंच जायेगी जिसका नतीजा लाखों लोगों की मौत के रूप में होगा। यह भी कि प्रत्येक मिलियन टन कार्बन में बढो़तरी से दुनिया भर में 226 अतिरिक्त हीटवेव की घटनाओं में बढो़तरी होगी।
संयुक्त राष्ट्र की जलवायु समिति के अनुसार यदि धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है तो 2030 तक कार्बन उत्सर्जन 43 फीसदी तक घटाना होगा। क्योंकि धरती के गर्म होने की रफ्तार अनुमान से कहीं ज्यादा है। अहम सवाल कार्बन उत्सर्जन कम करने का है, यदि ऐसा नहीं हुआ जिसकी संभावना अधिक है और उस दशा में सदी के आखिर तक धरती का तापमान बढक़र चार डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जायेगा। उस दशा में धरती रहने काबिल बची रह पायेगी? चिंता की असली वजह यही है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)