भारतीय राजनीति में दिग्विजय सिंह एक ऐसा नाम है, जो हमेशा सक्रिय और मुखर रहा है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 1993 से 2003 तक उनके कार्यकाल के बाद भी, वे राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हैं। कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता आज भी उनसे सीधे जुड़े हुए हैं, और उनकी स्वीकार्यता इतनी व्यापक है कि उनके यहाँ सत्ताधारी दल के नेताओं की अपेक्षा अधिक लोग जुटते हैं। यही कारण है कि वे हमेशा भाजपा के निशाने पर रहते हैं।
दिग्विजय सिंह का कार्यकाल सामाजिक सुधार, ग्रामीण सशक्तिकरण, कृषि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और प्रशासनिक नवाचारों का एक स्वर्णिम दौर रहा है। यह वह दौर था जब भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ था, और राज्यों को वैश्विक बदलावों के साथ तालमेल बिठाने की चुनौती थी।
दिग्विजय सिंह ने मध्य प्रदेश को ‘बीमारू’ राज्य की छवि से बाहर निकालने का साहसिक प्रयास किया। हालाँकि, राजनीतिक साजिशों, प्राकृतिक आपदाओं और मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ बँटवारे के कारण वित्तीय और बुनियादी ढाँचे की कृत्रिम कमियाँ गिनाई गईं, जिससे उनकी छवि को नुकसान पहुँचाने की कोशिश हुई। लेकिन समय के साथ उनकी उपलब्धियाँ सामने आईं, और आज 20 साल बाद उनके योगदान की चर्चा हो रही है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का बँटवारा शांतिपूर्ण ढंग से हुआ, जो दिग्विजय सिंह के कुशल नेतृत्व को दर्शाता है। दिग्विजय सिंह का दस वर्ष का कार्यकाल पूरे देश में एक अनोखा उदाहरण है जिसपर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा।
बीमारू का सच और दिग्विजय सिंह के समक्ष चुनौती
1980 के दशक में अर्थशास्त्री अशोक मित्रा ने बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को ‘बीमारू’ का दर्जा दिया था, जो दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री बनने से 13 साल पहले की बात है। उस समय 1977 से 1980 तक मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार थी, और कैलाश चंद्र जोशी, वीरेंद्र कुमार सकलेचा और सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री रहे। 1980 से 1993 तक कांग्रेस के अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा और श्यामा चरण शुक्ल भी मुख्यमंत्री रहे।
1993 में जब दिग्विजय सिंह ने सत्ता संभाली, तो उन्होंने ‘बीमारू’ राज्य का टैग हटाने के लिए आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक सुधारों पर जोर दिया। उन्होंने मध्य प्रदेश को नई दिशा दी। बावजूद एक राजनीतिक साजिश के तहत दिग्विजय सिंह की कार्यकाल के विरुद्ध निरंतर दुष्प्रचार जारी रहे, जिसका मकसद एक दूरदर्शी नेता की छवि को धूमिल करना था।
2003 के विधानसभा चुनाव से पहले, भाजपा ने दिग्विजय सिंह को ‘श्रीमान बंटाधार’ कहकर प्रचारित किया। बिजली संकट, खराब सड़कें और कथित भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को उछाला गया। कुछ कांग्रेसी नेताओं की चुप्पी ने भी सवाल उठाए। लेकिन इसका मूल कारण राजनीतिक साजिशें, प्राकृतिक आपदाएँ और बँटवारे से उत्पन्न वित्तीय संकट था। दिग्विजय सिंह ने इनका डटकर मुकाबला किया और अपनी नीतियों पर अडिग रहे। उनकी यह दृढ़ता अभिमन्यु जैसी थी, जो चक्रव्यूह में घिरकर भी लड़ता रहा।
दिग्विजय सिंह के कार्यकाल का विश्लेषण
आर्थिक परिदृश्य: प्रगति के साथ चुनौतियाँ
- 1993 में मध्य प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 40% कम थी (₹1,500 बनाम ₹2,500)। साक्षरता दर 27.1% थी, और राज्य का कर्ज ₹9,000 करोड़ था।
- दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में राज्य का बजट ₹8,000 करोड़ से बढ़कर ₹24,000 करोड़ हुआ, जिसमें 60% से अधिक विकास कार्यों पर खर्च हुआ।
- कृषि विकास दर 3.5% प्रति वर्ष रही, जो राष्ट्रीय औसत (2.5%) से अधिक थी।
- सोयाबीन उत्पादन 10 लाख टन से बढ़कर 40 लाख टन हुआ, जिसने मध्य प्रदेश को ‘सोयाबीन की राजधानी’ बनाया।
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार के दौरान मध्य प्रदेश के साथ पक्षपात के आरोप लगते रहे। योजना आयोग के आँकड़े भी बताते हैं कि नवीं पंचवर्षीय योजना में मध्य प्रदेश को प्रति व्यक्ति केंद्रीय सहायता राष्ट्रीय औसत से 20% कम मिली। बँटवारे के कारण मध्य प्रदेश का 30% हिस्सा, कई बिजली परियोजनाएँ और औद्योगिक इकाइयाँ छत्तीसगढ़ को चली गईं, जिससे 35% राजस्व की कमी हुई।
केंद्र ने संसाधनों का बँटवारा सही नहीं किया, और मध्य प्रदेश को बिजली खरीदनी पड़ी। सूखे और बँटवारे के कारण प्रशासनिक खर्च बढ़ा, और गैर-योजनागत खर्च (वेतन, पेंशन, ब्याज) में तेजी आई। केंद्र से मिलने वाला राजस्व (30-35%) समय पर नहीं मिला, जिससे 2000-03 के बीच विकास व्यय 15% कम हुआ।
सामाजिक सुधार: ग्रामीण सशक्तिकरण का मॉडल
दिग्विजय सिंह का सबसे बड़ा योगदान सामाजिक और ग्रामीण सशक्तिकरण में रहा। उनक कार्यकाल स्थानीय स्वशासन को सशक्त करने के लिए एक निर्णायक मोड़ था। मध्यप्रदेश वह पहला राज्य बना जिसने 73वें संविधान संशोधन को ज़मीनी हकीकत में बदला। ग्राम सभाओं को महज़ औपचारिकता मानने की बजाय, उन्हें निर्णय लेने की ताकत दी गई। यह मॉडल इतना प्रभावी रहा कि बाद में इसे दूसरे राज्यों और केंद्र सरकार ने भी अपनाया। दिग्विजय सिंह ने सत्ता का केंद्रीकरण तोड़ा और योजनाओं की निगरानी खुद जनता के हाथ में सौंपने का साहस दिखाया जो भारत में शासन की पारदर्शिता की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल थी।
दिग्विजय सिंह का विकास मॉडल केवल सड़कों और भवनों तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय को भी उतनी ही प्राथमिकता दी। ‘राजीव गांधी शिक्षा मिशन’ जैसी पहलें दूरदराज़ के आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में बाल शिक्षा के अधिकार को हकीकत बनाने की कोशिश थीं। उन्होंने महिलाओं के लिए स्व-सहायता समूहों को बढ़ावा देकर उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने की नींव रखी। यह वह दौर था जब राज्य की राजनीति में सामाजिक सरोकारों को सिर्फ भाषणों का हिस्सा नहीं, बल्कि बजट और योजनाओं में जगह मिलने लगी थी।
- शिक्षा गारंटी योजना (EGS): ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में 90 दिनों के भीतर स्कूल खोले गए। 26,000 नए प्राथमिक स्कूल खुले। साक्षरता दर 43.5% (1993) से 63.7% (2003) हो गई। महिला साक्षरता में 21% की वृद्धि हुई, जो राष्ट्रीय औसत (14%) से कहीं अधिक थी। यूनेस्को ने इस मॉडल की सराहना की।
- पंचायती राज: 52,000 ग्राम सभाएँ स्थापित हुईं। पंचायतों को वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार मिले। 33% महिला आरक्षण से 1 लाख से अधिक महिलाएँ नेतृत्व में आईं। ‘जिला सरकार’ मॉडल से जिलों को स्वतंत्र बजट और निर्णय लेने की शक्ति मिली।
- जल संरक्षण: जलाभिषेक अभियान और राजीव गांधी वाटरशेड मिशन के माध्यम से 3.5 लाख जल संरचनाएँ बनीं, जिससे 6 लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित हुई। भूजल स्तर में सुधार और कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई।
- कृषि सुधार: मंडियों में बिचौलियों की भूमिका कम हुई, नगद भुगतान की व्यवस्था हुई, और अनुसूचित जाति-जनजाति के किसानों को भूमि का स्वामित्व दिया गया। 2001-02 में सूखे के कारण खरीफ उत्पादन 15-25% गिरा। केंद्र से ₹1,200 करोड़ की माँग के बावजूद केवल ₹400 करोड़ मिले। फिर भी, कृषि विकास दर 3.5% रही।
स्वास्थ्य क्षेत्र
- प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या में वृद्धि हुई।
- रोगी कल्याण समितियों के माध्यम से पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया गया।
- शिशु मृत्यु दर 103 प्रति हजार (1991) से घटकर 85 (2001) हो गई।
- कुपोषण दर 16% (1988-89) से घटकर 2.92% (2002) हुई।
प्रशासनिक नवाचार: पारदर्शिता की नींव
- सूचना का अधिकार (RTI): मध्य प्रदेश 2000 में RTI लागू करने वाला पहला राज्य बना, जो राष्ट्रीय RTI 2005 का आधार बना।
- ई-गवर्नेंस: ‘ज्ञानदूत’ और ‘स्मार्ट गवर्नेंस’ जैसी पहल शुरू हुईं।
- लोक सुनवाई और जन दर्शन: जन शिकायतों का त्वरित निपटारा हुआ।
- भोपाल विज़न डॉक्यूमेंट: भोपाल को आधुनिक और पर्यावरण-संवेदनशील शहर बनाने की योजना बनी।
चुनौतियाँ
सड़कों की स्थिति अपेक्षा के अनुरूप नहीं थी लेकिन उसके पीछे भी कई कारण हैं। साल 1999 में केंद्र सरकार की नीति से ट्रक लोड 10 टन से 21 टन होने के कारण 40,000 किमी सड़कें क्षतिग्रस्त हुईं। मरम्मत हेतु राज्य की ओर से ₹500 करोड़ की माँग की गई, पर केवल ₹150 करोड़ ही मिले। बिजली घाटा ₹3,000 करोड़ तक पहुँच गया, क्योंकि बँटवारे में 65% थर्मल पावर प्लांट छत्तीसगढ़ को दे दिए गए। तमाम चुनौतियों और बजट की अनुपलब्धता के बावजूद भी ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों की पहुंच सुनिश्चित करने की भरसक कोशिशें हुई।
दिग्विजय सिंह का कार्यकाल सिखाता है कि विकास के लिए संसाधनों से ज्यादा नजरिया मायने रखता है। सूखा, बँटवारा और राजनीतिक साजिशों के चक्रव्यूह में भी उन्होंने मध्य प्रदेश को नई दिशा दी। उनकी कुछ कमियाँ भी रहीं होंगी, लेकिन उनकी उपलब्धियाँ ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण का प्रतीक बनीं।
उनका प्रशासनिक दृष्टिकोण लोगों को योजनाओं का लाभार्थी नहीं, भागीदार बनाने पर आधारित था। आज जब भारत समावेशी, टिकाऊ और विकेंद्रीकृत विकास की बात करता है, तब दिग्विजय सिंह का नेतृत्व यह दिखाता है कि सीमित संसाधनों में भी व्यापक बदलाव की नींव रखी जा सकती है।
केदार सिरोही की कलम से