दुनिया में पहली बार चीन में बने firecrackers

स्वतंत्र समय, इंदौर

भारत में हर साल दिवाली पर पटाखों ( firecrackers ) को लेकर होने वाला विवाद अब आम बात हो गई है। बढ़ते प्रदूषण के कारण दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पश्चिम बंगाल समेत कई राज्यों में पटाखों पर बैन लगाने का फैसला लिया गया है। हालांकि, कुछ राज्यों ने दिवाली पर कुछ घंटों के लिए पटाखे फोडऩे की छूट दी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में स्पष्ट रुख अपनाते हुए कहा कि वे किसी के जश्न के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन यह जश्न दूसरों की सेहत पर असर नहीं डालना चाहिए।

firecrackers का आविष्कार करीब 9वीं शताब्दी में चीन में हुआ था

अब सवाल यह है कि भारत में पटाखों का चलन कब और कैसे शुरू हुआ और यह उद्योग इतना बड़ा कैसे बन गया। पटाखों ( firecrackers ) का आविष्कार करीब 9वीं शताब्दी में चीन में हुआ था और वहां से यह सिल्क रूट के जरिए भारत पहुंचा। शुरुआत में यह केवल शाही और धार्मिक आयोजनों में इस्तेमाल होता था, लेकिन धीरे-धीरे यह आम लोगों के बीच लोकप्रिय हो गया। आज, भारत दुनिया में पटाखों का दूसरा सबसे बड़ा निर्माता है, जिसका वार्षिक कारोबार 5000 करोड़ रुपये से अधिक है। तमिलनाडु का शिवकाशी पटाखा उत्पादन का प्रमुख केंद्र है, जहां 90′ से अधिक पटाखों का निर्माण होता है। पटाखों का भारत में सांस्कृतिक महत्व है, लेकिन पर्यावरण और स्वास्थ्य पर इसके दुष्प्रभाव के कारण अब इसका विरोध बढ़ता जा रहा है।

कहां और कैसे हुई पटाखों की शुरुआत?

पटाखों की शुरुआत को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं और अधिकतर इतिहासकार इसकी उत्पत्ति का श्रेय चीन को देते हैं। बताया जाता है कि छठी सदी में चीन में यह खोज एक दुर्घटना के रूप में हुई थी। एक रसोइए ने गलती से सॉल्टपीटर (पोटेशियम नाइट्रेट) को आग में डाल दिया, जिससे रंगीन लपटें निकलीं। इस प्रयोग के बाद, उसने सॉल्टपीटर के साथ कोयला और सल्फर मिलाकर एक मिश्रण बनाया और उसे आग में डाला, जिसके परिणामस्वरूप एक तेज धमाका हुआ और रंग-बिरंगी लपटें दिखाई दीं। इस घटना ने बारूद की खोज की नींव रखी और इसे पटाखों का प्रारंभिक रूप माना गया। धीरे-धीरे यह आविष्कार चीन से अन्य देशों तक पहुंचा और धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सवों का हिस्सा बन गया। आज, पटाखों का उपयोग दुनिया भर में विभिन्न अवसरों पर जश्न मनाने के लिए किया जाता है, लेकिन पर्यावरणीय और स्वास्थ्य प्रभावों के चलते इस पर नियंत्रण और प्रतिबंध की आवश्यकता महसूस की जा रही है। एक अन्य मान्यता के अनुसार, बारूद का आविष्कार चीन के सैनिकों द्वारा किया गया था। कहा जाता है कि सैनिकों ने कोयले पर सल्फर फेंका, जो पोटैशियम नाइट्रेट और चारकोल के साथ मिलकर एक विस्फोटक मिश्रण बन गया। धूप की गर्मी से इस मिश्रण में तेज धमाका हुआ, जिससे सैनिकों ने इसकी ताकत का एहसास किया। इसके बाद इस मिश्रण का उपयोग बांस की नलियों में भरकर विस्फोटक उपकरण के रूप में किया जाने लगा। इस प्रकार, पहली बार बांस के जरिए पटाखों का निर्माण किया गया। इस तकनीक को आगे चलकर उत्सवों और धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा बनाया गया, जिससे पटाखों का सांस्कृतिक महत्व बढ़ा।

चीन में हुआ बारूद का आविष्कार

यह व्यापक रूप से माना जाता है कि बारूद का आविष्कार चीन में ही हुआ था, क्योंकि इसके बाहर किसी भी प्राचीन सभ्यता में बारूद के शुरुआती इस्तेमाल के प्रमाण नहीं मिलते। चीन में बारूद की खोज से पहले ही, लोग बांस को आग में डालकर उसकी फटने वाली आवाज से बुरी आत्माओं को दूर करने का विश्वास रखते थे। लगभग 2200 साल पहले, चीनी लोगों ने बांस की गांठों को गर्म करके फटने का यह प्रयोग शुरू किया था। इस आवाज को वे बुरी आत्माओं और बुरे विचारों को दूर भगाने का माध्यम मानते थे और इसे प्रमुख त्योहारों और उत्सवों में शामिल किया जाता था। धीरे-धीरे, यह परंपरा नव वर्ष, जन्मदिन, विवाह, और अन्य प्रमुख त्योहारों पर आतिशबाजी के रूप में विकसित हो गई। भारत में भी आतिशबाजी से जुड़े कुछ संदर्भ मिलते हैं। संत कवि एकनाथ ने अपनी 1570 में लिखी एक कविता में महाभारत काल का एक किस्सा उल्लेख किया है, जिसमें रुक्मिणी और भगवान कृष्ण के विवाह के अवसर पर आतिशबाजी का वर्णन किया गया है। हालांकि, यह वर्णन प्रतीकात्मक हो सकता है, क्योंकि भारत में बारूद और पटाखों का व्यवस्थित रूप से प्रयोग मध्यकाल में ही व्यापक रूप से होने लगा, जब विदेशी व्यापार और आवागमन से यह तकनीक भारत में पहुंची।

जानिए चीन से बाहर कब निकले पटाखे?

13वीं सदी में बारूद का चीन से बाहर निकलना एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इसी समय के आसपास, सिल्क रूट और मिंग राजवंश की सैन्य गतिविधियों के जरिए बारूद की जानकारी यूरोप, अरब देशों और दक्षिण पूर्व एशिया में पहुंची। चीन से बाहर आने के बाद, बारूद का प्रयोग विभिन्न संस्कृतियों में व्यापक रूप से फैलने लगा। यूरोप और अरब देशों में बारूद का इस्तेमाल हथियार बनाने में होने लगा, जिससे युद्ध की तकनीकों में बड़ा बदलाव आया। जल्द ही, यूरोप में आतिशबाज़ी बनाने की कला (पायरोटेक्निक) को लेकर उत्साह बढ़ा, और इसके लिए विशेष ट्रेनिंग स्कूल खोले गए। इन स्कूलों में रिसर्च और प्रयोग के आधार पर लोगों को सिखाया गया कि बारूद से पटाखे और हथियार कैसे बनाए जा सकते हैं। 13वीं से 15वीं सदी के बीच, बारूद का ज्ञान कई जगहों पर पहुंच गया, और खुशी के अवसरों पर आतिशबाज़ी करने की परंपरा शुरू हो गई। चीन के मिंग राजवंश की सेना और व्यापारिक मार्गों के जरिए बारूद की जानकारी पूर्वी भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और अरब देशों में भी फैली, जिससे इन क्षेत्रों में भी आतिशबाज़ी का प्रयोग बढऩे लगा।

भारत में कब आए पटाखे?

भारत में पटाखों का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है, जिसके प्रमाण प्राचीन ग्रंथों, पेंटिंग्स, और ऐतिहासिक घटनाओं में मिलते हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक़, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी एक विशेष चूर्ण का उल्लेख है, जिसके जलने पर तीव्र लपटें उठती थीं। इसे बांस जैसी नलिका में डालकर पटाखा बनाया जा सकता था। यह दर्शाता है कि भारत में विस्फोटक पदार्थों का ज्ञान था और संभवत: इसका प्रयोग उत्सवों या युद्ध में किया जाता था। इसके अलावा, सदियों पुरानी पेंटिंग्स में भी आतिशबाजी और फुलझडिय़ों के दृश्य मौजूद हैं, जो यह संकेत देते हैं कि भारत में प्राचीन समय में भी पटाखों का प्रयोग होता था। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार, 15वीं सदी में बाबर ने भारत पर आक्रमण करते समय बारूद का इस्तेमाल किया था। शाहजहां के बेटे दारा शिकोह के बेटे की शादी से जुड़ी 1633 की एक पेंटिंग में भी आतिशबाजी का दृश्य दर्शाया गया है। इतिहासकार पीके गोड़े ने अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ फायरवक्र्स इन इंडिया बिटवीन 1400 एंड 1900 एडी’ में 1518 में गुजरात में एक ब्राह्मण दंपत्ति की शादी का उल्लेख किया है, जिसमें आतिशबाजी का प्रयोग किया गया था। 17वीं सदी के यात्री फ्रैंकोइस बर्नियर ने भी उल्लेख किया कि उस समय पटाखों का उपयोग हाथियों की ट्रेनिंग में किया जाता था।

भारत में कहां बनते हैं सबसे ज्यादा पटाखे और कैसे हुई शुरुआत?

भारत में पटाखा उत्पादन का प्रमुख केंद्र तमिलनाडु का शिवकाशी है, जो चेन्नई से लगभग 500 किलोमीटर दूर स्थित है। यहां 800 से अधिक पटाखा इकाइयां हैं, जो देश के कुल पटाखा उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा बनाती हैं। शिवकाशी में पटाखा उद्योग की स्थापना का श्रेय नडार भाइयों, षणमुगम नडार और अय्या नडार, को जाता है। 1922 में, नडार भाइयों ने कोलकाता में माचिस बनाने की कला सीखी और इसे शिवकाशी में लागू करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक छोटी सी माचिस फैक्ट्री की शुरुआत की और व्यवसाय को धीरे-धीरे बढ़ाया। 1926 में उन्होंने अपने-अपने कारोबार को अलग कर लिया और पटाखा उत्पादन की शुरुआत की। आज, उनकी कंपनियां—स्टैंडर्ड फायर वक्र्स और श्री कालिश्वरी फायर वक्र्स—देश की दो सबसे बड़ी पटाखा निर्माता कंपनियों में गिनी जाती हैं। शिवकाशी में बने पटाखे न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों में भेजे जाते हैं, बल्कि कई देशों को भी निर्यात किए जाते हैं, जिससे यह क्षेत्र लाखों लोगों की आजीविका का स्रोत बन चुका है।

पटाखों से बच्चों को हो सकते हैं ये गंभीर नुकसान

  • आंखों में चोट का खतरा… पटाखों की चिंगारी, मलबा, और तेज विस्फोट आंखों में जलन, कट, या अन्य चोटें पहुंचा सकते हैं। यदि बच्चे पटाखे नजदीक से जलाते हैं, तो आंखों को लंबे समय तक नुकसान हो सकता है, जिससे दृष्टि में समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
  • दृष्टि हानि का जोखिम… कई बार पटाखों के कारण आंखों का कॉर्निया घायल हो जाता है, जिससे बच्चों की देखने की क्षमता प्रभावित होती है। यह हानि इतनी गंभीर हो सकती है कि इसे ठीक करना कठिन होता है। इसलिए बच्चों को पटाखों से सुरक्षित रखना जरूरी है।
  • चोट के लक्षणों का देर से उभरना… विशेषज्ञों के अनुसार, आतिशबाजी से लगी चोटों के लक्षण तुरंत दिखाई नहीं देते। प्रारंभ में बच्चा सामान्य दिख सकता है, परंतु कुछ समय बाद धुंधली दृष्टि या रोशनी के प्रति संवेदनशीलता जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इस कारण माता-पिता को सतर्क रहना चाहिए और बच्चों की आंखों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए।
  • रेटिना को गंभीर नुकसान… आतिशबाजी से आंखों के पीछे स्थित रेटिना को गंभीर चोट लग सकती है, जो लंबे समय तक दृष्टि से जुड़ी समस्याएं उत्पन्न कर सकती है। अत्यधिक गंभीर मामलों में यह अंधापन का कारण बन सकती है। इसीलिए बच्चों को पटाखों से दूर रखना और उनकी आंखों की सुरक्षा सुनिश्चित करना बेहद आवश्यक है। इन जोखिमों के कारण दिवाली पर बच्चों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए और उन्हें पटाखों से दूर रहने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

शिवकाशी से देशभर में बेचे गए 6000 करोड़ के पटाखे

शिवकाशी, तमिलनाडु के विरुधुनगर जिले में स्थित है और पटाखा उत्पादन के लिए जाना जाता है। पिछले साल, दिवाली के लिए यहां से लगभग 6,000 करोड़ रुपये के पटाखों का उत्पादन किया गया, जो भारत के विभिन्न राज्यों और जिलों में वितरित किए गए हैं। हालांकि, तमिलनाडु में इस बार बिक्री में 2023 की तुलना में लगभग 50 करोड़ रुपये की कमी दर्ज की गई है। पटाखा निर्माताओं का कहना है कि इस गिरावट के प्रमुख कारणों में लगातार बारिश के चलते उत्पादन में आई बाधा, पटाखा कारखानों में नियमित निरीक्षणों के कारण उत्पादन में धीमापन, और अस्थायी लाइसेंस जारी करने में देरी शामिल है। इन कारणों से उत्पादन में लगभग 10 प्रतिशत की कमी आई है। हालांकि, शिवकाशी से देशभर में भेजे गए कुल पटाखों में से 95 प्रतिशत बिकने की जानकारी मिली है, जो कि बिक्री के दृष्टिकोण से सकारात्मक है।

पटाखों की चकाचौंध में छिपा है खतरा

दिवाली पर पटाखे जलाना बच्चों के लिए विशेष उत्साह का कारण होता है। वे इस त्योहार को पटाखों के रंग-बिरंगे चमक और तेज आवाज के साथ मनाते हैं और दिवाली का बेसब्री से इंतजार करते हैं। लेकिन, पटाखों की तेज चमक और तेज आवाज बच्चों की आंखों और सुनने की क्षमता के लिए जोखिम भरी हो सकती है। हर साल दिवाली के बाद कई घटनाएं सामने आती हैं, जिनमें पटाखों के कारण बच्चों को गंभीर चोटें आती हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि पटाखे जलाते समय सावधानी बरती जाए और बच्चों को हमेशा सुरक्षित दूरी पर रहकर पटाखों का आनंद लेने की सलाह दी जाए।