सरकारी अमले पर बढ़ते हमले और मजबूर police निजाम…


लेखक
चैतन्य भट्ट

पिछले हफ्ते की खबर है। गुना में 30-35 लोगों ने पुलिस ( police  ) चौकी पर हमला किया, मारपीट और तोड़फोड़ की और पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए बुलाए गए आदमी जीसी को छुड़ा ले गए। एएसआई और सिपाही ने किसी तरह भाग कर ज्ञान बचाई। यह उस पुलिसिया निजाम की मौजूदा तस्वीर है जो सुरक्षा का पर्याय माना जाता है और जिस पर कभी दुर्दांत से दुर्दांत अपराधी भी हाथ उठाने से कांपता था। सरकारी अमले पर हमले की यह घटना नहीं नहीं है। पिछले साल ऐसी 70 से ज्यादा घटनाएं हुई थीं और इस साल भी आंकड़ा दहाई में है। दूरदराज इलाकों ही नहीं जिला मुख्यालयों समेत राजधानी भोपाल में भी ऐसे मामले हुए हैं। पटवारी , तहसीलदार, सब इंजीनियर जैसे कर्मचारी छोडि़ए, वरिष्ठ अधिकारी भी शिकार बने हैं। आखिर अपराधियों के इस दुस्साहस की वजह क्या है?

अपराधी जानते हैं कि ऊपर बैठे लोग उन्हें police से बचा लेंगे

गोस्वामी तुलसीदास कह गए हैं : भय बिनु होई न प्रीति गुसाईं। दुनिया की कोई व्यवस्था हो, संख्या बल के दम पर कानून का राज्य स्थापित नहीं कर सकती। कानून का भय ही है जो अपराध रोकता है। और लगता है कि वह भय खत्म हो गया है। और इसका सबसे बड़ा कारण है, भृष्ट नेता, नौकरशाही और अपराधियों से बनने वाली त्रयी जिसने जमीन, खनन, शराब और सरकारी ठेकों जैसे रातों रात करोड़पति बनाने वाले मलाईदार धंधों पर साम्राज्य जमा लिया है। अपराधी जानते हैं कि ऊपर बैठे ताकतवर लोग उनका कुछ नहीं बिगडऩे देंगे और अदालतों में अव्वल तो गवाह नहीं मिलेंगे और मिले भी तो महंगे वकील उन्हें साफ बचा लेंगे।ऐसा नहीं है कि सरकारी अमले को कानूनी सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। धारा 354 , 504 , 506 , 332 , 383, 384, 386 के अनुसार काम में रुकावट, वाद विवाद, सरकारी कर्मचारियों पर अपशब्दों के प्रयोग, धमकी, अवैध वसूली, ब्लैकमेल,मारपीट जैसे मामलों में दो से 10 साल तक के सश्रम कारावास की सजा हो सकती है। अनधिकृत व्यक्तियों का जमावड़ा लगाकर जबरदस्ती कार्यलय प्रवेश, सरकारी संपत्ति को नुकसान, गड़बड़ी, बल एवं हिंसा का प्रयोग जैसे मामलों में धारा 420,378,379,141,143,146, 148,150 के तहत 6 माह से 3 साल सश्रम कारावास की सजा के प्रावधान हैं। राजनीतिक दबाव और अपराधी तत्वों के भय के चलते सरकारी अमला शिकायत दर्ज कराने से परहेज़ करता है और मामले बातचीत और राजनीतिक मध्यस्थता के दम पर निपटा दिए जाते हैं जो अंतत: अपराधी तत्वों का दुस्साहस बढ़ाता है।
पूर्णकालिक राजनेताओं की ऐसी समृद्धि आश्चर्यजनक है। यह सोच कर गर्व होता है कि दिन रात जनसेवा में संलग्न रह कर भी वे संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी करने के रास्ते निकाल लेते हैं। जाहिर है, अगर अपराध को प्रश्रय देने वाली भृष्ट नेताओं, अफसरशाही और अपराधियों की यह त्रयी कमजोर न हुई तो प्रशासनिक व्यवस्था को ठेंगे पर रखकर सरकारी अमले पर बेखौफ हमलों की ये घटनाएं और बढ़ेंगी। सब जानते हैं कि खनन, जमीन जायदाद, आबकारी और सरकारी ठेकों के धंधों में भ्रष्ट नेता और अफसर हिस्सेदार हैं। जो चंद उंगलियों पर गिने जा सकने वाले निष्ठावान लोग हैं, वे खुद को मजबूर और लाचार पाते हैं। विरोध पर स्थानांतरण जैसे प्रशासकीय कदमों का दंड मिलता है। गैर कानूनी तरीकों से पैसा छापने के इन धंधों में कमाल की राजनीतिक एकता दिखाई देती है और विपक्षी सारी राजनीतिक प्रतिबद्धता भूलकर मज़े से गलबहियां डाले नजर आते हैं। प्रसिद्ध उपन्यास गाडफादर के लेखक मारियो पुजो ने कहा है: हर चमत्कारिक भाग्योदय के पीछे एक अपराध छिपा होता है। क्या यही बात सरकारी अमले हमलावर हो रहे बेखौफ अपराधियों के दुस्साहस का राज है।मरहूम फऱाज़ साहब का बेहद मौजू शेर है : मैं आज ज़द पे अगर हूं तो बदगुमान न हो, चिराग सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं। यूरोप के इटली और लैटिन अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों के उदाहरण हैं जहां संगठित और राजनीतिक प्रश्रय प्राप्त अपराधी धीरे धीरे खुद राज्य से भी ज्यादा ताकतवर हो गए थे। कुछ देश उस दलदल से निकलने में कामयाब हुए तो कुछ अभी भी बाहर निकलने की जद्दोजहद कर रहे हैं। अच्छा होगा अगर हमारे राजनेता इस बात को समय रहते समझ लें। रहा सवाल आम आदमी का तो उसके हाथ में पांच साला चुनावी महोत्सव को छोडक़र और कुछ है नहीं। जब दलीय राजनीति की सारी की सारी व्यवस्था ही भृष्टाचार के रंग में रंगने को उतारु हो तो वह पांच साल में एक बार मिलने वाले अवसर का करेगा भी क्या ? ( लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)