Himalayas पर मंडराता संकट और जल प्रलय की आहट


ज्ञानेन्द्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद्

आज हिमालय ( Himalayas ) अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। एक ओर वह तापमान में बढ़ोतरी से हो रहे मौसम में आये बदलाव से जूझ रहा है, इसके कारण सूखे के संकट का सामना कर रहा है, वहीं जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के चलते पश्चिमी विक्षोभ से वर्षा,बर्फवारी व कम सर्दी से दो चार हुआ है, वहीं वह पर्यटन के चलते वायु प्रदूषण की समस्या से जार-जार हो रहा है। इसमें लगातार चौडी़ हो रही सडक़ों और पर्यटन के कारण बढ़ती गाडिय़ों की अहम भूमिका है।

Himalayas के अध्ययन से हुआ खुलासा

आर्यभट्ट प्रेक्षण एवं विज्ञान शोध संस्थान नैनीताल एवं दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा हिमालय ( Himalayas ) के जटिल और प्राचीन भूभाग पर कार्बन युक्त ऐरोसोल के अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि हिमालय में वायु प्रदूषण पर जीवाश्म ईंधन के जलने का ज्यादा असर पड़ रहा है। हिमालय अंचल में गाडिय़ों की बेतहाशा कई गुना बढ़ती तादाद हवा में जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी का प्रमुख कारण है। साथ ही हिमालय बस्तियों और शहरों के बोझ से अब हांफने लगा है, वहीं ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से ग्लेशियर से पिघलकर बनी झीलें जल प्रलय को आमंत्रण दे रही हैं।
इसमें दो राय नहीं है कि दुनिया के ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं या यों कहें कि वे खत्म हो रहे हैं, वह भयावह आपदाओं का संकेत है। जलवायु परिवर्तन का परिणाम है कि बीते 40 सालों में हिमालय से 440 अरब टन बर्फ पिघल चुकी है। जी बी पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के निदेशक प्रो0 सुनील नौटियाल की माने तो अकेले 2010 में ही 20 अरब टन बर्फ हिमालय के ग्लेशियरों से पिघली है। अगर ऐसा ही रहा तो इसके गंभीर दुष्परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे। दुनिया के वैज्ञानिकों ने भी आशंका जतायी है कि जलवायु परिवर्तन की मौजूदा दर यदि इसी प्रकार बरकरार रही तो इसमें कोई दो राय नहीं कि इस सदी के अंत तक दुनिया के दो तिहाई से ज्यादा ग्लेशियरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। उनके अनुसार यह, भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन पर , अंतर सरकारी पैनल यानी आईपीसीसी की रिपोर्ट ने करीब पांच साल पहले ही बताया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण अगर सीधा कोई बड़ा असर पड़ेगा तो वह हिमालय क्षेत्रों पर पड़ेगा। वह अब दिखाई भी दे रहा है। बीते बरस की घटनाएं आईपीसीसी की रिपोर्ट को साबित करने के लिए काफी हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण अतिवृष्टि का सीधा असर हिमालय पर ही पड़ा है, इसे नकारा नहीं जा सकता। बीते बरस की घटनाएं इसका जीता जागता सबूत हैं। असलियत में हम कहें कुछ भी, लेकिन यह कटु सत्य है कि हम दुनिया के बहुत सारे ग्लेशियरों को खोते चले जा रहे हैं। दुख तो इस बात का है कि इस खतरे के प्रति हमारा मौन समझ से परे है। जबकि हमारे पास ग्लेशियरों के पिघलने को सीमित करने की और उसमें अंतर पैदा करने की क्षमता है। बड़े ग्लेशियरों के मामले में इसकी संभावना ज्यादा है जबकि छोटे ग्लेशियरों के मामले में बहुत देर हो चुकी है।हिमालयी ग्लेशियरों के बारे में इसरो का हालिया अध्ययन चौंकाने वाला है जिसमें कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेजी से पिघल रहे ग्लेशियरों से बनी झीलों के फटने से जल प्रलय की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इसरो के अध्ययन की मानें तो उपग्रह इमेजरी से पता चला है कि हिमालयी ग्लेशियर पिघलकर बडी़-बडी़ झीलों का रूप ले रहे हैं। यदि 1984 से 2023 तक के दौरान हिमालय क्षेत्र में बनी झीलों का जायजा लें तो पाते हैं कि 2,431 झीलें आकार में दस हैक्टेयर से भी काफी बड़ी हैं। 1984 के बाद से अबतक 676 झीलों के क्षेत्रफल का विस्तार हुआ है और इनमें से 601 ऐसी हैं जिनका आकार दो बार बदल चुका है। इनमें 130 झीलें भारत में ही मौजूद हैं। एक अध्ययन के मुताबिक हिमालयी ग्लेशियरों को साल 2000 से 2020 के दौरान तकरीबन 2.7 गीगाटन का नुकसान हुआ है। ब्रिटेन और अमरीका की अध्ययन टीम के अनुसार पिछले आंकलनों में वृहद हिमालयी क्षेत्र में पिघलकर गिर रहे ग्लेशियरों के कुल नुकसान को 6.5 फीसदी कम करके आंका गया था। जबकि इस नुकसान का आंकड़ा 2.7 गीगाटन से भी काफी ज्यादा था। हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के अध्ययन के बाद खुलासा हुआ है कि यहां विभिन्न इलाकों में अधिकतर ग्लेशियर अलग- अलग दर पर पिघल रहे हैं। सरकार ने भी माना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने का न सिर्फ हिमालय की नदी प्रणाली के बहाव पर प्रतिकूल गंभीर प्रभाव पड़ेगा बल्कि इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं में भी काफी बढ़ोतरी होगी जिसका आम जन मानस पर व्यापक दुष्प्रभाव पड़ेगा। सरकार ने इसका खुलासा ग्लेशियरों का प्रबंधन देखने वाली संसद की स्थायी समिति को किया है। संसद की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण विभाग ने हिमालय में ग्लेशियरों के लगातार पिघलने, उनके पीछे खिसकने और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण में ग्लेशियरों के द्रव्यमान संतुलन में यह पाया है कि इस हिमालय अंचल में ग्लेशियर विभिन्न क्षेत्रों में अलग- अलग दर से अपने स्थान से खिसक रहे हैं या यूं कहें कि वे अलग- अलग गति से पिघल रहे हैं। इससे इस अंचल में हिमालयी नदी प्रणाली का प्रवाह गंभीर रूप से प्रभावित होगा बल्कि यह ग्लेशियर झील के फटने की घटनाएं, हिमस्खलन और भूस्खलन जैसी आपदाओं के जन्म का कारण भी बनेगा। यह भी कि यदि ग्लेशियरों के पिघलने की दर बरकरार रही तो इन ग्लेशियरों के भीतर दबे बैक्टीरिया और वायरस के फैलने का खतरा बढ़ जायेगा। ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण ग्लेशियर का सूक्ष्म जीवमंडल बदल जायेगा और ये वायरस और बैक्टीरिया बाहर आ जायेंगे। ये वायरस और बैक्टीरिया बाहर आकर महामारी पैदा कर मनुष्य के विनाश का कारण भी बन सकते हैं। मौजूदा हालात गवाह हैं कि उच्च हिमालय क्षेत्र की झीलों में पारिस्थितिकी परिवर्तन जलवायु के साथ ही मौसम के लिए भी बड़ी चुनौती बन रहा है। इसका मुकाबला आसान नहीं है।
(ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)