विजयमनोहरतिवारी
जब से पुणे के कोरेगाँव पार्क में ओशो के समाधि लेख के दर्शन किए, चैन से नहीं बैठा। एक ही ख्याल बेचैन किए रहा कि धर्म, समाज या राष्ट्र की सीमाओं के अर्थ क्या हैं? इन्हें किसी ईश्वर ने तो बनाया नहीं है। बनाया मनुष्य ने है। सारे झंझटों की जड़ें भी यहीं फैली हैं। बस तभी से स्वयं को सब सीमाओं से मुक्त एक विश्व नागरिक के रूप में मान्यता दे दी।
मैं, एक ग्लोबल सिटीजन। अहा, क्या महान विचार है!
एक प्रज्ञापुरुष युवा लेखक का लेख कुछ समय पहले पढ़ने में आया। वे भी इसी उच्च अवस्था को प्राप्त प्रतीत हुए। हालांकि थोड़े ही दिन बाद वे ग्लोबल सिटीजनशिप के अपने दस्तावेज कहीं कोने में सरकाकर अरब के इस्लामी दर्शन में अध्यात्म, विज्ञान, समानता और शिक्षा के ऊँचे शिखर ढूँढते और ढूँढकर चमकाते हुए पाए गए। उनकी खोजें क्राउन प्रिंस एमबीएस तक चली जाएँ तो वे पक्का है कि वे भी माथा पीट लें। मुझे लगता है कि मनुष्य उससे बहुत ही अधिक जटिल है, जितना उसे अब तक समझा गया है। सारी समस्या की जड़ उसका दिमाग है, जिसे कम्बख्त यही नहीं पता कि उसे चाहिए क्या है।
जैसे मैं अचानक ही क्यों ग्लोबल होने को आतुर हो उठा हूँ। क्या ग्लोबल सिटीजन होने के साथ ही सारी सोच बदल जाएगी। फिर क्या फर्क पड़ता है कि भारत के टुकड़े हो जाएँ। कोई इधर से झपट ले, कोई उधर से घुस आए, कोई अंदर बैठे-बैठे ही खोखला कर डाले। ये सीमाएँ किसने बनाई हैं? हजारों साल पहले तो नहीं थीं। फिर किस भारत के लिए हम लड़ें-झगड़ें। भूगोल तो तब भी रहेगा, जब भारत नहीं होगा। जमीन कौन उठा ले जाएगा। जब इस भूखंड को भारत कहा गया तभी एक दायरा बना दिया गया। वर्ना भूखंड तो अखंड है। अखंड भूमि है। देश नहीं। क्या ग्लोबल थॉट है!
इतिहास में इब्नबतूता नाम का आदमी मेरे ख्याल से एक ग्लोबल सिटीजन ही था। वह मोरक्को से चला था और देश के देश समंदर के समंदर पार करता हुआ धरती पर पूरे पैंतीस साल घूमता रहा। भारत के रास्ते पर आकर उसने तबाह-बरबाद शहर देखे, जहाँ हैरतअंगेज बुतों को मिटाकर छोड़ दिया गया था। दिल्ली तक आते-आते उसने एक विचार से बम की तरह बँधे लोगों को विस्फोटक मुद्रा में कब्जा जमाए पाया, जो हर तरफ यही कर रहे थे। वह साक्षी भाव से मानवनिर्मित संकीर्ण मजहबी सीमाओं के भयावह असर देखता हुआ एक दिन मोरक्को लौट गया। सार यह है कि सोच को बढ़ाओ। सीमाओं से पार स्वयं को ले जाओ। फैलाते जाओ। खुद को ग्लोबल बनाओ।
जन्म लेना एक ऐसा संयोग है कि पृथ्वी ग्रह पर पैदा हो गए। हो सकता है दूसरी आकाशगंगाओं, सौर मंडलों और ग्रहों पर भी कहीं जीवन हो। कौन जाने पिछली बार किस योनि में किस ग्रह पर थे और अगली बार कहाँ किलकारी मारेंगे। जहाँ भी जन्मेंगे वहाँ भी अलग-अलग राष्ट्र और धर्म होंगे। कहाँ की सीमाएँ। सृष्टि अनंत है। जीवन अनंत है। प्रकृति अनंत है। ब्रह्मांड अनंत है। आकाश अनंत है। कहीं कोई विभाजन रेखा नहीं है। असीम को क्यों सीमित करना। राष्ट्रों की अवधारणा के चक्कर में मत पड़ो। सब समय का फेर है। डेढ़ हजार साल पहले पैदा हुए होते तो यही राष्ट्र किसी और शक्ल में कहीं से कहीं तक था। पाँच सौ साल बाद पैदा होगे तो पता नहीं सीमाएँ कहाँ से सड़ी-सिकुड़ी दिखाई देंगी। इनसे क्या मोह करना? ग्लोबल हो जाओ। अपनी सोच विस्तृत करो।
अफांसी निकितन एक ईसाई के रूप में रूस से भारत आया था। वह बेखटके सौ फीसदी इस्लामी ईरान पार करके सुरक्षित भारत के वर्तमान महाराष्ट्र के जुन्नार नाम की जगह पर पहुँचा। यहाँ उसके पैसे-हथियार छीनकर मार-मारकर मुसलमान बना दिया गया। उसे नया नाम मिला-होजा यूसुफ खोरासानी। उसने लिखा-“मेरे रूसी ईसाई भाइयो, अगर आप भारत आना चाहते हैं तो अपना विश्वास रूस में ही छोड़कर आइए और मोहम्मद में भरोसा करके निकलिए।’ यूक्रेन के कीव में लौटकर मरने के पहले वह “जर्नी बियोंड थ्री सी’ में दरअसल ग्लोबल सिटीजन होने का ही संदेश दे रहा है। एक से दूसरी सीमा में जाकर अपनी सीमाएँ त्याग दीजिए।
एक बार ग्लोबल लेवल पर सोचना शुरू करेंगे तो प्रज्ञापुरुष की तरह समाज और धर्म के सारे अभिमान बचकाने लगने लगेंगे। जो परिवर्तनशील है, वह सत्य नहीं हो सकता। सत्य परिवर्तनशील नहीं हो सकता। समाज जैसा आज है, कल नहीं था और कल नहीं रहेगा। धर्म के स्वरूप भी बदलते हैं। नए-नए विचार पैदा होते हैं, जिनके अनुयायी उन्हें धर्मों में ढालकर और झगड़ा-झंझट बढ़ा देते हैं। सब अपने झंडे-झगड़े लिए दुनिया को झंझटों से भर रहे हैं। एक शोभायात्रा की देखादेखी दूसरा जुलूस। नारे, टकराव, हिंसा। बचपने से बाहर आइए। वैश्विक नागरिक बनिए।
संसार में एक शक्ति पूरे समय तनाव पैदा करने में ही लगी रही है। उसके रूप अलग रहे होंगे। मगर वह शक्ति रही है। आज उससे निपटने में राज्यों का दम उखड़ रहा है। एक तरफ मनुष्य तारों के पार चाँद पर जा रहा है दूसरी तरफ झंडे पर चिपके चाँद-तारे पर ही मरा जा रहा है। एक ग्लोबल विचार ही इन संकीर्ण दायरों से पार ले जाकर मनुष्य में शांति बहाल कर सकता है। वैसे मुश्किल यह भी है कि आतंक भी एक ग्लोबल विचार बनकर फैल चुका है। इस प्रकार ग्लोबल मार्ग पर भी प्रतिस्पर्धा कम नहीं है। सब अपने-अपने ढंग से ग्लोबल होने की होड़ में हैं। कोई विचार से, कोई बम के विचार से!
मुझे लगता है कि जब कभी बुद्ध या महावीर अपने समय के स्थापित वैचारिक ढाँचों से बाहर नया दर्शन लिए निकले होंगे तब वे ग्लोबल संकेत ही दे रहे होंगे। सब सीमाओं से बाहर। दायरों के परे। किसी वृत्त में बँधे न रहो। बेड़ियों को तोड़ दो। स्वतंत्र हो जाओ। एक वैश्विक नागरिक।
अपने दीए स्वयं बनो, आनंद को दिए बुद्ध के इस अंतिम संदेश का अर्थ क्या है? अपने दीए स्वयं बनो। दीए का संबंध प्रकाश से है। प्रकाश की कोई सीमा नहीं होती। सूर्य भी प्रकाश है। कोई उसे छोटे छोटे दायरे में बाँधकर दिखाए। मगर मनुष्य के दिमाग की बलिहारी है। बुद्ध और महावीर के पीछे जो चले, उनने अपने दायरे बना लिए। अपनी सीमा रेखाएँ खींच लीं। अपने अपने ढाँचों में कैद हो गए। ढाई हजार साल पहले उपजे महान ग्लोबल विचार के पीछे चलकर भी लोकल के लोकल रह गए। ग्लोबल को ऐसे लोकल बनाने की क्षमता भी मनुष्य के जटिल दिमाग की देन है।
ओशो की समाधि के श्वेत संगमरमर पर लिखी पंक्ति है- “ओशो, जो न कभी जन्में, न देहावसान हुआ। वे फकत जन्म और मृत्यु की तिथियों के बीच पृथ्वी नाम के इस ग्रह से होकर गुजरे!’ यह एक महान दार्शनिक के जीवन का ग्लोबल घोषणापत्र है।फ्रायड कहता है कि मनुष्य का स्वभाव अप्रिय बात को हमेशा झूठा मान लेना चाहता है और इसके बाद इसके विरुद्ध तर्क भी आसानी से ढूँढ लेता है।