पहलगाम की वादियों में जब आतंक का साया मंडराया, गोलियों की गूंज ने सन्नाटा तोड़ा, और मासूम पर्यटकों की जान पर बन आई, तब एक नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गया सैयद आदिल हुसैन शाह।
जहां एक ओर आतंकियों ने मज़हब के नाम पर नफरत का तांडव मचाया, वहीं दूसरी ओर कश्मीर की उसी धरती ने एक ऐसा सपूत जन्मा, जिसने इंसानियत की मिसाल पेश कर दी। उन्होंने न धर्म देखा, न जात—सिर्फ़ एक बात देखी: “कैसे इन पर्यटकों की जान बचाई जाए।”
पर्यटकों को सुरक्षित स्थान पर भेजा
गोलीबारी के बीच, जब हर कोई जान बचाकर भाग रहा था, सैयद आदिल हुसैन शाह ने अपनी जान दांव पर लगाकर कई लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। आख़िरकार, वो भी आतंकियों की गोलियों का शिकार बन गए। लेकिन मर कर भी अमर हो गए।
हम सबसे पहले है इंसान
उनकी इस अदम्य बहादुरी और बलिदान को याद करते हुए विधानसभा में उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। ये कोई मामूली शहादत नहीं थी। ये उस मुल्क के उस सच्चे सपूत की कहानी थी, जिसने मज़हबों से ऊपर उठकर सिर्फ़ भारतीय बनकर अपनी मिट्टी के प्रति अपना फर्ज़ निभाया। आज जब कोई हिंदू-मुस्लिम की दीवार खड़ी करने की कोशिश करता है, तब आदिल शाह जैसे वीर हमें याद दिलाते हैं कि हम सबसे पहले है इंसान, का संदेश दिया। हिंदुस्तान इस वीर की कुर्बानी को कभी नहीं भूलेगा। क्योंकि ये शहादत सिर्फ़ जान की नहीं थी, ये एकता, भाईचारे और इंसानियत की सबसे बुलंद आवाज़ थी।