लेखक
चैतन्य भट्ट
डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस के साथ हुई 19 जुलाई को हुई रेल ( Railways ) दुर्घटना की स्याही सूखी भी नहीं थी कि 30 जुलाई को झारखंड में रेल के पटरी से उतरने की दुर्घटना में फिर 2 लोगों की मौत हो गई। इन्हें मिलाकर सिर्फ इसी साल में रेल दुर्घटनाओं में 17 लोगों की मौत हुई है और 100 से अधिक लोग घायल हुए हैं। पिछले साल ऐसी दुर्घटनाओं में 300 से ज्यादा लोग मृत और 1200 से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए थे। इन दुर्घटनाओं में ट्रेन पटरी से उतरने के अलावा ट्रेनों में सीधी टक्करों जैसे हादसे भी शामिल हैं। किसी समय सुरक्षित यात्रा का पर्याय रही रेलवे के ये आंकड़े चिंताजनक हैं और रेल सुरक्षा उपायों के उन्नयीकरण की गंभीर जरूरत दर्शाते हैं।
Railways प्रणालियां अस्सी में एटीपी में स्थानांतरित हो गईं थीं
स्वचालित ट्रेन सुरक्षा (एटीपी) कवच का विकास रेल ( Railways ) दुर्घटनाओं की रोकथाम में मील का पत्थर है। दुनिया की अधिकांश प्रमुख रेल प्रणालियां अस्सी के दशक में ही एटीपी में स्थानांतरित हो गईं थीं। भारत में 2016 में ट्रेन टक्कर रोधी प्रणाली के पहले संस्करण के साथ यह यात्रा शुरू हुई। 2019 में सुरक्षा प्रमाणन के उच्चतम स्तर एसआईएल-4 को प्राप्त करने के लिए किए गए सिस्टम परीक्षण को 2020 में राष्ट्रीय एटीपी प्रणाली के रूप में मंजूरी मिली। 2021 इसका संस्करण 3.2 प्रमाणित होने के बाद 2022 की अंतिम तिमाही में दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा के व्यस्त मार्गों पर काम शुरू हुआ। हाल ही डेवलप हुए 4.0 संस्करण के बाद इसे सभी लोको पर स्थापित करने और मौजूदा सिस्टम को भी अपग्रेड करने की योजना है। बहरहाल मौजूदा परिस्थितियां यह हैं कि 68 हजार से अधिक लंबे भारतीय रेल ट्रैक के 2000 कि.मी. से भी कम लंबाई पर ही यह सिस्टम लगाया जा सका है।
इस निराशाजनक प्रदर्शन का कारण पूंजी की कमी समेत कुछ भी हो सकता है मगर प्रबंधन में भी समस्या है। रेलवे द्वारा अक्टूबर 2023 तक की जारी परफार्मेंस रिपोर्ट में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए। 25 प्रतिशत से ज्यादा रेलें लेट चली जबकि गुजरे साल इसी अवधि में यह आंकड़ा 15 प्रतिशत था। नई रेलवे लाइनों, गेज बदलाव, लाइन डबलिंग, रेलवे क्रासिंग हटाने जैसे कामों में लगभग 25 प्रतिशत की कमी आई। माल ढुलाई की औसत रफ्तार 32.4 से कम होकर 27.5 किलोमीटर प्रति घंटे रह गई। प्रमुख योजनाओं के क्रियान्वयन की हालत यह है कि 249 प्रमुख रेलवे परियोजनाओं की लागत 4.44 लाख करोड़ से डेढ़ गुनी बढक़र 6.85 लाख करोड़ हो गई है। मानव संसाधनों की बात करें तो किसी समय देश में रोजगार का प्रमुख स्त्रोत रही रेलवे में पिछले साल गजेटेड और नान गजटेड समेत लगभग 2.64 लाख पद रिक्त थे। आउटसोर्सिंग की धूम है। 2021-22 के दौरान रेलवे में डेढ़ लाख से अधिक अनुबंध श्रमिकों को पंजीकृत किया गया था।
भव्यता पर खर्च की भरमार है। स्टेशनों को हवाई अड्डों जैसा भव्य बनाने और सामान्य से कई गुना किराए वाली आलीशान बुलेट, वन्दे भारत ट्रेनें चलाने की सनक में अरबों खर्च हो रहे हैं। गरीबों के लिए उपयोगी जनरल डिब्बे कम कर वातानुकूलित डिब्बों की संख्या बढ़ाई जा रही है जिससे आदमी टायलेट तक में बैठकर यात्रा करने पर मजबूर है। किसी भी बड़े स्टेशन का जायजा लीजिए,यात्री फर्श पर सोते नजर आएंगे। यात्री प्रतीक्षालय प्रति घंटे के हिसाब से वसूलने वाले निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं जिनमें कमाई के लिए प्रतीक्षालय के अंदर ही रेस्टोरेंट या उसके जैसा ही कुछ रहता है। सच्चाई यह है कि रेस्टोरेंट के लिए लगाई गई टेबलों के बीच प्रतीक्षा करने की जगह शुरू होते ही खत्म हो जाती है। नलों की कम होने से यात्री महंगा बाटलबंद पानी खरीदने पर मजबूर हैं। खाद्य सामग्रियों की गुणवत्ता के बारे में शायद ही कुछ बताने की जरूरत है। संचार क्रांति के इस युग में ट्रेन निरस्त होने और टिकिट अपग्रेड होने जैसी सूचनाएं समय पर नहीं मिलती। महत्वपूर्ण स्टेशनों के बीच सालों से चल रही सामान्य से डेढ़ गुना किराये वाली स्पेशल ट्रेनों नियमित नहीं हो रहीं हैं। निम्न आय वर्गों को मिलने वाली सरकारी मदद और उच्च वर्ग की बेहिसाब क्रय क्षमता के बीच पिस रहे मध्यम वर्ग के लिए बेहद महत्वपूर्ण बुजुर्गो को किराए में मिलने वाली छूट बंद है। वेटिंग टिकट पर ट्रेन में बैठने का अधिकार वापस लिया जा रहा है। सुविधाओं की बात करें तो मूत्रालय जैसी मूलभूत सुविधाओं के भी पैसे वसूले जा रहे हैं।हर सुविधा के लिए शुल्क वसूलने की मानसिकता वाली व्यवस्था को सोचना होगा कि अमीर देशों की यह व्यवस्था उस देश के लिए अनुकूल नहीं है जहां करोड़ों लोग अभी भी सरकार की लगभग मुफ्त अनाज बांटने की व्यवस्था पर गुजारा करते हैं। सुरक्षा और विस्तार पर किया जाने वाला खर्च ठीक है मगर रेलवे स्टेशनों को हवाई अड्डों जैसा भव्य बनाने और आलीशान रेलें चलाने की सनक औचित्य से परे है। अमीर देशों के किराए में वृद्धि और हर सुविधा के व्यवसायीकरण जैसे उपाय अपनाने वाले उनके जैसी सुविधाएं देने के मामले में जरा भी गंभीर नहीं दिखते। रेलवे देश की जीवन रेखा है जिससे प्रतिदिन लाखों लोग रोजी कमाने जैसे कामों के लिए लंबे सफर करते हैं। इसे शुद्ध हानि लाभ के समीकरण के व्यावसायिक आधार पर चलाना सही नहीं है। मजबूर आदमी परेशानी झेलता है तो समय आने पर सारा हिसाब बराबर करना भी जानता है। सत्ताधारी दल ने पिछले चुनाव में इसका हल्का स्वाद चखा है और अगर परिस्थितियां नहीं बदलीं तो यह गुस्सा और भी महंगा पड़ सकता। (लेखक के ये निजी विचार हैं)