इंदौर में प्रापर्टी का डब्बा गोल (पार्ट- 4)
राजेश राठौर
EXCLUSIVE
स्वतंत्र समय, इंदौर
इंदौर की प्रापर्टी ( property ) में जो गिरावट आ रही है उसके लिए बेईमान अफसर कोई कम जिम्मेदार नहीं हैं। ऐसा कोई विभाग नहीं, जहां रिश्वत देने के बावजूद काम में देरी न हो। अफसर जानबूझकर फाइलों में अड़ंगा डालते हैं, बार-बार धक्के खिलवाते हैं, उसके बाद फिर जब अफसर मुंह मांगी रिश्वत पा लेते हैं तब कहीं जाकर मंजूरियां मिलती हैं। इंदौर में जो अफसर आते हैं वो लाखों रुपये नहीं सिर्फ जमीन के काम करके ही करोड़ों रुपए कमा कर जाते हैं। या यूं कहें कि यदि इंदौर को अफसर लूटने आते हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
बात शुरू करते हैं सबसे पहले रजिस्ट्रार ऑफिस की
रजिस्ट्रार ऑफिस में प्रॉपर्टी ( property ) वहां पर रजिस्ट्री कराने के लिए कहने को तो सब आनलाइन सिस्टम है लेकिन सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि जिस नोटरी या वकील के माध्यम से आप रजिस्ट्री कराने जाएंगे तो जमीन के हिसाब से दो से लेकर 10′ तक रिश्वत फिक्स है। रजिस्ट्री कराने में दो से तीन दिन लगना चाहिए लेकिन कभी साफ्टवेयर खराब है तो कभी अफसर छुट्टी पर हैं, तो कभी गाइड लाइन के अड़ंगे आ जाते हैं। रजिस्ट्रार आफिस में अफसर तो दूर, बाबुओं की बात करो तो लगभग सभी करोड़पति हो चुके हैं। इनके कई कालोनियों में प्लाट हैं, मल्टियों में फ्लैट हैं और रंगीन मिजाजी के लिए फार्म हाउस भी हैं। रजिस्ट्रार आफिस में ये हालत है कि सुबह 12 बजे यदि कोई रजिस्ट्री कराने जाता है तो उसको कायदे से आधा घंटा लगना चाहिए, लेकिन कई बार शाम तक हो जाती है। इस कारण महिलाओं को सबसे ज्यादा परेशानी होती है। कभी-कभी रजिस्ट्री के लिए अलॉट होने वाले स्लॉट में भी गड़बड़ी हो जाती है।
जमीन का डायवर्सन
अब आपने यदि कालोनी काटने के लिए जमीन की रजिस्ट्री करा ली तो फिर आपको डायवर्सन कराना पड़ता है, नामांतरण कराना पड़ता है, कई बार बटांकन की जरूरत भी पड़ जाती है। बस यहीं से कालोनी काटने वाले की ‘रैगिंग’ शुरू हो जाती है। आवेदन तो ऑनलाइन लगते हैं, पटवारी महाराज से सबसे पहले सामना करना पड़ता है, जो कलेक्टर से बड़ा कहलाता है। पटवारी को ढूंढना मुश्किल है, मिल जाए तो फिर काम के लिए टाइम लेना उससे भी बड़ा मुश्किल है। पटवारी साहब अधिकांश समय दफ्तर से बाहर रहते हैं। निजी आफिस पर जरूर बैठते हैं। किसी को काम कराना हो तो उसको पटवारी कहता है ‘अभी सरकार की योजनाओं का सर्वे चल रहा है, अब मुख्यमंत्री आने वाले हैं, सरकारी कार्यक्रम में भीड़ ले जाना है’, दो-तीन महीने में पटवारी मिलता है। उसके बाद फिर वो जो प्रति एकड़ जमीन के हिसाब से पैसे मांगता है उसको पैसे दो, तब कहीं जाकर काम होता है। फिर नायब तहसीलदार और तहसीलदार के चक्कर लगाओ, उसके बाद एसडीओ के पास जाओ, ज्यादा दिक्कत हो तो ऊपर तक जाओ। 4-6 महीने में तो जमीन खरीदने वाले की हालत ऐसी हो जाती है कि वो चक्कर लगा लगा कर ‘घनचक्कर’ हो जाता है। फिर कालोनी डेवलपमेंट की परमिशन, फिर डेवलपमेंट कंप्लीट होने का सर्टिफिकेट, पता नहीं कौन-कौन से विभागों की एनओसी, हर विभाग की एनओसी लेने के लिए भी पैसा देना पड़ता है। इस तरह से कालोनाइजर पर दिक्कतों का पहाड़ टूट जाता है।
रेरा की अनुमति
यदि कोई कालोनाइजर भगवान से मिलना चाहे तो भगवान आसानी से मिल सकते हैं लेकिन रेरा की अनुमति मिलने में चट्टान तोडऩे से भी बड़ा काम करना पड़ता है। महीनों तक रेरा की अनुमति नहीं मिलती है। रेरा की अनुमति के बिना प्लाट बेचना बहुत मुश्किल है। इस तरह से सरकारी विभागों के चक्कर लगाना पड़ते हैं।
टाउन एंड कंट्री प्लानिंग, यहां भी परेशानी
कालोनाइजर को टाउन एंड कंट्री प्लानिंग भी जाना पड़ता है, वहां से नक्शा पास कराना भी सरल काम नहीं है। वैसे, इस विभाग की ये खासियत है कि लेन-देन करके फटाफट काम निपटा देते हैं। हां, रिश्वत का रेट जमीन की कीमत के हिसाब से तय होता है। कभी-कभी यहां भी परेशानी होती है लेकिन वो परेशानी कुछ खास नहीं होती। टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग में जो इंजीनियर ऑनलाइन नक्शा सबमिट करता है वो ही टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग से नक्शा पास कराने की गारंटी ले लेता है। फिर भी कालोनाइजर को अच्छा खासा पैसा खर्च तो करना पड़ता है। एक जमीन से दूसरी जमीन में जाने के रास्ते को लेकर भी इस विभाग की सबसे बड़ी दिक्कत है। कालोनाइजर इतना परेशान हो जाता है, हर जगह जो जितना पैसा मांगता है वो दे देता है।
अब जब कालोनाइजर लाखों-करोड़ों रुपए रिश्वत बांटकर मंजूरियां लेता है तो ये भार आम जनता पर ही पड़ता है। कालोनाइजर को बिजली विभाग को भी पैसा देना पड़ता है। डीपी लगाने से लेकर बिजली कनेक्शन तक कराने में पैसा लगता है। इस तरह से मोटेतौर पर जोड़ा जाए तो लगभग 200 रुपए स्क्वेयर फिट प्लाट के भाव ग्राहक जो ज्यादा देना पड़ते हैं। यदि सभी विभागों की मंजूरियां एक ही जगह पर मिल जाए तो फिर रिश्वत भी कम लगेगी और मंजूरी लेने में समय भी बचेगा।