अच्छा ही हुआ पिता का प्यार नहीं मिला और कोई गॉडफादर भी नहीं रहा

         कीर्ति राणा, वरिष्ठ पत्रकार

कीर्ति राणा की सोशल मीडिया पर एक पोस्ट वायरल हो रही है। जिसमें वह फादर्स डे के मैसेज में  परिचित मित्रों को बधाई जरूर देते है लेकिन वह अपनी स्मृति को याद करते हुए कुछ ऐसी सच्चाई लिखते है जो कई परिवार की हकीकत भी नजर आती है। उनकी पोस्ट पर लिखाहै कि –
” मन ही मन सोचता रहा अच्छा ही हुआ पिता की अंगुली पकड़ कर, जिद्द पूरी करने के लिए गले से लिपटने या मेले-ठेले में बाबूजी का सिर पकड़ कर उनके कंधों पर बैठने का अवसर नहीं मिला।”
आज बच्चों ने जरूर ‘हैप्पी फादर्स डे’ कह कर मुझे खुश किया लेकिन अपन तो पिता को यह भी नहीं कह पाए। जैसे 12 साल में सिंहस्थ में साधु-संत आते हैं वैसे ही छठे-चौमासे वो आते थे, उनके आने का मतलब होता था घर में एक दो दिन सुबह नहीं तो शाम को कलह प्रवेश।

पिता होते हुए भी पिता का प्यार नहीं मिल पाने का बचपन में तब बड़ा अफसोस होता था जब मोहल्ले में अन्य बच्चों को पिता से जिद करते हुए हम दोनों देखते थे।अब फादर्स डे पर यही सोचता हूं अच्छा हुआ कि छुटपन में पिता की छाया नहीं मिली। मिलती तो शायद आज जो हूं इससे और बेहतर हो जाता या बिगड़ के धूल भी हो सकता था।

पिता का प्यार नहीं मिलने की एक अच्छी बात यह भी रही कि हर मोड़ पर ठोकरें लगी, खुद ही संभलें, आंसू भी खुद ही पोंछे और बढ़ते चले। ठोकर खा कर ठाकुर बनने वाली कहावत तो बचपन से ही हमारे कंधों पर सवार हो गई थी। घर में फादर नहीं और नौकरी में कोई गॉड फादर नहीं होने का फायदा यह भी हुआ कि सेल्फमेड होने का इगो पनपता रहा, जिससे नुकसान अधिक हुए।

पिता को कैसे याद करुं कि वो काली स्याही वाले पेन से लिखते थे, कि उनकी हैंडरायटिंग खूबसूरत थी, कि कान में इत्र का फोहा और अंगुलियों में सिगरेट फंसी रहती थी, कि उन्हें उपन्यास पढ़ने का इस कदर शौक था कि जब कभी इंदौर आते तो खाना खाते हुए भी पढ़ते रहते थे, कि हर बात का जवाब चुभते तीर जैसे शब्दों के साथ व्यंग्यात्मक तरीके से देते थे, कि सेंव और दही खाने के साथ जरूरी रहता था, कि मैं मीना के लिये सेकंड हैंड घड़ी भी लाता तो वो चाचा की लड़की के लिये अधिकारपूर्वक ले जाते थे, कि कभी पढ़ाई को लेकर नहीं पूछा कि कौनसी क्लास में और क्या सब्जेक्ट लिए हैं, कि कभी कपड़े सिलाने के लिए पूछा हो, कि दशहरा-दीवाली पर कभी पटाखे-मिठाई आदि दिलवाने की उदारता दिखाई हो, कि कभी साइकिल दिलाने की सोची हो।

वो जब भी आते एक-दो दिन के लिए, ठसका पूरा मेहमानों जैसा रहता । मेहमान तो फिर भी साथ में फल वगैरह लेकर आते हैं लेकिन वो तो गीता का संदेश याद दिलाते थे-सोचो साथ क्या लाए, क्या लेकर जाओगे।
शादी में भी मेहमान की तरह आए, फेरे के दौरान पिता वाला दायित्व भी हींग लगे ना फिटकरी रंग आए चोखा की तरह पूरा किया। पत्रिका छपाने से लेकर बांटने, किराना सामान जुटाने, बैंड-घोड़ा-रिसेप्शन की सारी तैयारी ‘ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना की तर्ज पर अपन ने ही सारी जिम्मेदारियों को मित्रों के सहयोग से अंजाम दिया।अब सोचता हूं यदि दस-बीस हजार रु हाथ पर रख देते तो मैं हमेशा सोचता रहता शादी में तो मदद की थी।
उनके होने ना होने का न मां (कमाजी) के लिए और ना हमारे लिए कोई मतलब रहा।हम एक तरह से बिना बाप के ही बड़े हुए, पढ़ाई में टॉप रहने का तो कभी सपना देखा ही नहीं क्योंकि पास होना ही लक्ष्य रहता था। पांचवी से लेकर दसवीं-बारहवीं तक का रिजल्ट घोषित होता तो लिस्ट में ऊपर की अपेक्षा नीचे से अपना नाम देखना शुरु करते थे।
बाप होते हुए भी हम एक तरह से बिना बाप के बच्चे जैसे-तैसे बढ़े होते गए। मंदिरों की गुम्बद पर बिना मिट्टी-पानी के लहलहाते पौधे में इसीलिये मुझे अपना बचपन याद आता रहता है। उनका प्यार, सलाह, मार्गदर्शन तो कभी मिला नहीं, अपने लिये सीना फूलाने की बात यही रहती थी कि बड़वानी से इंदौर आने वालों को वो यह कहना नहीं भूलते थे कि पोरयो पत्रकार है ।