लक्ष्मीकांतम् भुजगशयनम्, जिसे निष्ठुर नियति ने व्यापमं के घाट उतार दिया

 

एक समय व्यापमं ने मध्यप्रदेश को व्यापक और भयावह सुर्खियाँ प्रदान की थीं। व्यावसायिक परीक्षा मंडल नाम की इस महापीठ का बाद में नाम बदला गया। गोया नाम बदलने से संचित पापों की पोटली पिछले नाम के साथ कहीं कालातीत हो जाती है। लक्ष्मीकांत शर्मा अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन कल जब उनके परम सहयोगी “श्रीमान् सुधीर शर्मा’ के खिलाफ हाईकोर्ट ने केस निरस्त कर दिए हैं तो अनायास उनकी याद आ गई। हाईकोर्ट के निर्णय के प्रकाश में आइए एक ऐसे बदकिस्मत चेहरे को फिर से याद किया जाए, था। कोविड में जब उनका देहांत हुआ तब मैंने एक स्मृति लेख लिखा था। प्रसंगवश जिसे निष्ठुर नियति ने व्यापमं के घाट उतार दिया वही पुराना लेख-…………………………….मेरी नजर एक जाने-पहचाने सज्जन पर गई जो श्रद्धा में करबद्ध चुपचाप गंगा को निहार रहे थे। वे बिल्कुल अकेले थे। मैंने थोड़ा पास आकर देखा। वे लक्ष्मीकांत शर्मा ही थे। मध्यप्रदेश में मंत्री रहे थे और पिछला विधानसभा चुनाव बहुत कम अंतर से हार चुके थे। उनसे वह मेरी पहली भेंट नहीं थी। आरती शुरू होने के पहले उन्होंने अपनी पराजय के बारे में कुछ कड़वे राजनीतिक अनुभव से जुड़ी दो बातें जरूर कही थीं।

मेरा उनसे अच्छा परिचय था। जब वे खनिज मंत्री थे तब जबलपुर क्षेत्र में रायल्टी की हेरफेर के एक बड़े मामले की ग्राउंड कवरेज दैनिक भास्कर के पहले पेज पर छपी थी। दस्तावेजों पर चीजें बहुत साफ थीं। खबर तथ्यों के साथ थी। उनका फोन आया। वे मिलना चाहते थे।

मंत्रालय के उनके ऑफिस में अगले दिन का समय तय हुआ तो मैंने दोहराया था कि मेरे लिए तीन बजे का मतलब दो पचपन होता है। कृपया लंबा इंतजार न कराएं। उस भेंट में उन्हाेंने उस हेराफेरी के बारे में कुछ और चीजें साफ की थीं। वह उनका पक्ष था, जो वे चाहते थे कि छपे और वह भी छपा। सड़क हादसे में घायल होकर वे इंदौर के सीएचएल अपोलो में भर्ती थे और तभी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक वहां थी। नितिन गडकरी नए अध्यक्ष बने थे। पार्टी के सारे शीर्ष नेता इंदौर में डेरा डाले हुए थे। शर्माजी जख्मी हालत में अस्पताल में थे। मैंने उनसे कहा कि इस समय आपकाे यहां नहीं होना चाहिए था।
जब वे जेल में थे तब भी मेरी उनसे मुलाकात हुई थी। मैं उनसे बहुत कुछ सुनना चाहता था लेकिन वे कुछ भी कहना नहीं चाहते थे। ऐसा लगता था कि व्यापमं में सबके हिस्से का सारा विष उन्हांेने अपने कंठ में उतार लिया था। मगर कभी चेहरे पर सिलवट नहीं आने दी। निर्दोष मुस्कान और सबके बारे में हालचाल जानने की जीवंत शैली हर उस व्यक्ति को उनसे जोड़ देती थी, जो भी उनसे मिलता था। जब 16 महीने जेल काटकर वे सिरोंज लौटे तो पहली बार के विधायक और मंत्री पद की पहली शपथ के स्वागत से भी बढ़कर लोगों ने पलक पांवड़े बिछा दिए थे। सिरोंज के लोगों ने उन्हें कभी कुसूरवार नहीं माना। वे अपने प्रिय पंडितजी को दुनिया से बेहतर जानते थे।
पत्रकार योगेश पांडे व्यापमं के उबाल के दिनों में सिरोंज का मन टटोलने गए थे और यह जानकर चकित थे कि उन्हें वहां एक सीधे-सादे इंसान के रूप में देखा जाता है, जिसका राजनीति के जंगल में आखेट हो गया है। घोटाला जो भी हो, लक्ष्मीकांत निर्दोष हैं। असल खिलाड़ी कोई और हैं और वे किसी अन्य लोक के भी नहीं हैं। सिरोंजवालों की यह आम राय थी।
मैं मानता हूं कि अनिल माधव दवे के बाद लक्ष्मीकांत शर्मा का अवसान (एक तरह से उनका राजनीतिक अवसान तो व्यापमं के चक्रव्यूह में हो ही चुका था।) मध्यप्रदेश की बड़ी क्षति है। राजनीति में सक्रिय भले लोग भले ही किसी पार्टी की मर्यादा में गिने जाएं लेकिन वे सबके होते हैं। वे जो भी करते हैं उसके संदर्भ सबसे जुड़ते हैं। अगर वे सत्ता में होते हैं तो उनकी सोच उनके निर्णयों में झलकती है और वह सबको प्रभावित करती है।

देश भर की कई यात्राओं के बाद मैं दावे से कह सकता हूं कि सत्ता के शिखरों पर अधिकतर बुझी हुई लालटेनें टंगी हैं। लक्ष्मीकांत शर्मा के सिरोंज में जो लोग 2004 के पहले घूमे हैं, वे सहमत होंगे कि केवल सड़क संपर्क से जुड़ा सिरोज और लटेरी का इलाका काले पानी के नाम से ही कुख्यात रहा है, जहां न सड़कें थीं, न बिजली। आज के सिरोंज से वह तस्वीर बिल्कुल मेल नहीं खाती। लेकिन यूनिवर्सिटी और कॉलेजों के साथ बुनियादी इन्फ्रास्ट्रक्चर शानदार है। उन्हें अपने क्षेत्र के 264 गांवों के नाम इस तरह याद थे कि वे किस गांव की कौन सी गली में काम नहीं हुआ है, वह कहीं भी बैठकर बता सकते थे और उस जगह के लोगों के नाम भी। यह जीवंत संपर्क तब भी बाधित नहीं हुआ जब वे व्यापमं के काले पानी में अपने राजनीतिक जीवन की अंतिम सांसें ले रहे थे।

वे ज्योतिष और कर्मकांड के प्रसिद्ध पुरोहित परिवार के वंशज थे, जिन्होंने अपनी आजीविका के लिए सरस्वती शिशु मंदिर में आचार्य के रूप में तीन सौ रुपए के वेतन पर वर्षों तक सेवाएं दी थीं। वे संस्कृति मंत्री बने तो भोपाल के पास आशापुरी के प्राचीन मंदिर संकुल के जीर्णोद्धार के समय पत्रकारों को ले जाकर बताना नहीं भूलते थे कि महान राजा भोज ने विशाल जलाशय के चारों तरफ किस तरह ऐसे मंदिर संकुल विकसित किए थे। एक विभागीय मंत्री के नाते अपनी धरोहरों के प्रति ऐसी संवेदना किसी और में दिखाई नहीं दी।
पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया ने लक्ष्मीकांत शर्मा से जुड़ी अपनी स्मृतियां एक लेख में ताजा की हैं। उन्होने तीन किस्से लिखे हैं, जो एक अच्छे नेता के मानवीय गुणों को ही दर्शाते हैं। कम ही मौके आए होंगे जब हरदेनिया जैसे वरिष्ठ और विपरीत वैचारिक पृष्ठभूमि वाले पत्रकार ने किसी दक्षिणपंथी नेता के सम्मान में इतने प्रशंसात्मक भाव प्रकट किए हाें। परखने की यह एक कसौटी है कि आपसे असहमत या आपके दुश्मन आपके बारे में क्या विचार रखते हैं?
लक्ष्मीकांत शर्मा की राजनीतिक यात्रा और जीवन लीला कैसी विचित्र थी। अगर ग्रहों के योग व्यक्ति के जीवन को गढ़ते हैं तो उनके ग्रहों ने खंडित राजयोग का योग बनाया। अचानक अपयश भी सिरोंज के इस आचार्य को राजनीतिक दक्षिणा में भरपूर मिले, जबकि वे इसके इकलौते पात्र नहीं थे। वे एक ऐसे संभावनावान नेता थे, जिन्हंे एक लंबी यात्रा ही करनी थी। सिरोंज को चमकाकर उन्होंने बता दिया था कि एक निर्वाचित प्रतिनिधि को जन अपेक्षाओं के लिए किस तापमान पर काम करना चाहिए। उनके पास नेत्र भी थे और दृष्टि भी। मगर वह दृष्टि न तो अंतरिक्ष के दुष्ट ग्रहों की चाल को देख सकी और न अपने आसपास के ग्रहों की वक्र दृष्टि को। एक सरल और निश्छल इंसान की यह कमजोरी उन्हेंे बहुत भारी पड़ी।
जब वे चिरायु में उखड़ती सांसों से जूझ रहे थे तब त्र्यम्बकेश्वर में पंडित विष्णु शास्त्री उनके लिए पवित्र ज्योर्तिलिंग के समक्ष स्तुति कर रहे थे। उनकी दृष्टि में 2014 के अंत से राहू की महादशा चली और हाल ही में शुक्र केतु शापित दोष और गुरू शनि पाप दोष का प्रबल प्रभाव ग्रहों ने बनाया, जो अक्टूबर तक भीषण ही रहने वाला था।
जैसा कि मैंने पहले कहा, उनका राजनीतिक अवसान तो सात साल पहले ही कर दिया गया था, कोरोना ने बचा-खुचा नश्वर शरीर भी छीन लिया। वे व्यापमं काल से ही दुष्ट दशाओं के भुजंगों पर लेटे हुए थे। अब कोई दुष्ट ग्रह उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता! और हां बदकिस्मत बीमारों की चहलपहल से भरपूर अस्पताल ही “चिरायु’ होते हैं, इंसानों के लिए यह सिर्फ कोरी शुभकामना है!

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(श्रीमान् सुधीर शर्मा के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। पहले वे किसी कॉलेज में अस्थाई अध्यापन में शायद थे। लक्ष्मीकांत शर्मा के सहयोगी बनकर उन्होंने अनेक दिशाओं में सफल अश्वमेध किए। उन्हें बधाई। एक्शन और ड्रामा से भरी कितनी किताबों के विषय हमारे आसपास हैं। )