Language को लेकर कब थमेगी ओछी राजनीति?


विनोद नागर
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और साहित्यकार

देश की राजधानी दिल्ली में अभी चुनावी बुख़ार पूरी तरह उतरा भी न था कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने अपने बेतुके बयान से भाषाई ( Language ) राजनीति को गर्मा दिया है। इसमें उन्होंने केंद्र सरकार पर दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा को थोपने का आरोप लगाते हुए कहा है कि तमिलनाडु एक और भाषा युद्ध के लिये तैयार है। दक्षिण भारत में और ख़ास तौर पर तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध जग जाहिर है।

राजनीतिक दल Language के नाम पर रोटी सेंकते रहे हैं

स्वातंत्र्योत्तर काल से ही द्रविड़ संस्कृति और भाषाई ( Language ) प्रतिबद्धता के नाम पर विभिन्न राजनैतिक दल चुनावी रोटियाँ सेकते रहे हैं। हालाँकि कालांतर में सामाजिक स्तर पर इस भाषाई जड़ता का ख़ामियाजा भी उन्हें उठाना पड़ा है।ताज़ा भाषाई विवाद पर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के साहित्यिक सांस्कृतिक हलकों में तीखी प्रतिक्रिया उभरकर सामने आई है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. देवेन्द्र दीपक ने स्टालिन के इस आरोप को नितांत भ्रामक बताया है, जिसमें कहा गया है कि हिन्दी और संस्कृत के कारण उत्तर भारत की 25भाषाएँ नष्ट हो गयी हैं। वे जिन्हें भाषा कह रहे हैं, वह हिन्दी की बोलियाँ हैं और अपने-अपने क्षेत्र में आसीन हैं। दरअसल,स्टालिन के संस्कृत और हिन्दी के विरोध के पीछे उनका सनातन द्वेष है।
स्टालिन का यह कहना भी एक सफेद झूठ हैकि हिन्दी उन पर थोपी जा रही है। नयी शिक्षा नीति, जिसमें पढ़ाई के लिये त्रिभाषा सूत्र अपनाया गया है, के सूत्रधार स्वयं तमिलभाषी है?। नई शिक्षा नीति में भाषा का पक्ष लोकतांत्रिक है। त्रिभाषा सिद्धांत में हिन्दी कहीं भी अनिवार्य नहीं है। एक मातृभाषा, दूसरी विदेशी भाषा और तीसरी कोई भी भारतीय भाषा?। तमिलनाडु के स्कूलों में बच्चे जो चाहे वह भाषा पढ़ें। अब इसमें हिन्दी को थोपने की बात कहाँ से आ गई? ‘शिक्षा की नव क्रांति का शंखनाद’ पुस्तक के लेखक और पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने स्टालिन के बयान को भारत विरोधी बताते हुए कहा है कि तमिलनाडु ने तो बहुत पहले से अपने यहाँ त्रिभाषा फार्मूले के स्थान पर द्विभाषा फार्मूला लागू कर तमिल और अंग्रेजी को स्वीकारते हुए हिन्दी को सिरे से नकार दिया था।
भाषाई द्वेष के चलते आप लोगों की भावनाओं को भडक़ाकर वोट भले ही कबाड़ सकते हो, लेकिन घृणा की राजनीति की भी आखिर कोई सीमा तो होनी चाहिये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में तमिल संगमम आयोजित कर वहाँ तमिल विद्वानों को आमंत्रित कर उनका मान-सम्मान किया था।इस मामले में मप्र साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे की राय प्रमाणिकता और तथ्यों पर आधारित है। वे कहते हैं- हिन्दी, तमिल और संस्कृत सभी हमारी राष्ट्रीय भाषाएँ हैं। संस्कृत ने सदैव दक्षिण की भाषाओं को माँ की तरह पोषण दिया है। दक्षिण की भाषाओं में ‘नाभि नाळ सम्बन्धम’ जैसे शब्दयुग्म सहज लोक प्रचलित हैं।स्टालिन के आराध्य के जन्म से सैकड़ों वर्ष पूर्व से यह नाभि नाळ संबंध बना हुआ है। ‘वाल्मिकी रामायण’ प्रथम राम कथा है। संस्कृत के बाद उसका प्रथम अनुवाद ‘कम्ब रामायण’ है,जो दक्षिण के संस्कृत से जुड़ाव का प्रतीक है। तमिलनाडु में रामायण के प्राचीनतम संदर्भ हमें संगम कालीन साहित्य में मिलते हैं।सप्रे संग्रहालय के निदेशक और दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रिका ‘कर्मवीर’ के डिजिटल संस्करण के संपादक अरविंद श्रीधर मानते हैं कि तमिलनाडु अथवा किसी भी दक्षिणी राज्य में हिन्दी का विरोध केवल सियासत के लिए किया जाता रहा है। यह आज से नहीं सालों से हो रहा है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के हालिया बयान ने तो संस्कृत को भी इस विवाद में लपेट लिया है, जबकि आम धारणा के अनुसार दक्षिण भारतीय भाषाएँ संस्कृत के ज्यादा निकट हैं। राजनीतिज्ञ अपनी वोट बैंक की मजबूरी के चलते भाषाई सौहार्द पर बात करें या न करें, समाज के बुद्धिजीवियों को जरूर इस पर बात करनी चाहिए। भाषाई सौहार्द ही हिन्दी की स्वीकार्यता का विस्तार कर सकता है।
भाषा युद्ध की चेतावनी को लेकर अपने सामयिक आलेख में सुधि पत्रकार और राजनीतिक मामलों के टिप्पणीकारअजय बोकिल ने दो टूक लिखा है- हिन्दी को लेकर तमिलनाडु का विरोध 1937 से है। वह देश में अकेला ऐसा राज्य है, जहाँ स्कूलों में राजभाषा और अघोषित रूप से राष्ट्रभाषा का स्वरूप ले रही हिन्दी नहीं पढ़ाई जाती। इससे नुकसान उन बच्चों का होता है, जो तमिलनाडु के बाहर अन्य राज्यों में नौकरी-धंधा करना चाहते हैं। नतीजा यह है कि विद्यार्थी निजी स्तर पर हिन्दी सीख रहे हैं।
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार समिति द्वारा आयोजित हिन्दी परीक्षा में तमिल विद्यार्थियो की बढ़ती संख्या इसका प्रमाण है। निहितार्थ यही कि तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध मुख्यत: राजनीतिक है और द्रविड़ राजनीति की प्रासंगिकता को बनाये रखने की चेष्टा भर है।प्रकारांतर से यही बात मध्य प्रदेश लेखक संघ के अध्यक्ष श्री राजेन्द्र गट्टानी की फौरी प्रतिक्रिया में भी झलकती है- तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के बयान के मूल में क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ हैं। स्टालिन भले ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ द्रमुक के शीर्ष नेता हैं, लेकिन उन्हें पता होना चाहिये कि जब दक्षिण की भाषाएँ संस्कृत से नष्ट नहीं हुईं तो उत्तर भारत की भाषाएँ कैसे नष्ट हो गईं? न तो स्टालिन की छवि राष्ट्रीय नेता की है और न ही उनका दल राष्ट्रीय स्तर का है। अत: ऐसे बेतुके राजनीति से प्रेरित उनके वक्तव्य को ज्यादा गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है।
हिन्दी सेवियों की स्वैच्छिक संस्था ‘हिन्दी परिवार’ के संस्थापक अध्यक्ष हरेराम वाजपेयी के तेवर तो और भी गरम हैं- तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को भाषा और संस्कृति का इतिहास मालूम नहीं है। संस्कृत तो सभी भाषाओं की जननी है। लेकिन जो अपनी माँ को माँ नहीं कह सकता वह दूसरे की माँ को क्या सम्मान देगा?स्टालिन चुनावी हथकंडा अपनाकरराजनीतिक मंसूबा पूरा करने के लिए अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं।पूरे देश को उनके इस दुर्भाग्यपूर्ण वक्तव्य का विरोध करना चाहिए।‘हिन्दी परिवार’इन्दौर के महासचिव संतोष मोहंती भी इस विवाद को पूरी तरह राजनीतिक मानते हुए कहते हैं कि वोट बैंक को पुख्ता करने के लिए ही यह भाषाई मुद्दा उठाया गया है। आकाशवाणी के पूर्व समाचार वाचक, कवि, लेखक एवं स्तंभकार संदीप श्रोत्रिय भाषा की गरिमा को रेखांकित करते हुए कहते हैं- कोई भी भाषा किसी दूसरी भाषा को नष्ट नहीं करती, बल्कि वे साथ-साथ चलते हुए एक दूसरे को समृद्ध ही करती हैं। लेकिन जब राजनीति सतह पर आती है तो राजनेता एक दूसरे को शत्रु की तरह दिखाने और भाषा का इस्तेमाल हथियार की तरह करने से भी नहीं चूकते। मैंने नई दिल्ली के भारतीय जन संचार संस्थान में संस्कृत के समाचार वाचक बलदेव आनंद सागर से तमिलनाडु में त्रिची से आये संवाददाता को इस मुद्दे पर कई दिनों तक लडऩे की हद तक बहस करते देखा है कि द्रविड़ संस्कृत से ज़्यादा पुरानी भाषा है।वरिष्ठ साहित्यकार और गीतकार डॉ. रामवल्लभ आचार्य हिन्दी भाषा के महात्म्य को लेकर पूर्णत: आश्वस्त हैं। उनका कहना है-स्टालिन महाशय के राजनीति प्रेरित बयान से विचलित होने की जरुरत नहीं है। क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व क्षेत्रवाद की राजनीति पर ही टिका है। यदि दक्षिण भारत के लोग आज के आधुनिक युग में हिन्दी का विरोध करने के बजाय उसे संपर्क भाषा के रूप में अपनाते हैं तो इससे उनका ही भला होगा। धार्मिक पर्यटन बढऩे से उनकी अर्थव्यवस्था और सुदृढ़ होगी।