मेघराज सिंह, स्वतंत्र समय
लोकतंत्र का पर्व यानी…चुनाव ! ये पर्व हमें कई हजार करोड़ रु में पड़ रहा है। आंकड़े बता रहे हैं कि पहले लोकसभा चुनाव ( Lok Sabha Elections ) सिर्फ 10.5 करोड़ रु खर्च हुए थे। इस चुनाव यानी 2024 में 75 हजार करोड़ रु खर्च होने का अनुमान है। भारत में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जिसके चलते देश में चुनाव करवाना किसी चुनौती से कम नहीं है। चुनाव आयोग और सरकार आगामी चुनाव करवाने की तैयारी में जुट गए हैं। हर लोकसभा चुनाव के साथ-साथ सरकार का यह खर्च भी बढ़ता जा रहा है। चुनाव के दौरान सुरक्षा इंतजाम, वोटिंग मशीन, प्रचार-प्रसार और अन्य गतिविधियों की जि़म्मेदारी भी सरकार के कंधों पर होती है। 1951 में सरकार के कुल 10.5 करोड़ खर्च हुए थे। हालांकि, 2019 के आम चुनाव में यह आंकड़ा 65,000 करोड़ के पार पहुंच चुका है। इसके साथ ही 2024 में यह आंकड़ा 75,000 करोड़ के पार पहुंचने की संभावना है।
Lok Sabha Elections 2024 का अनुमानित खर्च
माना जा रहा है कि यह आज़ाद भारत का सबसे खर्चीला चुनाव होने वाला है। इस चुनाव में प्रति मतदाता करीब 243 रुपए खर्च होने का अनुमान है। बढ़ते मतदाता, ईवीएम मशीनों का खर्च, वोटर्स आईडी कार्ड और विज्ञापनों को लेकर माना जा रहा है कि इस बार 1.2 लाख करोड़ रुपए से अधिक खर्च हो सकता है।
1957 लोकसभा चुनाव में हुआ था सबसे कम खर्च
देश में सबसे सस्ता संसदीय चुनाव साल 1957 का है। इस वर्ष मात्र 5.9 करोड़ रुपए का खर्च आया था, जो अभी तक हुए सभी संसदीय चुनावों में सबसे कम है। 2019 में यह आंकड़ा 65,000 करोड़ पहुंच चुका था। हालांकि, इस वर्ष में कुल 75,000 करोड़ खर्च होने की संभावना जताई जा रही है।
2019 में हुआ था सबसे ज्यादा खर्च
संसदीय चुनाव 2019 में करीब 6500 करोड़ रुपये का खर्च आया था। यह देश में किसी लोकसभा चुनाव के लिए अब तक का सबसे ज्यादा खर्च है। लोकसभा चुनाव 2019 में प्रति वोटर का खर्च 72 रुपए था। हालांकि, 2009 में प्रति वोटर का खर्च 12 रुपए और 2014 में 46 रुपए था। हर बार चुनाव का खर्च आसमान छू रहा है।
क्यूं बढ़ रहा है चुनाव का खर्च?
चुनाव का खर्च बढऩे के कई कारण हो सकते हैं। मगर, कुछ प्रमुख हैं। जैसे मतदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी, ज्यादा से ज्यादा ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल, पॉलिंग बूथ को बनवाना और आज-कल विज्ञापनोंं के इस्तेमाल की वजह से भी खर्च बढ़ चुका है। 1951 के पहले संसदीय चुनाव से लेकर 2024 तक देश में काफी बदलाव आ चुका है। जैसे 1951 में 53 पार्टियों ने 401 सीटों पर चुनाव लड़ा था। मगर, 2019 में यह आंकड़ा बढक़र 673 पार्टी और 543 सीटों तक पहुंच चुका है। इसके साथ, 1951 में कुल 1874 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था। मगर, 2019 में 8054 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, जिसके चलते हर बार चुनाव का खर्च बढ़ता जा रहा है।
एक उम्मीदवार कितना खर्च कर सकता है?
19 अप्रैल से देश में लोकसभा चुनाव शुरू होने हैं। जिसके चलते सभी उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया है। इसके साथ ही चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के खर्चे को भी निर्धारित कर दिया है। चुनाव आयोग ने कहा कि कोई भी प्रत्याशी 95 लाख से अधिक खर्च नहीं कर सकता। इस खर्च में चाय-नाश्ते से लेकर खाना, विज्ञापन, गाडिय़ों का भाड़ा और अन्य खर्च भी शामिल है। देश के पहले संसदीय चुनाव में उम्मीदवारों के खर्च के लिए 25 हजार सीमा तय की गई थी। इसके बाद 1971 में इसे बढ़ाकर 35 हजार किया गया। जैसे-जैसे वोटर्स की संख्या बढ़ती चली गई, वाहनों का खर्च, सामानों की कीमत में वृद्धि के चलते उम्मीदवारों के व्यय की सीमा भी बढ़ती चली गई और यह 2019 में 95 लाख पहुंच गई थी। जिसके बाद इस साल भी यह सीमा 95 लाख ही है।
कौन उठाता है लोकसभा चुनाव का खर्च?
लोकसभा चुनाव का सारा खर्च केंद्र सरकार उठाती है। जिसका लेखा-जोखा चुनाव आयोग के पास रहता है। चुनाव के खर्चों में कई तरह के खर्च शामिल हंै। जैसे चुनाव आयोग के कामकाज का खर्च, पोलिंग बूथ की सुरक्षा, कर्मचारियों का वेतन, ईवीएम मशीन की खरीददारी, मतदाताओं को जागरूक करने के लिए विज्ञापनों का इस्तेमाल करना और वोटर आईडी कार्ड बनाने जैसे खर्च शामिल हैं।
प्रति वोटर कितना खर्च होता है?
आजादी के बाद पहले संसदीय चुनाव 1951 में प्रति वोटर पर 60 पैसे खर्च आया था। इसके बाद 1957 में यह खर्च घटकर प्रति मतदाता 30 पैसे आया था। हालांकि, इसके बाद हर लोकसभा चुनाव में प्रति वोटर खर्च बढ़ता चला गया। 2004 में प्रति वोटर खर्च बढक़र 17 रुपए आया था। इसके बाद 2009 में 12 रुपए प्रति वोटर, 2014 में 46 रुपए और अभी तक सबसे अधिक 2019 में 72 रुपए प्रति वोटर खर्च हुआ है।
1951 से 2019 तक हर लोकसभा चुनाव का खर्च
आजादी के बाद पहले संसदीय लोकसभा चुनाव में कुल 10.5 करोड़ का खर्च आया था। जिसके बाद 1957 में यह खर्च कम होकर 5.9 करोड़ तक पहुंचा। 1957 के बाद हर लोकसभा चुनाव सत्र में यह आंकड़ा सिर्फ बढ़ा है, कभी कम नहीं हुआ है और बीते संसदीय चुनाव में कुल 65,000 करोड़ का खर्च आया था।
1. 1951-52 में 10.5 करोड़ रुपए.
2. 1957 में 5.9 करोड़ रुपए.
3. 1962 में 7.3 करोड़ रुपए.
4. 1967 में 10.8 करोड़ रुपए.
5. 1971 में 11.6 करोड़ रुपए.
6. 1977 में 23 करोड़ रुपए.
7. 1980 में 54.8 करोड़ रुपए.
8. 1984-85 में 81.5 करोड़ रुपए.
9. 1989 में 154.2 करोड़ रुपए.
10. 1991-92 में 359.1 करोड़ रुपए.
11. 1996 में 597.3 करोड़ रुपए.
12. 1998 में 666.2 करोड़ रुपए.
13. 1999 में 947.7 करोड़ रुपए.
14. 2004 में 1016.1 करोड़ रुपए.
15. 2009 में 1114.4 करोड़ रुपए.
16. 2014 में 3870.3 करोड़ रुपए.
17. 2019 में 6500 करोड़ रुपए।
1951 से 2024 तक 389 गुना बढ़ा उम्मीदवारों का खर्च…
1. 1951 25,000
2. 957 25,000
3. 1962 25,000
4. 967 25,000
5. 971 35,000
6. 1977 5,000
7. 1980 1,00,000
8. 984 1,50,000
9. 1989 1,50,000
10. 991 1,50,000
11. 1996 4,50,000
12. 998 15,00,000
13. 1999 15,00,000
14. 2004 25,00,000
15. 2009 25,00,000
16. 2014 70,00,000
17. 2019 95,00,000
18. 2024 95,00,000