मध्यप्रदेश में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण पर आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार मोहन सरकार

अमित कुमार यादव लेखक – जेएनयू में राजनीतिक विज्ञान में पीएचडी कर रहे हैं तथा इंडियन एकेडमिक फोरम फॉर सोशल जस्टिस के अध्यक्ष हैं.

हाल ही में मध्य प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण को बढ़ाए जाने तथा इस संदर्भ में राज्य सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफ़नामे को लेकर सोशल मीडिया पर व्यापक बहस और राजनीतिक सरगर्मी देखी जा रही है। उल्लेखनीय है कि बीते 28 अगस्त को मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर ओबीसी आरक्षण को लेकर चल रही कानूनी लड़ाई में एक आम सहमति बनाने की कोशिश की। इसके साथ ही यह भी जान लेना आवश्यक है कि मध्य प्रदेश लोकसेवा (आरक्षण) अधिनियम 1994 के तहत ओबीसी वर्ग को प्रारंभिक रूप से केवल 14 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया था। किंतु 2019 में राज्य सरकार ने संशोधन अधिनियम लाकर इसे बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया। 2020 में हाईकोर्ट ने इस संशोधन के क्रियान्वयन पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा के सिद्धांत को दोहराया। यद्यपि एक बार फिर सितंबर 2021 में नई दिशा-निर्देश जारी हुआ और महाधिवक्ता की सलाह पर शिवराज सरकार ने पुनः 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू करने की अनुमति दे दी। परंतु इसके विरुद्ध दायर याचिका (शिवम गौतम बनाम राज्य) पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। इसके बाद राज्य में एक अस्थायी 87:13 फ़ॉर्मूला अपनाया गया, जिसके अंतर्गत 87 प्रतिशत पदों के परिणाम घोषित किए गए, जबकि 13 प्रतिशत पदों को “विवादित श्रेणी” में रखकर रोक दिया गया। इनमें आधे ओबीसी और आधे अनारक्षित माने गए ताकि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय के अनुरूप भविष्य में इनका समायोजन किया जा सके। जनवरी 2025 में इस अंतरिम व्यवस्था को चुनौती देने वाली याचिका खारिज हो गई, जिसके बाद राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जल्द सुनवाई की मांग की है।
अब यदि राज्य सरकार का प्रस्ताव मान्य होता है तो मध्य प्रदेश में कुल आरक्षण 73 प्रतिशत तक पहुँच जाएगा इसमें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए 20 प्रतिशत, अनुसूचित जाति (एससी) के लिए 16 प्रतिशत, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत और ओबीसी के 27 प्रतिशत प्रस्तावित हैं। लेकिन अब प्रश्न यह है कि क्या एमपी सरकार “असाधारण परिस्थितियाँ” सिद्ध कर 50 प्रतिशत सीमा पार करने का संवैधानिक औचित्य स्थापित कर पाएगी? क्योंकि इस लंबित विवाद का प्रत्यक्ष प्रभाव व्यापक है। इसके चलते 2019 से अब तक 35 से अधिक सरकारी भर्तियाँ प्रभावित हुई हैं, जिससे लगभग 8 लाख अभ्यर्थियों पर असर पड़ा है। इनमें से लगभग 3.2 लाख चयनित उम्मीदवार अपनी नियुक्ति की प्रतीक्षा में हैं और इसीलिए डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि वह 14 प्रतिशत से 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण के प्रश्न पर किसी भी स्तर तक कानूनी संघर्ष के लिए तैयार है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई होना है और इसी अक्टूबर महीने में इसके निर्णायक मोड़ पर पहुँचने की सम्भावना है।
आरक्षण के इस विवाद को केवल कानूनी या प्रशासनिक दृष्टि से नहीं, बल्कि इसे ऐतिहासिक और सैद्धांतिक आधारों पर भी परखने की आवश्यकता है। भारत में आरक्षण केवल एक नीतिगत प्रावधान नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की उस दीर्घकालिक आकांक्षा का हिस्सा है जो संविधान की आत्मा में निहित है। मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण को 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने की पहल, मूलतः इस प्रश्न से जुड़ी हुई है कि क्या मौजूदा आरक्षण व्यवस्था आज के बदलते सामाजिक यथार्थ को प्रतिबिंबित करती है? डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में स्पष्ट रूप से कहा था कि “राजनीतिक लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब वह सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की ठोस नींव पर टिका हो”। उनका स्पष्ट मानना था कि जातिगत विषमता और ऐतिहासिक वंचना को दूर किए बिना केवल संवैधानिक समानता वास्तविक समानता नहीं बन सकती। इसी विमर्श को आगे बढ़ाते हुए डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि भारतीय समाज में असमानता का मूल कारण जाति है और जब तक पिछड़ों को सत्ता-संरचना में समान भागीदारी नहीं मिलेगी, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा। उनका प्रसिद्ध नारा “पिछड़ा पावे सौ में साठ” इसी सामाजिक क्रांति की दिशा में दिया गया आह्वान था। इसके साथ ही गांधी के “अंतिम व्यक्ति के कल्याण” और जनसंघी चिंतक दीनदयाल उपाध्याय के “अंत्योदय” के विचार भी इसी सामाजिक संवेदना से प्रेरित हैं। सामाजिक न्याय के दार्शनिक सिद्धांतकार जॉन रॉल्स का “अडवांटेज ऑफ द लीस्ट” और नैंसी फ़्रेज़र का “रिकॉग्निशन एवं रिडिस्ट्रिब्यूशन” के सिद्धांत यह दर्शाते हैं कि न्याय का अर्थ केवल समान अवसर नहीं, बल्कि संरचनात्मक असमानताओं को दूर करने का दायित्व भी है।
इसी परिप्रेक्ष्य में मध्य प्रदेश सरकार ने महाजन आयोग (1980), पिछड़ा वर्ग आयोग (1996–2001) और हालिया सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण (2022–23) को आधार बनाते हुए यह तर्क दिया है कि राज्य की आधी से अधिक आबादी ओबीसी समुदाय से आती है, जबकि एससी और एसटी को मिलाकर वंचित समूह लगभग 87 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस दृष्टि से मात्र 14 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। गौरतलब है कि महाजन आयोग सहित अनेक रिपोर्टों ने राज्य में ओबीसी आरक्षण 27 से 35 प्रतिशत तक करने की अनुशंसा की है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि 1992 के “इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार” (मंडल) मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत सीमा का सिद्धांत केंद्रीय नीति पर लागू था तथा आज जब आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के बाद यह सीमा देश के कई राज्यों में पहले ही पार हो चुकी है, तब ऐसे में मध्य प्रदेश के संदर्भ में भी कतई आवश्यक नहीं है कि आरक्षण पर 50 प्रतिशत सीमा के प्रावधान का अनुसरण किया जाए। इसके अलावा आरक्षण विरोधी प्रायः इस संबंध में “मेरिट” की अवधारणा का हवाला देते हैं पर वे यह भूल जाते हैं कि भारतीय समाज में सदियों तक “मेरिट” को जातिगत विशेषाधिकारों ने परिभाषित किया है। भूमि, शिक्षा, संसाधनों और नौकरियों तक असमान पहुँच ने कुछ वर्गों को जो सामाजिक पूँजी प्रदान की, वह तथाकथित “प्रतिभा” नहीं बल्कि संरचनात्मक अवसरों का परिणाम थी। डॉ. अंबेडकर ने इसी संदर्भ में कहा था कि अवसरों की समानता के बिना लोकतंत्र केवल एक भ्रम बनकर रह जाएगा। मध्य प्रदेश की यह बहस इसी ऐतिहासिक यथार्थ को पुनः सामने लाती है कि सामाजिक न्याय की प्रक्रिया स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील है। समाज और राज्य, दोनों को समय-समय पर यह पुनर्विचार करना होगा कि क्या मौजूदा आरक्षण व्यवस्था वास्तव में उस समानता को मूर्त रूप दे पा रही है जिसकी कल्पना संविधान ने की थी।

आइए अब जानते हैं कि इतने बड़े हंगामे के पीछे कारण क्या है? तो बताते चलें कि बीते दिनों महाजन कमीशन की रिपोर्ट के उस हिस्से को कुछ आरक्षण-विरोधी तत्वों ने सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया, जिसमें राम और शम्बूक ऋषि की कथा का उल्लेख है। इस प्रसंग को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया, जिससे एक वैचारिक विवाद खड़ा हो गया। इसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई ने नौ बिंदुओं पर आधारित एक स्पष्टीकरण जारी किया, जिसमें लगाए गए सभी आरोपों का क्रमवार उत्तर दिया गया। यद्यपि इस सफाई की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि विवाद के केंद्र में तथ्यों से अधिक राजनीतिक और वैचारिक प्रतिक्रियावाद थी। इसके अलावा विवाद का दूसरा बड़ा कारण यह रहा कि मुख्यमंत्री मोहन यादव की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ओबीसी आरक्षण के पक्ष में पैरवी के लिए डीएमके के राज्यसभा सांसद एवं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन को नियुक्त किया है। मोहन सरकार का यह निर्णय इसलिए न्यायिक है क्योंकि हम देखते हैं कि विल्सन इससे पहले भी ओबीसी आरक्षण संबंधी कई मामलों में अपनी भूमिका निभा चुके हैं। मिसाल के तौर पर नीट के ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी आरक्षण को लागू कराने में इनकी भूमिका उल्लेखनीय रही है। मोहन यादव सरकार ने उनके अनुभव और विशेषज्ञता को देखते हुए उन्हें राज्य का वकील नियुक्त किया है, परंतु कुछ आरक्षण-विरोधी शरारती तत्वों ने इसे राजनीतिक दृष्टि से विवादास्पद बनाने का ग़ैर-ज़रूरी प्रयास किया है। इसके विपरीत, पूरे मध्य प्रदेश और देश भर में सामाजिक न्याय के समर्थकों ने मुख्यमंत्री के इस कदम की प्रशंसा की है। इसके साथ ही पूरे देश में ओबीसी समुदाय के भीतर यह संदेश गया है कि सरकार उनके प्रतिनिधित्व और संवैधानिक अधिकारों के प्रश्न पर पीछे हटने वाली नहीं है। राजनीतिक दृष्टि से भी यह क्षण अत्यंत निर्णायक है क्योंकि मोहन यादव ने यह निर्णय ऐसे समय में लिया है जब किसी भी प्रकार का पीछे हटना न केवल मध्य प्रदेश में भाजपा के सामाजिक आधार को नुकसान पहुँचा सकता है, बल्कि बिहार जैसे महत्वपूर्ण चुनावी राज्य में भी पार्टी की स्थिति को कमजोर कर सकता है। इसके साथ ही, आने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी पिछड़ी जातियों का भरोसा डगमगा सकता है। इसलिए यह समय आरक्षण विरोधी शरारती तत्वों के “फ़ियर साइकोसिस” से बचने और 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने का है।
हालांकि, इस पूरे विमर्श के बीच एक बड़ा प्रश्न यह है कि क्या आरक्षण की मौजूदा रेखाएँ आज के भारत में पर्याप्त हैं? लोकतंत्र का लक्ष्य यदि समान अवसरों की स्थापना है, तो यह स्वाभाविक है कि आरक्षण व्यवस्था का समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन हो। यह केवल आरक्षण के प्रतिशत को बढ़ाने का प्रश्न नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करने का भी है कि लाभ वंचिततम वर्गों तक पहुँचे। आरक्षण को शिक्षा और सरकारी नौकरियों तक सीमित न रखते हुए इसे स्वास्थ्य, भूमि सुधार और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों से जोड़ना भी उतना ही आवश्यक है। दरअसल, आरक्षण का प्रश्न “कब समाप्त होगा” का नहीं बल्कि “कैसे अधिक न्यायसंगत और प्रभावी बनेगा” का है। मध्य प्रदेश का यह प्रसंग हमें स्मरण कराता है कि सामाजिक न्याय की यात्रा अभी अधूरी है। संविधान ने हमें अवसर दिया था कि हम एक ऐसे लोकतंत्र का निर्माण करें जो केवल राजनीतिक अधिकारों पर नहीं बल्कि सामाजिक समानता पर आधारित हो। यदि आज भी राज्य की बहुसंख्यक आबादी अपने को वंचित महसूस करती है, तो यह मात्र आँकड़ों की समस्या नहीं बल्कि लोकतांत्रिक अपूर्णता का संकेत है। इसलिए यह समय है कि आरक्षण की सीमा को वर्तमान सामाजिक और आर्थिक यथार्थ के अनुरूप पुनः निर्धारित करने की प्रक्रिया को गंभीरता से शुरू किया जाए। मध्य प्रदेश में आरक्षण पर जितनी व्यापक और जीवंत सार्वजनिक बहस इस समय चल रही है, उतनी शायद ही किसी अन्य मुद्दे पर हुई हो। दशकों से कोटा व्यवस्था को वंचित समुदायों के लिए सामाजिक गतिशीलता का माध्यम माना गया है किंतु यह उन लोगों के बीच असंतोष का कारण भी रहा है जो अपने को इससे बाहर महसूस करते हैं। लेकिन उनके असंतोष के सापेक्ष आरक्षण की सीमा का पुनर्मूल्यकन इसलिए न्यायिक है क्योंकि इसके पृष्ठभूमि में सामाजिक एवं ऐतिहासिक अन्याय है इसके अलावा दूसरा तर्क लोकतंत्रीकरण का भी है जहाँ सदियों से वंचित तबके के उनकी जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व की चिंता है अतः ओबीसी आरक्षण को मौजूदा सीमा से आगे बढ़ाकर सामाजिक एवं कानूनी वास्तविकताओं के अनुरूप पुनर्निर्धारित किया जाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।