आज तक आपने सुना होगा कि जेल से रिहा होने के लिए कैदी तमाम तरह के कानुनी हथकंडे अपनाते है। कोई अपनी ऊंची पहुंच का तो कोई रूपए का रूतबा दिखा कर जेल से रिहा होने का प्रयास करते है। लेकिन उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर में एक ऐसा मामला सामने आया है, जिसने पुलिस से लेकर प्रशासन तक को चौंका दिया है। यहां एक कैदी ने जेल से रिहा होने के लिए क्रबिस्तान में जमीन खरीद ली। मामला यूं है कि यहां कब्रिस्तान कमेटी ने महज़ सात हजार रुपये में एक कैदी को ‘दफ्न’ कर दिया
कब्र की रसीद से मौत का प्रमाणपत्र
एक कैदी जो क्रबिस्तान में दफन हो गया था लेकिन यहां उसने सिर्फ अपने लिए कफन खरीदा था वह जीना चाहता था। इसलिए उसने अपनी मौत खरीदी और वो भी कागज़ों में, इस फर्जीवाड़े का मकसद था, उम्रकैद काट रहे कैदी को ‘मृत’ घोषित कर कानून की पकड़ से छुड़ाना। पूरी कहानी की शुरुआत हुई अफजाल नामक शख्स से, जो खुद हत्या के एक मामले में दोषी ठहराया गया था। लेकिन इस केस में सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि अफजाल ही एक दिन थाने शिकायत लेकर पहुंच गया। यहीं से परतें खुलनी शुरू हुईं।
मां ने खरीदी बेटी की मौत
अफजाल के मुताबिक, उसकी मां ने कब्रिस्तान कमेटी से सात हजार रुपये में एक दफन रसीद खरीदी, जिसके आधार पर नगर निगम से मौत का प्रमाणपत्र भी जारी हो गया। इस झूठी रसीद ने सरकारी कागज़ों में अफजाल को ‘मरा हुआ’ दिखा दिया।
झूठी मौत, असली दस्तावेज!
नगर निगम को जब जांच के लिए तीन मृत्यु प्रमाणपत्र भेजे गए तो जवाब आया कि तीनों प्रमाणपत्र निगम से विधिवत जारी किए गए हैं। यानी अब कागज़ों पर अफजाल एक मृतक है। भले ही वो थाने में खड़ा होकर अपनी शिकायत दर्ज करा रहा हो! जांच में यह भी सामने आया कि केवल अफजाल ही नहीं, उसके पिता सैय्यद शाने अली के नाम से भी ऐसी ही एक रसीद जारी की गई थी, जबकि उनका अंतिम संस्कार उत्तर प्रदेश में हुआ था
अफजाल को क्या सूझा, जो खुद थाने चला आया?
सबसे बड़ा रहस्य यही है जब अफजाल खुद फर्जी दस्तावेज़ों से ‘मरा हुआ’ साबित हो चुका था, तो वो खुद थाने क्यों गया? क्या किसी ने उससे बड़ा खेल खेला? या फिर कोई सौदा अधूरा रह गया? पुलिस अभी इन सवालों के जवाब तलाश रही है।
आवेदनकर्ता भी तो बराबर का दोषी?
नियमों के अनुसार मृत्यु प्रमाणपत्र परिवार के सदस्य के आवेदन पर ही जारी किया जाता है। यानी जिसने आवेदन किया, उसने जानबूझकर झूठ बोला। ऐसे में सिर्फ कब्रिस्तान कमेटी ही नहीं, फर्जी दस्तावेज़ बनवाने वाले लोग भी जांच के घेरे में हैं।
‘मौत’ का सरकारी रास्ता
किसी व्यक्ति की मौत के 21 दिनों के भीतर प्रमाणपत्र पाने के लिए पार्षद का पत्र और अस्पताल के दस्तावेज़ चाहिए होते हैं। अगर एक साल से ज्यादा समय बीत चुका हो, तो फाइल निगम से एसडीएम कोर्ट तक जाती है, फिर तहसीलदार, पटवारी, और राजस्व विभाग की रिपोर्ट पर फैसला होता है।
कितनों को मरा घोषित किया गया?
अब पुलिस की जांच का सबसे बड़ा सवाल है कि कब्रिस्तान कमेटी ने कितनों को मरा घोषित कर नकली रसीदें जारी कीं? कितने लोगों से इस खेल में पैसे वसूले गए? क्या पहले भी ऐसे फर्जी प्रमाणपत्र का इस्तेमाल किसी सरकारी नौकरी या कोर्ट केस में किया गया?
दफ्न हैं अब भी कई राज
ये मामला जितना दिखता है, उससे कहीं ज्यादा गहरा है। अफजाल का थाने जाना, फर्जी कागज़ बनवाने में परिवार की भूमिका, और निगम की लापरवाही को सामने लाना सब कुछ एक संगठित और सुनियोजित फर्जीवाड़े की ओर इशारा करता है। अब देखना ये है कि पुलिस कब और कैसे इन ‘दफन’ रहस्यों को उजागर करती है