बगलामुखी मंदिर विवाद: 288 बीघा जमीन पर सरकार का हक बहाल, MP हाईकोर्ट ने महंत के नाम पर हस्तांतरण किया रद्द

मध्य प्रदेश के आगर-मालवा जिले में स्थित प्रसिद्ध मां बगलामुखी मंदिर से जुड़ी 288 बीघा जमीन पर चल रहे दशकों पुराने विवाद का अंत हो गया है। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच ने एक अहम फैसला सुनाते हुए इस बेशकीमती जमीन पर सरकार का मालिकाना हक बहाल कर दिया है। कोर्ट ने अपने फैसले में जमीन को पुजारी के नाम पर करने के पुराने आदेश को अवैध बताया है।

जस्टिस सुश्रुत अरविंद धर्माधिकारी और जस्टिस देवनारायण मिश्रा की डबल बेंच ने राज्य सरकार की अपील को स्वीकार करते हुए एकल पीठ के 2017 के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें जमीन को निजी हाथों में सौंपने का निर्देश दिया गया था। इस फैसले के बाद मंदिर की करोड़ों रुपए की जमीन एक बार फिर शासकीय संपत्ति के रूप में दर्ज हो गई है।

क्या है पूरा मामला?

यह विवाद नलखेड़ा स्थित मां बगलामुखी मंदिर की लगभग 288 बीघा जमीन से जुड़ा है। यह जमीन सरकारी रिकॉर्ड में शासकीय भूमि के तौर पर दर्ज थी और मंदिर की व्यवस्थाओं के लिए संलग्न थी। विवाद की शुरुआत 1980 में हुई, जब तत्कालीन तहसीलदार ने अवैध रूप से इस जमीन का नामांतरण मंदिर के तत्कालीन पुजारी गोपीदास बैरागी के नाम पर कर दिया।

मामले के सामने आने पर इसे राजस्व न्यायालयों में चुनौती दी गई। कलेक्टर और कमिश्नर कोर्ट ने तहसीलदार के आदेश को गलत ठहराते हुए जमीन को वापस सरकारी घोषित कर दिया था। इन फैसलों के खिलाफ पुजारी पक्ष ने हाईकोर्ट की शरण ली थी।

एकल पीठ ने दिया था पुजारी पक्ष में फैसला

राजस्व न्यायालयों से राहत न मिलने पर पुजारी पक्ष ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में याचिका दायर की। साल 2017 में हाईकोर्ट की एकल पीठ (Single Bench) ने पुजारी पक्ष के हक में फैसला सुनाया। एकल पीठ ने कलेक्टर और कमिश्नर के आदेशों को रद्द करते हुए जमीन को याचिकाकर्ताओं (पुजारी के वंशजों) के नाम पर दर्ज करने का आदेश दे दिया था।

सरकार की अपील पर डबल बेंच का ऐतिहासिक फैसला

एकल पीठ के फैसले के खिलाफ आगर-मालवा कलेक्टर ने राज्य सरकार की ओर से हाईकोर्ट की डबल बेंच (Double Bench) में रिट अपील दायर की। सरकार की ओर से दलील दी गई कि तहसीलदार को शासकीय भूमि का नामांतरण किसी निजी व्यक्ति के नाम पर करने का अधिकार ही नहीं था। यह भी तर्क दिया गया कि मंदिर का पुजारी केवल व्यवस्थापक और सेवक होता है, वह मंदिर की संपत्ति का मालिक नहीं हो सकता।

डबल बेंच ने सरकार की दलीलों को सही माना। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में स्पष्ट किया कि मंदिर की संपत्ति देवता में निहित होती है और उसे किसी पुजारी या व्यक्ति विशेष के नाम नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने 1980 में तहसीलदार द्वारा किए गए नामांतरण को क्षेत्राधिकार के बाहर और अवैध करार दिया। इसी आधार पर बेंच ने 2017 के एकल पीठ के आदेश को निरस्त करते हुए कलेक्टर और कमिश्नर के फैसलों को सही ठहराया।

इस फैसले के साथ ही मंदिर की 288 बीघा जमीन पर सरकार का स्वामित्व एक बार फिर स्थापित हो गया है, जिससे दशकों से चले आ रहे इस महत्वपूर्ण विवाद पर विराम लग गया है।