जब दुनिया कैशलेस और डिजिटल पेमेंट की ओर बढ़ रही है, तब छत्तीसगढ़ में एक ऐसी परंपरा निभाई जा रही है जो हजारों साल पुरानी ‘वस्तु विनिमय प्रणाली’ (Barter System) की याद दिला देती है। करीब 6000 ईसा पूर्व में जब न तो नोट थे और न ही सिक्के, उस समय लोग एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु लेते थे। ठीक उसी तरह छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार जिले के कोरदा गांव में आज भी एक ऐसा मेला लगता है, जहां लोग रुपए नहीं, बल्कि रोटियां देकर सामान खरीदते हैं।
127 साल पुराना है ये अनोखा मेला
कोरदा गांव में हर साल ‘पोरा त्योहार’ के अवसर पर यह मेला लगता है, और इसकी खास बात यही है कि यहां कोई भी लेन-देन रोटियों के माध्यम से होता है। यह परंपरा लगभग 127 सालों से निभाई जा रही है। लोग अपने घर से ढेर सारी रोटियां लेकर मेले में पहुंचते हैं और वहां मौजूद दुकानदारों से रोटियों के बदले खिलौने, घरेलू सामान, सजावटी चीजें और दूसरी छोटी-मोटी चीजें खरीदते हैं।
ना QR कोड, ना कार्ड, सिर्फ रोटियां ही करेंसी
इस मेले में न तो कोई डिजिटल पेमेंट चलता है, न ही नकद लेन-देन होता है। यहां दुकानदार भी रोटियों को पूरी इज्जत के साथ लेते हैं और उनके बदले सामान सौंपते हैं। यह परंपरा एक ओर जहां पुरातन परंपरा को जीवित रखती है, वहीं समाज में सादगी, समानता और सांस्कृतिक जुड़ाव को भी बढ़ावा देती है। गांववाले इसे केवल खरीदारी का तरीका नहीं, बल्कि संस्कृति का उत्सव मानते हैं।
नई पीढ़ी को मिल रही संस्कृति की सीख
इस मेले का उद्देश्य केवल खरीदारी नहीं है, बल्कि नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ना भी है। बच्चे और युवा जब इस मेले में रोटियों से सामान खरीदते हैं, तो उन्हें हमारे अतीत की जानकारी मिलती है और यह एहसास होता है कि पैसों से बड़ी चीज होती है परंपरा और मानवता। कोरदा गांव का यह मेला न सिर्फ छत्तीसगढ़, बल्कि पूरे भारत के लिए एक मिसाल है कि संस्कृति को कैसे जिंदा रखा जाए।